हिंदी कविता में प्रकृति, पर्यावरण और कोरोना
यह बात केवल छायावादी मन की नहीं है। जिस क्रौंच-वध से शोक, श्लोक में बदल गया; प्रकृति और मनुष्य के मनोभावों की पीड़ा में महाकाव्य बन गया। और शब्द ढ़लने लगे अनेक मनोभावों में, नव रसों के साथ। मनुष्य की हजारों -हजार चित्तवृत्तियों के साथ। हिंदी काव्यधारा में संस्कृत- प्राकृत- अपभ्रंश के प्रकृति चित्रण के अनेक संस्कार हैं; जो रासो साहित्य में बारहमासा या षड्ऋतु वर्णन के रूप में आए। भक्ति साहित्य में इतना ही संकेत पर्याप्त है कि राम सीता की चिंता में लक्ष्मण से कहते हैं - "घन घमंड नभ गरजै घोरा, प्रियाहीन सकुचै मनमोरा।" रीति साहित्य में आलंबन -उद्दीपन की शास्त्रीय परंपरा के साथ प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण भी खूब हुआ। हिंदी की जबान पर पद्माकर का "बगर्यो बसंत है" वाला कवित्त खूब जमा हुआ है -"कूलन में कछारन में कुंजन ,क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है।" ये सब रस के उद्दीपन के लिए, भाव के उद्दीपन के लिए। और कभी स्वतंत्र आलंबन और अलंकार रूप में।
हिन्दी की राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा में प्रकृति में राष्ट्रीय -राग- भावना का तादात्म्य हो गया। जब हरिऔध ने प्रियप्रवास में एक चित्र दिया-"दिवस का अवसान समीप था/
गगन कुछ लोहित हो चला/ तरु शिखा पर थी अब राजती/ कमलिनी कुलवल्लभ की प्रभा।।
'लोहित' और 'प्रभा 'के रंग तो मौजूद थे ही, वे अभिधा काव्य की सतह
से निकलकर छायावाद की लाक्षणिक रंग- योजना (कलर स्पेक्टरम) टिकट टमें मुखर हो गए । जब मैथिलीशरण गुप्त ने यह कविता लिखी- "नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है/ चंद्र सूर्य युक्त मुकुट मेखला रत्नाकर है/ नदियाँ प्रेम प्रवाह फूल तारा मंडल है/बंदीजन खगवृंद शेषफन सिंहासन है/करतेअभिषेक पयोद,बलिहारी उस देश की/हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की। "तो यह सारे पुराने उपमान राष्ट्र- रागिनी में नियोजित हो गए ।पर इन्हें निराला की कविता में गहरी अंतरंगता मिली - "भारती जय विजय करे "गीतिका में-"तरु -तृण -वन -लता -वसन/अंचल में खचित सुमन/ गंगा ज्योतिर्जल-कण /धवल धार हार गले "। और इसी के भीतर गूँजता प्राण -प्रणव ओंकार भी।
अलबत्ता हिंदी का प्रकृति -काव्य छायावाद इन्हीं सोपानों से प्रकृति के विविध रंगों में अध्यात्म की अनुभूति, राष्ट्रीय राग,मानवीय मनोभावों की सृष्टि, लाक्षणिक व्यंजना और सांस्कृतिक जागरण के साथ स्वर्ण युग बन गया। हरिऔध के प्रियप्रवास में जो 'दिवसावसान 'का स्थूल बिंब था, वह निराला की मेघमय आसमान से उतर रही 'संध्या सुंदरी' के अमूर्त उपमानों में मानवीकरण बन गया -अलसता की सी लता/किंतु कोमलता की कली/
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह/
छाँह सी अंबर पथ से चली। "धरती और आकाश एक हो गए। प्रकृति- राग में मानव- राग समा गया। प्रकृति के साकार बिंब में निर्गुण लक्षित हो गया। प्रकृति का जागरण मानव -जागरण में बदल गया। "बीती विभावरी जाग री" कविता में प्रसाद का जो जागरण भाव था, वह कामायनी में सांस्कृतिक आत्मा का राष्ट्रीय जागरण बन गया- "विषमता का चिर विकल विषाद /उमड़ता कारण जलधि समान/व्यथा की नीली लहरों बीच/बिखरते सुख मणिगण द्युतिमान।" या कि "दुख की पिछली रजनी बीच/
विकसता सुख का नवल प्रभात"।महादेवी में चेतना का यह अंतःस्वर - "मैं नीर भरी दुख की बदली" सीम-असीम से विरह-मिलन का युगों का इतिहास बन जाता है।
प्रकृति में चेतना का यह उद्भास व्यक्ति -केंद्रित नहीं, बल्कि मानवीय राग से केंद्रित है। यहाँ जागरण आध्यात्मिक ऊर्जा की तरह है। इसी कारण छायावाद को दूसरा भक्तिकाव्य कह दिया जाता है। पंत की' परिवर्तन 'कविता में तो समूची प्राकृतिक सृष्टि उत्थान-पतन में निरंतर नये दृश्यों की पटकथा बन जाती है।
लेकिन नयीकविताऔरप्रयोगवादी कविता में प्रकृति भावनात्मक स्पर्शों से हटकर नए रूप में आती है।छायावाद की रूप -रस -गंध की एन्द्रियता से हटकर हटकर नए उपमान और अस्तित्व के नए धरातल का स्पर्श करती है। नरेश मेहता की वानस्पतिक स्पर्श वाली कविताओं में समूचा उपनिषदीय आलोक उनके नये बिंबों में उजला हो जाता है। प्रसाद के गीत-'"तुम कनक किरण के अंतराल में लुक छिपकर चलते हो क्यों "की आंतरिक दृश्यमानता से छिटकर पूरी धरती का विराट बिंब बन जाती है-"सूर्य/एक सावित्री संपन्न कर रहा है/ जिसमें अंधकार मात्र की हवि दी जा रही है/चंद्र /एक सोमयज्ञ संपन्न कर रहा है / जिसमें औषध मात्र की हवि दी जा रही है / मनुष्य
एक विचार यज्ञ कर रहा है / जिसमें तत्वमात्र की हवि दी जा रही है /सारे यज्ञ /एक अस्ति यज्ञ को संपन्न कर रहे हैं/ जिसमें नेति नेति की हवि दी जा रही है।"
प्रकृति और मनुष्य के इस प्रकाश- यज्ञ से भिन्न अस्ति का दूसरा कोण है अज्ञेय की "नदी के द्वीप" कवितामें। मानवीय अस्तित्व का वात्सल्यमय दार्शनिक धरातल-"द्वीप हैं हम!
यह नहीं है शाप/अपनी नियति है/
हम नदी के पुत्र हैं/बैठे नदी की क्रोड़ में/
वह बृहत् भूखंड से हम को मिलाती है/
और वह भूखंड अपना पितर है।"
यों अज्ञेय के काव्य में सौंदर्य का प्रतिमान है -"कलगी बाजरे की"।नारी के उन्मुक्त अस्तित्व का नया उपमान। लंबी-छरहरी मगर हवा के साथ स्वातंत्र्य को जीती हुई। केदारनाथ अग्रवाल की "स्वयंबर "कविता में शीश पर मुरेठा बाँधे चना, अलसी हठीली और सरसों पीली फागुनी रंगों में मंडप सजाते हैं। "शिला पंख चमकीले" के कवि गिरिजकुमार माथुर की प्रकृति बिंबों की दृश्यमानता स्पर्शिल है।
पर भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं मेंजीवन के रंग चहलकदमी करते हैं। "सतपुड़ा के घने जंगल" में प्रकृति का अलहदा रूप है। मगर जब वे लिखते हैं- "फूल को बिखरा देने वाली हवा/ कौन कहता है/ कि चलनी नहीं चाहिए /समूचा जंगल/जला देने वाली आग भी / कौन कहता हैकि लगनी नहीं चाहिए।" तो प्रकृति का रुख ही हवा और आग के लोकतंत्र की ओर जाता है। रूप सौंदर्य की लहक से निकलकर स्वातंत्र्य की हवा और आक्रोश की आग बनकर यह काव्य स्वर लोकतंत्र को प्राण दे रहा है ।तभी निराला फिर याद आ जाते हैं -"कहा" ज्ञान" ने "फिर तू कैसा प्रभात?"/ अगर हटाई ना हटी "वैसी रात "।तय है कि प्रकृति के सारे स्पंदन उन लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर धकेल रहे हैं, जो जिंदगी के अंधेरे को प्रभात की रोशनी में बदलना चाहते हैं।
केदारनाथ सिंह के काव्य में प्रकृति बिंब तो पूरा स्पेक्टरम रचते हैं। इनमें लोकतंत्र की स्वातंत्र्य लहरियों को गतिमान कर देते हैं, तो प्रतिमान और युगबोध ही बदल जाते है- "लहर को हक दो/ वह कभी संग पुरवा के / कभी संग पछुआ के/इस तट पर भी आए .../
उस तट पर भी जाए/और किसी रेती पर सिर रख कर सो जाए /
नई लहर के लिए। "इसी नई लहर के बरअक्स अगर दुष्यंत का यह शेर रख दिया जाए -"खरगोश बनकर दौड़ रहे हैं तमामख्वाब /फिरता है चाँँदनी में कोई सच डरा डरा। "तो इस लोकतंत्र में भी डर के यथार्थ और केदारनाथ सिंह की 'लहर को हक दो' का भीतरी उत्प्रेरण युग की सच्चाई और युग मूल्य बन जाते हैं।
समकालीन कविता में प्रकृति और यथार्थ के रंग उभर कर आए हैं। उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता ।मनुष्य के लालच ने धुँआ उगलती चिमनियों के कार्बनउत्सर्जन से ओजोन परत में छिद्र किये हैं। नदियों को मलवाहिनी गंदगी और औद्योगिक कचरे से पाट दिया है ।आज पराबैंगनी किरणों के आतंक से ग्लोबल वार्मिंग पूरी दुनिया की बेचैनी बन चुका है। ग्लेशियर भी पिघलकर धरती के विनाश के दर्दीले आँसू बहा रहे हैं। बुलडोजरों ने जितने पहाड़ों को चीर दिया है , कंक्रीट सभ्यता ने उतने ही घने जंगलों को। एक तरफ भवानी भाई की "सतपुड़ा के घने जंगल "और उसके समानांतर हरियालीविहीन कंक्रीट -सभ्यता की मल्टियाँ।
यदि "नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है" कविता को आज की ज्ञानेंद्रपति की गांगेय कविताओं के समांतर रख दिया जाए, तो सभ्यता के विकास का असल सामने आ जाएगा। पॉलीथिन सभ्यता के विकराल ने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।अब।ज्ञानेन्द्रपति की कविता "गंगा स्नान "की बूढ़ी गंगा के दृश्य को निराला की "भारती जय विजय करे "की गंगा ज्योतिर्जलकण "पंक्ति के साथ तो वे काले बुदबुदों में साफ-साफ नजर आएँगे-"स्वार्थी कारखानों का तेजाबी पेशाब/झेलते/ बैंगनी हो गई तुम्हारी त्वचा"।
औद्योगिक सभ्यता के पूँजीवादी बाजार में सारे जलजंतुओं को आकुल -व्याकुल कर दिया है।ज्ञानेन्द्रपति की इस कविता को देखिए- "उसके घोंसलों के अंडे /हरछौंह सफेद/क्यों तो हुए जा रहे हैं उनकेखोल तुनुक/शायद गिद्ध- भोज्य पशु माँस में पैबस्त कीटनाशकों के/विषवश/असमय भंगुर/ओह! कब से नहीं गूँजी हैं किलकारियाँ /गिद्ध शावक की/ उसके घर अहर्निश एक डर /क्या म्रियमाण है/ सुनील आकाश को मथने वाले /उसके सवरण अभिलाष /क्या अब आकाश अगोरती थकेगी /धरती पर लावारिस लाश। और अरुण कमल की कविता " खुशबू रचते हैं हाथ" पर भी निगाह डालिए-" कई गलियों के बीच/ कई नालों के पार/ कूड़े करकट के ढेरों के बाद /बदबू से फटते जाते इस टोले के अंदर"। यह व्यंग्य गहरा है ।मनुष्य और प्रकृति के बीच कचरा बीनते चेहरों की व्यथा का भी। पर ज्ञानेंद्र पति ने खनिज तेल के समुद्री जहाज के डूबने पर समुद्री जीवों की व्यथा का पुरअसर चित्र खींचा है- "खनिज तेल से लथपथ उन समुद्री पक्षियों ने/ क्या कभी अपने निर्लज्ज दुःस्वप्न में भी सोचा था /समुद्र इस तरह जल उठेगा, भभक उठेगा/ धुँए का विकराल दैत्य घोंटेगा उनके कंठ का, आकाश ही नहीं /आकाश का कंठ /जाने कितने नदी पथों से कभी वहाँ पहुँचे हुए /प्राचीन कछुओं के उम्रदराज वंशजों ने/ अपनी स्मृति शिराओं में संजो रखी थी /कोई ऐसी संस्मरण कथा/ कि जल, जल उठा हो ,वह भी जलधि का जल /नहीं, ऐसा कोई संस्मरण नहीं ,दुस्वप्न नहीं/उन
जीवजंतुओं के पास।"
आज हम प्रदूषण और युद्धों के तांडव में ही नहीं एक अदृश्य वायरस से भय खाते हुए अपनों से दूर अपने घरों में कैद हैं। समूचे साहित्य में जैसे कोई नया वाद "कोरोनावाद" के रूप में आज की भयावहता का सन्नाटा बन गया है। अनिल जोशी लिखते हैं - "सन्नाटे के पास शब्द नहीं होते/ भाषा नहीं होती/ सिर्फ हवाएँ होती हैं/ और मेरे हिस्से में आई हुई साँस /मैं नहीं जानता जानता/जानता हूँ बस इतना कि/मैं भी सन्नाटा हो जाऊँगा /और हवाएँ/ चलती रहेंगी ।" इस सन्नाटे में सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा करते मजदूर जब नदी पर बने पुल से गुजरते हैं ,तो नदी मजदूरों से कहती है -"मुझे बहुत प्यास लगी है /अपने पसीने का पानी/ मुझे दे दो ना/ मुझे बहुत प्यास लगी है।"
कवि ओम निश्चल इसी अदृष्य भयावहता से अश्पृश्यता की वापसी को रेखांकित करते हैं, जिसे हजारों वर्षों में दूर किया गया था-"संदिग्ध है हर छींक/संगीन है हर वातावरण /अस्पृश्यता ने हर लिया/ सभ्यता का आवरण/अस्त्रशस्त्र के बिना निरंतर जारी अब यह विश्वयुद्ध है/जो वरदान हुआ करता था /अब वह ही विज्ञान क्रुद्ध है।"
वुहान से चले इस कोरोना वायरस ने हर तरह से सामाजिक दूरी के साथ न केवल घर -बाहर, देश विदेश की अर्थव्यवस्थाओं को ध्वस्त किया है,
बल्कि मृत्यु की काली छाया की संक्रामक भयावहता में कैद कर लिया है। अब यह बाजारवाद के साम्राज्यवादी लालच का जैविक हथियार है या वन्य पशुपक्षियों के वायरस का मानव संक्रमण? मगर विश्वयुद्ध की भयावहता से खतरनाक त्रास हर कोने में सन्नाटा बुनता है।
अजीब सी बात है कि आदमी ओजोन परत के छिद्रों से चिंतित था ।ग्लेशियरों के पिघलने में प्रलय की छाया को देखता है। बुलडोजर और कंक्रीट सभ्यता में ध्वस्त प्रकृति में जीवन की हत्या को लक्षित करता है ।चिमनियों के धुँए में कार्बन उत्सर्जन के बढ़ते ग्राफ से भयभीत होता है ।मगर आज ओजोन परत सेहतमंद है ।नदियों का पानी ऑक्सीजन युक्त होकर साफ है ।धुँए के अंबार से आसमान साफ है ।मगर मौत की काली छाया के रूप में अदृश्य कोरोना वैश्विक जीवन को लॉकडाउन में कैद कर रहा है। हाँ, तब भी यह आदमी है कि दिनरात वैक्सीन तलाश रहा है। और साहित्य में जिंदगी की जीवटभरी जीवनी धड़कन को।
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