विभाजन के आईने में झूठा सच

Dr. Mulla Adam Ali
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Jhutha Sach Novel by Yashpal


डॉ. मुल्ला आदम अली

    यशपाल का जन्म का जन्म 3 दिसम्बर 1903 को पंजाब में, फ़िरोज़पुर छावनी में एक साधारण खात्री परिवार में हुआ था। उनकी माँ श्रीमती प्रेमदेवी वहाँ अनाथालय के एक स्कूल में अध्यापिका थी। यशपाल के पिता हीरालाल एक साधारण कारोबारी व्यक्ति थे। यशपाल का नाम आधुनिक हिंदी साहित्य के कथाकारों में प्रमुख है। ‘झूठा-सच’ उपन्यास दो खंडों में –‘वतन और देश’ और ‘देश का भविष्य’ में कुल 1200 पृष्ठों में प्रकाशित है। प्रथम भाग ‘वतन और देश’ 1958 में प्रकाशित हुआ। प्रथम भाग में 1942 से लेकर 1947 तक कि घटनाओं का सफल अंकन किया गया है। इस उपन्यास में स्वतंत्रता आंदोलन तथा देश विभाजन की घटनाओं को प्रमुख रूप से लिया गया है।

Jhutha Sach Novel by Yashpal

झूठा-सच भाग-1 (वतन और देश)

  प्रस्तुत उपन्यास का कथानक 15 अगस्त,1947 से छः मास पूर्व लाहौर की परिस्थिति पर आधारित है। मुख्यतः दो परिवारों के जीवन का इसमें वर्णन है। मास्टर रामलुभाया तथा पं. गिरिधारी लाल के परिवार के इर्द-गिर्द को समेटकर कथावस्तु का गठन हुआ है। इसके अतिरिक्त लाल सुखलाल साहनी, प्रो. प्राणनाथ (पंजाब के गवर्नर जेकिन्सन के इकनॉमिक एडवाइजर), बधवालाल, नारंग, कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता मि. असद, पौरोकर के संपादक कशिश बाबू, रामज्वाया, उनकी लड़की शीलो तथा भोला पाँधे की गली के अनेक परिवार भी इसमें शामिल हैं। 

     उपन्यास की संपूर्ण कथावस्तु भोला पाँधे की गली और वहाँ के हिंदू परिवारों पर केंद्रित है। इस गली के बहाने लाहौर में उस समय रहने वाले सभी स्तरों की हिंदू मानसिकता और अप्रत्यक्ष रूप से उस समय के पंजाब के हिंदूओं की मानसिकता को पकड़ने का प्रयत्न इसमें हुआ है। प्रगतिवाद लेखक होने के कारण यशपाल ने जीवन के विभिन्न स्तरों के पात्रों को यहां उपस्थित किया है। लाहौर के अलावा नैनीताल और लखनऊ का वर्णन भी इसमें हुआ है। विभाजन के समय की हिंदू, कांग्रेस, सिक्खी और कम्युनिस्ट मनोवृति को निष्पक्ष होकर इसमें रखने का प्रयत्न किया गया है।

    इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र राम लुभाया का बड़ा लड़का जयदेव पूरी है। 1943 में वह एम.ए. के दूसरे वर्ष पढ़ रहा था। 1942 के युद्ध विरोधी आंदोलन में भाग लेने के कारण वह गिरफ्तार हो गया था। जेल से छूटने के बाद वह नौकरी पाने का प्रयत्न करता है। उसकी बहन 1942 में मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गई थी, और उस समय बी.ए. में पढ़ रही थी, माँ, बाप के विरोध के बावजूद भाई जयदेव के सहयोग से, उसकी सगाई उसके चाचा तथा चाची के आग्रह के कारण लाहौर के ही एक परिवार सुखलाल साहनी के बेटे सोमराज साहनी से हुई है जो एक छांटा हुआ गुंडा है। जयदेव पुरी में साहित्यिक प्रतिभा है। बहुत प्रयत्न के बाद किसी कांग्रेस नेता की चिट्ठी से उसकी नियुक्ति ‘पायोनियर’ नामक पत्रिका में हो जाती है। पत्रकार के रूप में उसका संपर्क पंडित गिरधारी लाल के परिवार से होता है। उनकी दूसरी अविवाहित लड़की कनक सुंदर और प्रतिभा संपन्न है। जयदेव उसकी ओर आकृष्ट हो जाता है। दोनों विवाह करना चाहते हैं। परंतु कनक के पिता और उसके जीजा जी को यह संबंध स्वीकार नहीं है। उधर तारा को सोमराज साहनी ना पसंद है। वह कम्युनिस्ट कार्यकर्ता असद की ओर आकृष्ट है। असद और तारा के बीच प्रणय बढ़ने लगता है। कनक पर अनेक प्रतिबंध लगाए जाते हैं। इस कारण वह जयदेव से मिल नहीं पाती। इसी बीच एक अग्रलेख के कारण जयदेव की नौकरी चली जाती है। अपनी इन्हीं मानसिक उलझनों के कारण वह असद-तारा के संबंधों का भी विरोध करता है। परिणामतः तारा का विवाह सोमराज के साथ हो जाता है। परंतु उसी रात सोमराज के घर पर मुस्लिमों का आक्रमण हो जाता है, तारा भाग निकलती है और अनके संकटों, अत्याचारों का सामना करती हुई शरणार्थी शिविर में पहुंच जाती है और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा वहां से दिल्ली पहुंचा दी जाती है। आक्रमणकारी सोमनाथ का घर जला देते हैं, इस कारण तारा के परिवार वाले समझते हैं कि वह भी उसी में जली मरी। तारा के विवाह और उसकी तथाकथित मृत्यु के बाद जयदेव पुरी नैनीताल पहुंचता है और वहां से नौकरी हेतु लखनऊ। इसी समय लाहौर में हुए भयानक हत्याकांडों की सूचना उसे समाचार पत्रों से मिल जाती है और वह अपने परिवार वालों को ढूंढने के लिए लाहौर की ओर निकलता है, पर वहां पहुंच नहीं पाता। ‘वतन और देश’ की मुख्य कथा यही है। यथार्थ चित्रण के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है।

    यशपाल देश विभाजन के कारणों की चर्चा विस्तार से नहीं करते। उनका मुख्य लक्ष्य सांप्रदायिकता के जहर में छटपटाता आम आदमी है। निम्न मध्यवर्ग, व्यापारी, स्त्री और नौकरीपेशा वर्ग की इस समय जो स्थित हुई, उसका चित्रण करना उनका लक्ष्य रहा है। इसी कारण इस उपन्यास में लंबी चौड़ी राजनैतिक चर्चा नहीं मिलती, अपितु विभाजन की आग में लोग कैसे झुलस गए, इसका चित्रण है। फिर भी संक्षेप में हिंदू-मुस्लिम अलगाव के कारणों का चित्रण यशपाल ने किया है।

    अंग्रेजों के अतिरिक्त अलगाव के लिए आर्थिक कारण भी जिम्मेदार थे। संपूर्ण पंजाब में हिंदू अमीर थे, व्यापारी थे, ऊंचे पदों पर थे। अल्पसंख्याक होने के बावजूद आर्थिक, सामाजिक और कुछ सीमा तक राजनीतिक सत्ता उन्हीं के हाथों में थी। इस आर्थिक संपन्नता के कारण ही हिंदू-सिक्ख अधिक संख्या में मारे गए, ऐसा यशपाल का दावा है। प्रमाण स्वरूप कुछ उद्धरण प्रस्तुत है-

(1) “मरे मुसलमानों के घर में होता ही क्या है। चार बर्तन मिट्टी के, एक हुक्का।“1

(2) “लाहौर में मुसलमान इक्यावन फ़ीसदी है तो क्या हुआ। जमीन-जायदाद तो अस्सी फीसदी से ज्यादा हिंदूओं की है।“2

(3) “अगर पंजाब के सभी हिंदू मुसलमान बनकर यहां ही बैठे रहते तो गरीब मुसलमानों का क्या फसदा होगा।“3

(4) “बहन जी सच है मुसलमानों ने हिंदूओं को लूटा है। कौशल्या देवी के समर्थन से उत्साहित होकर ड्राइवर बोला, पर हिंदू सैकड़ों बरस से इन लोगों को लूटते निचोड़ते चले आ रहे हैं। नहीं तो जमीन पर रहने वालों में अमीरी-गरीबी का इतना फर्क क्यों होता है। पंजाब की सब जायदाद हिंदूओं के हाथों क्यों चली जाती है। गरीब पहले गुस्से में मुसलमान हुआ, दूसरा गुस्सा यह है। गुस्सा मजहब का भी है पर गरीबी का भी हैं बहन जी।“4

       उपयुक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि अलगाव की प्रमुख कारणों में से एक कारण आर्थिक भी था। इसी आर्थिक विषमता के कारण विभाजन हुआ, हिंदूओं को लूटा गया, उन पर अत्याचार हुआ है।

      अंग्रेजी की नीति ने भी हिंदू-मुस्लिम अलगाव को प्रखर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंजाब का तत्कालीन गवर्नर जेकिन्स मुस्लिमों की ओर से अधिक बोलता था। वह हिंदूओं पर पक्षपात करता था यह एक सत्य है, अतः यशपाल ने इसे भी अलगाव का एक प्रमुख कारण माना है, जिसे उदाहरणों द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है-

(1) “मुझसे (गवर्नर के आर्थिक सलाहकार प्रो.प्राणनाथ) गवर्नर ने पंजाब के हिस्सों में फैले असंतोष के आर्थिक कारणों के विषय में रिपोर्ट मांगी थी। उसे मालूम है कि किसान भूमि व्यवस्था में परिवर्तन के लिए विद्रोह करने पर तुले हैं। किसानों की ओर से सरकार पर आने वाले संकट को टालने का फिलहाल यही उपाय हो सकता है कि वे अपनी समस्या सांप्रदायिक झगड़ों में भूले रहे।“5

(2) “लीग-कांग्रेस का झगड़ा हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा बन गया है।...अंग्रेजों ने कम्युनल बेसिस (सांप्रदायिक आधार पर) चुनाव की नीति चलाई थी। उसका फल अब पक रहा है।“6

      यशपाल अंग्रेज नीति को विभाजन का कारण स्वीकार करते हैं जो ऐतिहासिक परिस्थितियों को देखते हुए सत्य भी था। डलहौजी की ‘फूट डालो और राज करो’ से बात का पूरी तरह से स्पष्टीकरण होता है।

         देश विभाजन में कांग्रेस का योगदान भी यशपाल स्वीकार करते हैं। उनका मानना था कि कांग्रेस को वजारत प्राप्त करने की जल्दी थी। उनके अनुसार उस समय पंजाब का कांग्रेस नेतृत्व अखिल भारतीय कांग्रेसी नीतियों का पालन नहीं कर रहा था। वह तो पूर्णतः हिंदुत्ववादी बन गया था और अपनी इसी मनोवृति के कारण उसने विभाजन में सक्रिय भूमिका निभाई। उपन्यास में इसे पूर्णतया स्पष्ट किया गया है कि गलती कांग्रेसी हिंदू लीडरों की है। कांग्रेस खिजर हयात खां जैसे अंग्रेज परस्त को अपना क्यों मान रही है; इसे जयदेव पूरी समझ नहीं पाता। “जिस ने युद्ध काल में कांग्रेसी नेताओं को जेल में बंद करके पंजाब अंग्रेजी साम्राज्य शाही के क़दमों पर कुर्बान कर दिया था, वह आज इन कांग्रेसी नेताओं का अपना बन गया है।“7 विभाजन के लिए यशपाल गांधी जी को कारण नहीं मानते। उनके अनुसार यह फैसला गांधीजी की अपेक्षा नेहरू और पटेल का है। कांग्रेसी नेता डॉक्टर प्रभु दयाल कहते हैं –“यह तो पं. नेहरू, सरदार पटेल और कांग्रेस वर्किंग कमिटी का फैसला है। गांधी जी का तो इस निर्णय से कोई संबंध नहीं है। उन्होंने तो साफ-साफ कह दिया है कि नेहरू और पटेल सरकार चला रहे हैं। सरकार की जिम्मेदारी हाथ में लेकर बीसीयों ऐसे राजाओं (रईसों) का असर उनकी राय पड़ता है, जिन्हें मैं नहीं जानता, इसलिए मैं अपनी नादानियों से उनके फैसलों में हर्डल (बाधक) नहीं बनना चाहता।“8

इससे पता चलता है कि विभाजन का निर्णय गांधीजी की राय के बिना लिया गया था। यशपाल ने गांधी जी द्वारा अपने उपन्यास में भले ही यह सब कहलवाया है। 

देश विभाजन के कारणों के साथ-साथ यशपाल ने देश विभाजन की विभीषिका का बहुत ही यथार्थ, जीवंत और करुण चित्रण किया है। लेखक का मानना है कि इस विभाजन के कारण सबसे ज्यादा दुर्गति आम आदमी की हुई। अपने यथार्थ चित्रण की दृष्टि से यह उपन्यास सर्वाधिक सफल है। 

उपन्यास के कुछ एक उदाहरण इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है:-

(1) “सुना है शाहल्मी दरवाजे पर एक हिन्दू लड़के ने मजिस्ट्रेट चीमा के पक्षपात से चिढ़कर उस पर गोली चला दी थी। सब लोग जानते है कि अफसर निःसंकोच अपने-अपने संप्रदाय का पक्षपात कर रहे है। मजिस्ट्रेट ने लड़के को वही गोलियों से छिदवा दिया और रात को अपने सामने शाहल्मी के बाजार में हिंदूओं की दुकानों से किवाड़ तुड़वा दिये। मिट्टी के तेल के कनस्तर छिड़कवा कर आग लगवा दी।... जो लोग आग बुझाने आये उन्हें कर्फ़्यू में निकलने के अपराध में गोली चलाकर मार दिया गया।“9

(2)“एक पक्ष के लोगों ने स्त्रियों का अनसुना अपमान करने की वीरता दिखाई है, दूसरे पक्ष के लोग यह कैसे स्वीकार कर लें की वे कम पशु हैं। पशुता की होड़ में कैसे पीछे रह जायें।“10

         ये उदाहरण तो नमूना पात्र है इस तरह के उदाहरण उपन्यास में बिखरे पड़े हैं और ये उदाहरण लेखक ने अपनी कल्पना से नहीं गड़े हैं यह एक ऐसा यथार्थ का प्रस्तुतीकरण है जिसकी गवाही इतिहास के पन्नों में अभी भी मिल सकती है।

     यशपाल ने चित्रित किया है कि उस समय उस भयावह त्रासदी का शिकार आम आदमी ही हो रहा था। वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान। अपने वर्णन में यशपाल कहीं भी पक्षपात से काम नहीं लिया है। उन्होंने दोनों कौमों की बर्बादी का सामान समान रूप से चित्रण किया है। उस समय मनुष्य की एक ही पहचान थी, धर्म और उसी धर्म के आधार पर दोनों कौमों के लोग मारे जा रहे थे।

     इस विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि ‘झूठा-सच’ भाग-1 (वतन और देश) में मार्च 1937 से 31 अगस्त 1947 का बड़ी ही जीवंत और यथार्थ चित्रण किया गया है। देश विभाजन की पृष्ठभूमि, उसके कारणों, तत्कालीन समय में देश विभाजन के प्रति लोगों की मानसिकता, उस समय के राजनीतिक वातावरण, अलगाववादी शक्तियों एवं प्रवृत्तियों, इन के फलस्वरूप उत्पन्न सांप्रदायिकता उसके फैलाव के पीछे सक्रिय हाथों तथा उस वजह से पिसते, बेघरबार होते तथा अपनी जड़ों से उखड़ थे मासूम आदमियों की कथा बड़ी जीवंतता के साथ इस खंड में कही गई है।

झूठा-सच भाग-2 (देश का भविष्य)  

     यशपाल का उपन्यास “झूठा-सच” भाग-2 ‘देश का भविष्य’ में पुरी शरणार्थी कैम्प में घटनाओं से लेकर विभाजन के दौरान लोगों में बदलती मान्यताएँ, बदलते हुए मूल्यों के अतिरिक्त विस्थापितों का पाकिस्तान के काफ़िलों में आना, रेल में भीड़-भाड़, नैतिक मान्यताएँ, अराजकता का वातावरण के यथार्थ चित्रण ‘देश का भविष्य’ उपन्यास में किया गया है। 

     उपन्यास के दूसरे खंड ‘देश का भविष्य’ में यशपाल 15 अगस्त,1947 के बाद के भारत का चित्र खींचा है। जब सांप्रदायिकता अपने उग्र रूप में आ चुकी थी। यहां यशपाल ने सम्प्रदायवाद का वैसा ही बेबाक खाका खींचा है ‘वतन और देश’ में लाहौर को लेकर।

     सांप्रदायिक दंगे, शरणार्थियों की त्रासद स्थितियों तथा विभाजन के कारण विघटित मानवीय मूल्यों के चित्रण के साथ-साथ इस खंड में तत्कालीन राजनीति की चर्चा की गई है। जिसमें से गाँधीजी द्वारा सांप्रदायिकता के विरोध में किया गया अनशन, उनके द्वारा पाकिस्तान को दिलवाया गया मुआवजा, कांग्रेसियों का सत्ता पाकर उसका दुरुपयोग किया जाना, गाँधी की मृत्यु एवं उपन्यास के अंत में कांग्रेसी सूद जी की हार और कम्युनिस्ट प्रत्याशी का जीत जाना आदि प्रमुख घटनाएं है। यशपाल ने उन समय की राजनीति स्थिति के बारे में अपने संस्मरण में जो संकेत दिया है, उसी का यथातथ्य वर्णन उपन्यास मिलता है-

      “ब्रिटिश शासन आए मुक्ति के बाद कि एक और महत्वपूर्ण परिस्थिति थी। वैधानिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय का अवसर पाकर भी हम अपने राजनैतिक भाग्य को समाज और राष्ट्र का नेतृत्व संभाल बैठे लोगों के कंधों पर छोड़कर उस ओर से बेपरवाह हो गए थे। अव्यवस्था की व्याकुलता अनुभव करके भी आत्मनिर्णय के अधिकार और उसके अवसर से उसका उपाय करने में विवश।“11

     इस विवशता का एक कारण यह भी था कि आम जनता उस समय अपनी ही मुश्किलों और तकलीफों का हल ढूंढने, उन्हें दूर करने में इतनी अधिक मशरूफ थी कि राजनीति के बारे में सोचने की उसे फुर्सत ही नहीं थी। लेकिन यशपाल ने ‘झूठा-सच’ में दिखाया है कि धीरे-धीरे जनता सचेत होती गई और इसका प्रमाण तब मिलता है जब दूसरे चुनावों के नतीजे सामने आते है। कांग्रेसी सूद जी चुनाव हार जाते हैं और कांग्रेसी की हार एक ऐतिहासिक सत्य है। उस समय डॉ. प्राणनाथ द्वारा टिप्पणी स्वरूप कहा गया वाक्य जिससे दूसरे खंड का समापन होता है।

        “जनता निर्जीव नहीं है। जनता सदा मूक भी नहीं रहती। देश का भविष्य नेताओं और अंग्रेजी की मुट्ठी में नहीं है, देश की जनता के ही हाथ में है।“12

    लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह वही जनता है, जिसने विभाजन की त्रासदी को झेला था, तकलीफों से जूझते हुए अपना सही मकाम हासिल किया था और उनकी तकलीफों और कटु अनुभवों ने ही उसे यह शक्ति दी थी, आत्मा-निर्णय का अधिकार दिया था। अतः अब विभाजन के दौरान के कष्टों, उन त्रासदियों का वर्णन देखते हैं, जिन्हें झेलते हुए ‘झूठा-सच’ की जनता अथवा तत्कालीन समय की जनता ने आत्म निर्णय के अधिकार को पहचाना था।

    जहां प्रथम खंड की कथा लाहौर में घटित हुई थी वहीं दूसरे खंड के केंद्र में जलंधर और दिल्ली। विभाजन के दौरान जयदेव पुरी कनक के परिवार के साथ नैनीताल में देखा जाता है। फिर वहां से वह लाहौर की ओर निकलता है। तारा परिवार से बिछड़कर अनेक कष्टों को झेलने के उपरांत शरणार्थियों की गाड़ी में बैठकर भारत की ओर रवाना हुई थी।

    दूसरे भाग की कथा का आरंभ पुरी की त्रासद, अर्थभाव से ग्रस्त स्थिति से होती है। वह लाहौर जाने के लिए निकला तो था पर लाहौर नहीं पहुंच पाता। लाहौर में संयोग से उसकी मुलाकात कांग्रेसी कार्यकर्ता विश्वनाथ सूद से होती है, जो 1942 के समय उसके साथ जेल में था। सूद जी से उसकी मुलाकात उस स्थिति में होती है, जब वह अपना सब-कुछ खोकर सर्वहारा स्थिति में था और एक ढाबे में जीवन निर्वाह हेतु बर्तन धोने का कार्य करता था। उस स्थिति में वह सूद जी से आंखें मिला ने भी स्वयं को असमर्थ पा रहा था। लेकिन सूद जी उसे पहचान कर सहारा देते हैं और इस प्रकार जयदेव के जीवन में स्थिरता आती है। पुरी की स्थिति इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि वह दौर एक ऐसी आंधी का था जिसमें अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोग भी अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत थे। पुरी को बर्तन धोते हुए कष्ट तो होता है लेकिन वह इसे समय का फेर मानकर स्वीकार कर लेता है, उस समय जीवन रक्षा का प्रश्न ही उसके लिए सबसे बड़ा प्रश्न था। पुरी ने देश की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए उपन्यास ने कहा –“बंटवारे के संबंध में कांग्रेस और लीग में समझौता हो जाने का कारण 10-11 अगस्त तक किसी को झगड़े की आशंका नहीं रही। 19 अगस्त को नैनीताल में समाचार मिला कि लाहौर में शहर की चारदीवारें के भीतर से सब हिंदूओं को निकाला जा रहा है।“13

    उस समय लाहौर की आम हिंदू जनता धोखे में रह रही थी उसका संकेत यहां प्राप्त होता है। सत्ता के हस्तांतरण या आजादी के बाद देश की बदलती राजनीतिक स्थिति के साथ-साथ शरणार्थियों की स्थिति, हिंदूओं में प्रतिरोध प्रतिशोध वृत्ति, शिविरों तथा कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार। हिंदू नारी की दारुण स्थिति आदि का अत्यंत यथार्थ और जीवंत चित्रण इस खंड में हुआ है।

    प्रथम खंड में ही यशपाल ने शरणार्थी शिविरों की अराजक स्थिति और शरणार्थियों की दुरवस्था का संकेत दिया था परंतु दूसरे खंड में उनके कष्टों, उनकी समस्याओं का चित्रण उन्होंने विस्तृत फलक पर किया है। शरणार्थियों की स्थिति हर जगह खराब थी वह चाहे पाकिस्तान हो या भारत।

    दूसरे खंड का आरंभ ही शरणार्थियों की दारुण स्थिति के चित्रण से होता है। जयदेव पुरी भी मजबूरी के कारण अन्य प्राप्त करने के लिए शरणार्थियों की पंक्ति में खड़ा होता है। पुरी ही नहीं उस पंक्ति में कई ऐसे व्यक्ति खड़े थे जो किसी समय अत्यधिक संपन्नावस्था में थे लेकिन आज विवशता वश उन्हें भीख पर जीवन जीवित रहना पड़ रहा था। कुछ वार्तालाप स्थिति को पूर्णतया स्पष्ट करते हैं-

                “भाई, हम चार आदमी दो बच्चे भी है। डेढ़ पाव आटा, छटांक भर दाल से हमारा क्या बनेगा। भाई सेर भर आटा तो दो।“

                 “माई, फी आदमी डेढ़ पाव आटा, छटांक भर दाल का ही ऑर्डर है। जो यहां आएगा उसी को मिलेगा।“ राशन बांटने वाले ने नियम की विवशता प्रकट की। कुछ लोग स्त्री का समर्थन करने लगे।

                 दूसरे लोग ने राशन बांटने वाले का साथ दिया –“आदमी तो सभी के साथ है। किसी के साथ पाँच है, किसी के साथ दस है। कोई चारा का चार का राशन ले जाकर बेच भी सकता है। सच्चाई इसी में है कि जिसे लेना हो सामने आकर ले।“14

    इस उद्धरण से शरणार्थियों की स्थिति का पता चलता है जहां उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब में नहीं हो रहा था। पुरी जब जालंधर से अपने परिवार को ढूंढने के लिए अमृतसर निकलता है तो वहां मुस्लिम काफिलों को पाकिस्तान की ओर जाते हुए देखता है-

    “पुरी की आंखों के सामने कोई व्यक्ति अपनी घोड़ी को लगाम से खींच कर ले जा रहा था। भूख से दुर्बल घोड़ी सवारी के अयोग्य थी। सड़क के किनारे के खेत से एक जाट काफिले में घुस आया। घोड़ी की लगाम मालिक हाथ से झटक ली और घोड़ी को खेत में खींच ले गया। काफिले के साथ हजारों आदमियों में से कोई विरोध न कर सका। कोई बोल नहीं, न किसी ने हाथ हिलाया। न्याय, अधिकार और औचित्य का कोई प्रश्न ही नहीं था।“

    “......काफिले में जाते जीवन मुसलमान का मनुष्यता भी समाप्त हो गया था।“15

    ये उद्धरण से शरणार्थी मुसलमानों की स्थिति स्पष्ट करते हैं। भारत में आए शरणार्थी भी इसी तरह दीन-हीन थे और उनमें से उन स्त्रियों की हालात तो और भी बुरी थी जो अपने घर परिवार से बिछड़ कर मुसलमानों के शोषण का शिकार होकर जिंदा लाश की तरह शरणार्थी शिविरों में आई थी या लाई गई थी। तारा भी इस तरह के एक शिविर में अपने साथ कैद अन्य स्त्रियों के साथ लाई जाती है। तारा तो फिर भी शिक्षित है, अत्याचार सहकर भी टूटी नहीं है और अपना सहारा खुद बन सकती है। लेकिन वही कुछ स्त्रियां ऐसी भी है जो इस आशा में जो जी रही है कि उनके घर और परिवार का पता लग जाने पर वे फिर वहां जा सकेंगे पर उनकी आशाएँ तब बिखर जाती है तब उनके परिवार वाले पहचान कर, उनका पता पाकर भी उन्हें ले जाने से इनकार कर देते हैं-

     “पेक्के (पिता-माता) इसे नहीं ले गये। कह दिया, हमने तो ब्याह दी थी, अब ससुराल वाले जाने। ठीक ही कहते है” स्त्री ने और भी गहरा साँस लिया “उन्होंने एक बार निबड़े (निबटा) दिया।“16

      मानो ब्याह देने के बाद माता-पिता का दायित्व ही समाप्त हो गया। और ससुराल वाले इन स्त्रियों को इसलिए स्वीकार नहीं करते क्योंकि मुसलमानों के घर राह आयी है. मानो स्वयं राजी-खुशी से मुसलमानों के साथ गयी थी। बंती की कहानी इस तरह की है। तारा के साथ आई शरणार्थियों में बंती नाम की एक स्त्री भी है जो बहुत अत्याचारों का शिकार हो चुकी है क्योंकि उसके परिवार वाले डर के मारे उसे मुसलमानों के हाथों सौंपकर भाग आये थे। वह अपने परिवार तथा बच्चे से भी मिलने को बहुत उत्सुक है। तारा के सहारे या भरो से ही यह अशिक्षित और गंवार बंती अपने परिवार को ढूंढने हेतु तारा के साथ अमृतसर से दिल्ली आती है। सौभाग्य से उसे अपने पति का पता चल जाता है और गली में खेलते हुए उसका बच्चा उसे मिल जाता –“मेरे काका! बंती जीखकर एक छोटे से मकान की ओर लपकी उसने पहली दहलीज में बैठी प्रौढ़ की वह से दुबला-पतला बच्चे को झपट लिया उसे सीने से चिपकाकर ऊंचे स्वर में रो पड़ी।“17 लेकिन अपने पति, बच्चे और सास मिलकर भी बंती को ससुराल में आश्रय नहीं मिलता। वे उस घर में नहीं रख सकते क्योंकि मुसलमानों ने उन्हें क्या ऐसा ही छोड़ दिया होगा-

   “उन्होंने घर-दरवाजे तोड़कर औरतों को खराब किया, उन्हें छोड़ दिया होगा।“18 तारा उन्हें समझाने का प्रयत्न करती –“माँजी इसका क्या कसूर है! खुद तो रहने नहीं गयी थी। तुम्ही लोग डर के मारे इसे छोड़ आये थे? यह तो जान पर खेलकर छूटते ही भागी-भागी आयी है। नौ दिन से तुम्हें खोज रही है।“19

    लेकिन उसकी सास उसे स्वीकार नहीं करती और उसका पति आकर भी यही निर्णय देता है –“दो महीने मुसलमानों के घर रह आयी है। हम कैसे राजद ले।“20

    अपनी आशाओं पर तुषारापात होते देखकर बंती पागल हो जाती है और सर पटक-पटककर जान दे देती है, तब उसके ससुराल वाले लाल कफन देते है क्योंकि वह सुहागिन है उस पति की; जो उसकी रक्षा करने, आश्रय देने में तो आनाकानी करता है पर कफन देने में जरा भी देर नहीं करता। मुहल्ले वालों का वार्तालाप स्थिति की विभीषिका पर बड़ी कठोरता से व्यंग करता है-

    “देख तो बेशर्मी को लाल कफन दे रहे है। अब वह सुहागिन बन गई।“ एक स्त्री क्रोध और घृणा से कह रही थी।

                  “सती हो गई।“ किसी ने कहा।

            “खसम के जीते जी सती हो गयी।“ दूसरी ने कहा।“21

    इस प्रसंग में यशपाल ने बड़ी बेबाकी से हिन्दू-सनातनी वृत्ति और अंधश्रद्धा का पर्दाफाश किया है। हिन्दू स्त्रियों ने एक ओर तो मुसलमानों का अत्याचार बर्दाश्त किया और सब सहकर भी इस आशा में जिंदा रही कि कभी तो वे अपने घर-परिवार में जाकर सुकून की साँस ले पायेंगी पर दूसरी ओर हिन्दू धर्म की क्रूर सनातनी वृत्ति का शिकार भी उन्हें ही होना पड़ा। इस तरह की सैकड़ों स्त्रियां अपने परिवार वालों द्वारा नकारी गयी। यशपाल का यह चित्रण कल्पना की उपज नहीं है यह एक ऐतिहासिक सच है।

     स्त्रियां की दुरवस्था का पता उपन्यास के इस चित्रण सभी लगता है कि शरणार्थियों शिविरों में युवतियों को वेश्या व्यवसाय में लगाने का कार्य भी कुछ स्त्रियां और कार्यकर्ता कर रहे थे। उन दिनों दिल्ली में यह बात आम हो गई थी। परमुखापेक्षी और पराश्रित इन स्त्रियों को अनेक आकर्षण दिखाकर, फुसलाकर उनकी मजबूरी का फायदा उठाया जा रहा था। प्रस्तुत उपन्यास ने तारा जैसी सुंदर पढ़ी-लिखी नवयौवना को फंसाने का प्रयत्न खद्दरधारी प्रसाद जी करते हैं। शरणार्थी स्त्रियों की बेबसी और भारतीयों की मनोवृति का तीखा चित्रण यशपाल जी ने किया है। यहां आए हुए लाखों शरणार्थियों के दुखों की किसे चिंता थी, सभी अपनी अवसरवादिता का परिचय दे रहे थे। जालंधर, अमृतसर और दिल्ली के व्यापारी शरणार्थियों की महंगी चीजें दो कौड़ियों में खरीदकर पैसे बनाना में लगे थे। शिविरों में कार्यकर्ता शरणार्थियों के हिस्से का आटा बेचकर अपना घर भर रहे थे।

     शरणार्थियों, एक वे हालात के मारे थे, दूसरी ओर सरकार की सहायता भी उन तक काफी देर से पहुंची थी अथवा आधा ही पहुंचती थी। इसी कारण शरणार्थियों ने कानून और व्यवस्था अपने हाथ में लेकर दिल्ली, अमृतसर, जालंधर, लुधियाना आदि प्रदेशों में मुस्लिमों पर आक्रमण शुरू कर दिए। उनके सामने सरकार ने यही एक रास्ता छोड़ा था। परिणामतः अनेक मुस्लिम पाकिस्तान भागने लगे। जितनी संख्या में मुस्लिम वहां पहुंचे उससे दोगुनी संख्या में उन्होंने वहां के हिंदूओं को मारकर वहां से बाहर निकाला और जितनी संख्या में हिंदू यहां आए संभव है उतनी ही संख्या में मुसलमानों को घरों से बाहर निकाला गया।

      यह कथन जरा भी अतियुक्तिपूर्ण नहीं है कि ‘झूठा-सच’ के दोनों खंडों में विभाजन का यथार्थ चित्रण हुआ है और इस बात को कई आलोचकों ने भी एक मत से स्वीकार किया है –“देश के सामाजिक और राजनीतिक वातावरणों को यथासंभव ऐतिहासिक यथार्थ के रुप में चित्रित करने का प्रयास किया गया है।--- कथानक में कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ अथवा प्रसंग अवश्य है परंतु सम्पूर्ण कथानक कल्पना के आधार वे उपन्यास है, इतिहास नहीं।“22


अपने इस मार्क्सवादी दृष्टिकोण के कारण यशपाल मार्क्सवाद की विजय और जनता की जागरूकता का संकेत देते हुए दूसरे खंड का समापन करते है। जहां उन्होंने इस खंड में शरणार्थियों की त्रासदियों का चित्रण किया है, वही यह भी दिखाते है कि किस तरह मुश्किलों को झेलकर ये पुरुषार्थी बनते है। अपने ही देश में अपने अधिकारों को संघर्ष के द्वारा प्राप्त करते है और इतने अधिक सजग बन जाते है कि सत्ता को पलटने में भी अहम् भूमिका निभाते है।

संदर्भ:

1. यशपाल- झूठा-सच भाग-1- पृ-67

2. वहीं- पृ-129

3. वही- पृ-389

4. वही- पृ-457

5. वही- पृ-73

6. वही- पृ-111

7. वही- पृ-47

8. वही- पृ-82

9. वही- पृ-440

10. वही- 419

11. भीष्म साहनी- यशपाल’ झूठा-सच के संस्मरण : आधुनिक हिंदी उपन्यास- पृ-115

12. वही – पृ-115

13. यशपाल- झूठा-सच भाग-2 – पृ-13

14. वही – पृ-10

15. वही- पृ-20-21

16. वही – पृ-96

17. वही- पृ-121

18. वही- पृ-122

19. वही – पृ-122

20. वही- पृ-123

21. वही- पृ-125

22. वही – भूमिका

(ISSN 2455-5169 , परिवर्तन त्रैमासिक ई-पत्रिका, वर्ष 5, अंक 18, अप्रैल – जून 2020 प्रकाशित लेख)

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