आलेख - बन्धु कुशावर्ती
हम अवध किसान आन्दोलन' की शताब्दी के दौर से गुज़र रहे हैं। अत्यन्त विडम्बनापूर्ण दूर्योग यह है कि 'अवध किसान आन्दोलन' के १००साल बाद, आज के स्वतन्त्र भारत में भी इस देश का किसान अपनी कहलाती संघी व भाजपायी सरकारों से वैसे ही क्षुब्थ होकर आन्दोलनरत है और मृत्यु का वरण कर रहा है, जैसे कि सरमायेदारों के सरपरस्त-ब्रिटिशराज से निरन्तर क्षुब्ध और असन्तुष्ट रहकर आन्दोलन करने को विवश हुआ था! इस देश का किसान तब यहाँ की रियासतों, राजे-रजवाडों-समेत छोटे-बडे़ जमींदारों-ताल्लुकेदारों के कई स्तर के अहलकारों से लेकर, ब्रिटिश-सत्ता के नीचे से ऊपर तक के अमले यानी--पुलिस के चौकीदार, सिपाही-थानेदार, कप्तान साहेब ही क्यों डिप्टी-कमिश्नर के अधीन मामूली अफसरो से लेकर उसकी फौज-फाटे की लाठी-गोलीबारी की नृशंसतापूर्ण-दमनात्मक कार्रवाइयों की चक्की में अपने बाल-बच्चो मवेशियों व लोग-लुगाइयों समेत पिसता हुआ तबाह होता जाता था। देश मे सबसे ज़्याद; लगभग १४० तरह के टेक्स अवध के किसानों पर आयद होते रहते थे!अपवादों को छोड़, इसमें सरमायेदारों की पार्टी काँगरेस और उसके नेताओं को संचालित करते-महात्मा कहलाते गान्धीजी तथा हिन्दुआई नेता मदनमोहन मा़लवीय आदि की भूमिका भी अधिकांशतः निरपेक्ष व निष्क्रियताओं का ही शोचनीय-उदाहरण रही है!
इसके विरुद्ध जैसी बुलन्द-आवाज़ सन् १९१३-'१४ से जि़न्दगी के आखि़री दम तक सम्पादक और श्रेष्ठ पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी 'प्रताप' अख़बार व 'प्रभा' पत्रिका के द्वारा निरन्तर बने रहे हैं,वह भारत की हिन्दी-पत्रकारिता का स्वर्णिम-अध्याय है।अब,से एक शताब्दी पहले के अवध किसान आन्दोलन में विद्यार्थीजी का 'प्रताप', किसानों और उनके साथ हम-कदम बनी जनता के लिये महज अख़बार नहीं, 'प्रताप बाबा' कहा जाने लगा था! किसी भी अख़बार का ऐसा साधारणीकरण कि वह व्यक्तिवाचक-संज्ञा में बदल जाय; एक शताब्दी-पूर्व के 'अवध किसान आनन्दोलन' एवं इस देश के 'स्वाधीनता आन्दोलन' समेत 'भारतीय पत्रकारिता के इतिहास की भी ये असाधारण-उपलब्थि थी!
इसी के समानानतर हमारे विश्व-स्तरीय लेखक हैं प्रेमचन्द, जो पूरे जीवन कथाकार, उपन्यासकार नाटककार, पत्रकार, सम्पादक आदि की भूमिका में लेखनरत रहे हैं। उनका बहुविध साहित्य भारतीय-किसान के त्रासद-जीवन का आइना है। उसमें अवध के किसान को बेदख़ली, हारी-बेगारी और महाजनों के द्वारा सूदखो़री के शिकंजे में किसान की गर्दन फँसाकर तबाह कर देने की जैसी क्रूर-भयावहता उजागर होती है, उसे पढ़कर रूह काँप उठती है! ग्रामीण और किसानों के जीवन के कष्टों और कसाले से भरी जिस दुर्निवार और लाचारी-जि़न्दगी को अपने साहित्य में प्रेमचन्द ने गहराई और व्यापकता से जीवन्त किये हें, "दरअस्ल उसके सारे अन्तर्निहित-अनुभव उनको अवध-क्षेत्रीय बहराइच,बस्ती, परताबगढ़ और लखनऊ शहर से लेकर गाँवों की ज़मीन से मिले हैं" --यह बात हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक एव समीक्षक-आलोचक रामविलास शर्मा ने प्रेमचन्द के जीवन और साहित्य की गहन-पढ़ताल करने के बाद कही है और---, "प्रेमचन्द के लेखन की शुरुआत भी परताबगढ़ जैसे अवध के छोटे और क़स्बाई जिले से होती है"; यह बात प्रेमचन्द की जीवनी 'क़लम का सिपाही' के लेखक अमृतराय की क़लम से कुछ इह तरह से दर्ज़ हुई है। पढि़ये--
प्रेमचन्द की "नियुक्ति २जुलाई, १९०० को जिलास्कूल के ५वें मास्टर के पद पर बहराइच में हुई। सरकारी नौकरी का ये सिलसिला शुरू ही हुआ था कि ढाई महीने बाद परताबगढ़ जिला स्कूल के फर्स्ट मास्टर के पद पर उनका तबदला हो गया... यहाँ पर वह ताले के ठाकुर साहब की हवेली के एक कमरे मे रहते व उनके दो लड़कों को पढा़ते थे। ठाकुर साहब बिल्कुल अपने लड़कों जैसा ही इनको भी मानते थे तो ज्यादातर हवेली पर ही इनका भी खाना होता था। लिखते-पढ़ते, पर पढ़ने से कहीं ज़्यादा अब लिखते और अक्सर रात को देर तक लिखते रह जाते। बचपन के गोरखपुर वाले दिनों-जैसा पढ़ने का चस्का अब न था कि १३साल की उम्र में अपने एक मामू की करतूत की छीछालेदर करने को नाटक लिख डाला था (जिसे अपनी इज्जत बचाने को वो मामू लेकर ९,२,११ हो लिये थे तो उस धुर बचपन में ही इनको ये भान हो गया था--लिखे का असर जबर्दस्त होता है!).... अब लिखते तो वह अपनी रगों में एक नयी ही सुरसूराहट और दिल में एक नयी ही तड़प महसूस कर रहे थे,जो अब अपने लिये ज़बान माँगती थी।
यहाँ अजीज़ मिलने-जुलने वालों में बाबू राधाकृष्ण (जो आगे अवध चीफ कोर्ट के जज हुए) थे! उन्हें ये अपनी नयी चीजें बराबर सुनाते थे।बाबू राधाकृष्ण साहित्य -रसिक तो थे ही,खु़द भी शेर कह लेते थे।"
परताबगढ़ से शुरू हुआ प्रेमचन्द के लेखन का सिलसिला बचपन के उनके प्यारे नाम 'नवाब' में राय को जोड़ करके "नवाबराय" के नाम से छपता था! २ साल की टीचर्स ट्रेनिंग (इलाहाबाद), फिर कानपुर (यहाँ शिक्षाविभाग में, उनके उर्दू के पहले कथा संकलन 'सोजे़वतन' पर जाँच बिठा दी गयी थी।तब उन्हें हिदायत मिली थी कि आइन्दा विभाग से तय अधिकारी की पड़ताल में उनका लेखन छापने योग्य पाये जाने पर ही छपवाया जा सकेगा!) व हमीरपुर मे रहने तक उनका लिखना-छपना गतिहीन ही रहा! विभागीय-पाबन्दी के नाते कमोबेश जो लेख होता भी था,वह बेनाम या छद्म नाम से ही छप पा रहा था।इस बीच उन्हें पेट की बीमारी भी जान को ऐसी लग गयी थी कि सेहत गिरती ही जाती थी तो दूसरी तरफ 'हिन्दी में लिखो'; ये तकाजे़ भी बेतरह आते थे।तब खु़द ललकते भी वह खू़ब क्योंकि;दौर भी अब हिन्दी को ही तरजीह दे रहा था। उर्दू के बदले हिन्दी में लिखने-छपने से बेहतर इज्ज़त व शोहरत के साथ ही अब पाठक और पैसे भी मिल रहे थे। हिन्दी में 'प्रताप' अख़बार निकाल रहे विद्यार्थीजी तो इनसे बराबर कहते-'अरे आप हिन्दी में लिखें तो सही;सबसे बढ़कर हम 'प्रताप' मे छापेंगे।'
इसी बीच जुलाई १९१४ में तबादले पर प्रेमचन्द बस्ती आ गये! यहीं पहली बार की कोशिश में जैसी भी बनी,हिन्दी में लिखी अपनी पहली कहानी झट 'प्रताप' में ही सीधे भेज दी! 'हिन्दी भें सबसे पहले लिखी प्रेमचन्द की यह कहानी विजयदशमी-अंक (अक्तूबर १९१४) में छपी, शीर्षक रहा --परीक्षा!'', ये तथ्य और ये भी कि विभागीय हिदायतो के नाते छिपे तौर पर छद्म नामों से लिखने-छपने से आजिज़ आकर इन्होंने एक बार अजीज़-दोस्त व 'ज़माना' के सम्पादक दयानरायन निगम को जब बेहद खीझ करके लिखा कि ''नवाबराय को अब 'स्वर्गवासी' ही समझिये। "तब निगम साहब ने ही लिखने के लिये इन्हें नया नाम सुझाया था-- "प्रेमचन्द"! और; ''हिन्दी में छपी इस "परीक्षा" कहानी से ही "प्रेमचन्द" का जन्म हुआ! ये भी कि १०० साल से ज़्यादा अर्से से इसे हिन्दी-उर्दू के पाठ्यक्रम में हमारी कई पीढि़याँ पढ़ती आ रही हैं किन्तु; इस कहानी के नायक का नाम क्या है? तथा ये तथ्य भी कि संंकट में निरुपाय एक किसान का,एक अनजान नौजवान किस दिली सदाशयता व इन्सानियत से जी-जान लगाकर संकटमोचक बन जाता है! परिणामतः यह नौजवान ही रियासत के बुजुर्ग दीवान का स्थानापन्न व 'नया दीवान' चुना जाता है,इसलिये कि रियासत की रैय्यत(किसान, मजू़र) समेत पूरी प्रजा सुख-शान्ति से निर्विघ्न-निरापद रह सके! आज भी 'परीक्षा' कहानी के नायक का नाम 'जानकीनाथ' भला कितनों को याद है!
दरअस्ल ब्रिटिशराज में राजे-रजवाडो़ं, छोटे-बडे़ ज़मीदारों-ताल्लुके़दारों से सर्वाधिक त्रस्त छोटे-मझोले किसान और मज़दूर रहे हैं। किसान की मृत्यु हो जाने पर यदि उसका परिवार मुँहमाँगा नजराना और बढी़ मालगुजा़री/लगान नहीं दे पाता था तो उसके खेत किसी और को देकर उस परिवार को ही उनके खेतों से बिना कुछ सुने और विचारे हमेशा के लिये बेदख़ल कर दिया जाता था! ऐसी बेदख़ली पर लिखी हुई प्रेमचन्द की अल्पज्ञात कहानी 'बलिदान' (१९१८, 'सरस्वती' मई, १९१८ में छपी यह कहानी उर्दू के 'जमाना':जन.-फर.१९१९ में तथा प्रेमचन्द के हिन्दी-उर्दू कहानी संकलनों में भी प्रकाशित) इसी कथ्य को रेखांंकित करती है, जिसका नायक गिरधारी, अपने पिता हरखचन्द/हरखू (जिसका देशी शक्कर का करोबार विदेशी-चीनी के बढ़ते व्यापार के आगे देखते ही देखते धराशायी हो गया था) की मृत्यु के बाद १००रुपये नज़राना व ८रुपये फी बीघा लगान न देने से अपने पिता के ५ बीघा खेतों से तो बेदखल हो गया,पर आत्महत्या करके प्रेत के रूप मे अपने खतों पर ऐसा मँडराता रहा कि जिसने उसकी जोत को अपने नाम कराया,वह कभी उस पर कोई फसल बोने की हिम्मत नहीं कर पाया!
प्रेमचन्द की दूसरी कहानी है-- 'विध्वंस' (१९२१, 'आज' २५ जुलाई, १९२१ व उर्दू के 'हुमायूँ': अप्रैल, १९२२ में छपी)! यह ब्रिटिशराज के गाँवोंं में निर्ममता से बेगा़झर कराने की पराकाष्ठा को रेखांकित करती है।बीरा गाँव के ब्राम्हण ज़मींदार उदयभानु पांडे ने अपने गाँव मे बसी भुनगी गोँडि़न, जो वृद्धा व सन्तानहीन विधवा थी, भाड़ में लोगों के चने-चबेने भूँजकर किसी तरह जी रही थी,।एक दिन पाँडे़ ज़मींदार ने अनाज से भरे दो-दो टोकरे कारिन्दों से भिजवाकर हुक्म लगा दिया कि अभी भून के दे!सो और लोगों के चने-चबेने न भूजन पर भी नामुमकिन था।अतःकारिन्दे तीसरे पहर तक दोनों टोकरे के दाने भुन जाने का फरमान सुनाकर चले गये और फिर लेने आये तो आधा भी न भुना होने से लौटे तो उसी रात भुनगी का भाड़ खोदकर वृद्ध विधवा को नितान्त निरावलम्ब कर दिया गया!
अब उस ग़रीबिनी की क्या हिम्मत कि जीने के इकलौते सहारे भाड़ को फिर बनाकर पेट पाल ले।दिन,हफ्ते और पखवारे के बाद महीना बीत गया। लोग पांँडे़ महराज से सिफारिश भी करते रहे,पर वह न पसीजे तो नहीं ही पसीजै कि लोगों के कहने से जिस भोर भुनगी अपना भाड़ लगभग बना ही चुकी थी;लगान वसूलने निकले पाँडे़ ज़मींदार उसके किये-धरे को देखकर आपे से बाहर ही नहीं हुये, तुर्की़-ब-तूर्की कहा-सुनी से आग-बबूले होकर भुनगी का भाड तो खु़द ध्वस्त किया ही, उसके भाड़ की पत्तियों में भी आग लगवा दी। हर कोई अवसन्न कि हवा पाकर आग की ज्वालाएँ पास के घरों व झोपडों समेत उग्र हुईं तो सहसा भुनगी इधर अपनी जलती झोपडी़ में कूद गयी! हवा के हाहाकार के आगे भुनगी की फिक़्र कौन करता, लोग आग की चपेट में आते गाँव की आग बुझाने दौड़ पडे़!आग की विकरालता और भी बढी़ तो उदयभान महराज की बखार और विशाल भवन भी भस्मीभूत करके ही शान्त हुईं!
अग्नि-सागर ने भुनगी की बलि लेकर जो भस्मावशेष छोडा़ था,वह कितना कारुणिक था, इसका विवरण क्या देना?
इसके बाद पाठक चाहें तो इस क्रम में प्रेमचन्द के कथा, उपन्यास और कथेतर साहित्य को बेतरह खँगालने और पढ़ने पर आ सकते हैं,पर 'अवध किसान आन्दोलन' की शताब्दी पर प्रेमचन्द की तद्-युगीन इन कहानियों के क्रम में उनकी 'सद्गति' कहानी और; समग्रता में उनका 'रंगभूमि' उपन्यास 'सुरदास' की दृढ़ताओं और अडिगताओं के साथ बरबस याद आ रहा है!
बन्धु कुशावर्ती
अवध क्षेत्रीय सांस्कृतिक - साहित्यिक परिवेश के जिले सुलतानपुर (उत्तर प्रदेश) में
जन्म : ५ अक्तूबर, १ ९ ४६।
विद्यार्थी जीवन से लेखन - प्रकाशन के साथ साहित्यिक - सांस्कृतिक पत्रकारिता और साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन। बालसाहित्य के परिदृश्य का एकाग्रता से अध्ययन एवं समीक्षात्मक आलोचनात्मक लेखन।
सम्पादक :
१. ' कात्यायनी ' एवं ' सजीला ' (लखनऊ १ ९६८-१९ ७४) से प्रारम्भ से ही सम्पादकीय - सहयोगी के रूप में जुड़ाव।
२. ' लघुकथा ' एवं बालरंगमंच ' पत्रिकाओं का १६७४ से १ ९ ६२ तक संपादन प्रकाशन।
३. सम्पूर्ण बालरचनाएँ : अमृतलाल नागर (२०११) कासम्पादन एवं भूमिका - लेखन।
४. सुभद्राकुमारी चौहान का बालोपयोगी किशोरोपयोगी साहित्य (संचयन) एवं ' कुली प्रथा ' (जब्तशुदा नाटक) / लक्ष्मणसिंह चौहान : प्रकाशनाधीन।
५. बालसाहित्यालोचन : अभिनव हस्तक्षेप (खण्ड : २ व ३) लेखनाधीन
सम्मान एवं पुरस्कार : 'लल्लीप्रसाद पाण्डेय बालसाहित्य पत्रकारिता सम्मान ' - २०१५ से उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा समादृत।
सम्पर्क:
४५६/२४७, दौलतगंज (साजन मैरिज हॉल के सामने), डाकघर - चौक, लखनऊ -२२६००३ (अवध)
मो. ९७२१८६६२६८, ६४५१३५६७६०
ये भी पढ़ें ;