डॉ. सफ़ीना.एस.ए
असिस्टेंट प्रोफेसर
कुसाट, कोच्चि Shaiksafeena786@gmail.com
स्त्री की उन्नति सभी दिशाओं में अभी तक नहीं हुई है। गाँवों और छोटे–छोटे प्रदेशों में ऐसी स्त्रियाँ आज भी जीवित है जो बिल्कुल बाहरी दुनिया से वंचित,अशिक्षित और अपनी इच्छा न होते हुए भी वेश्या का जीवन बिताने के लिए मज़बूर है। स्त्री शिक्षा को बजता दिलाने के लिए सरकार की ओर से भी विभिन्न कदम और कार्य किया जा रहा है। स्वतंत्र भारत के संविधान में नारी शोषण से बचाने के उपाय, श्रम में समान भागीदारी, न्यूनतम पारिश्रमिक सरकारी सेवाओं तथा सार्वजनिक उपक्रमों में विशेष छूट आदि अनेक प्रावधान रखे गये तब शिक्षित नारी के लिए रोजगार, घरेलू अथवा छोटे उद्योग – धंधे, शिक्षण एवं स्वास्थ संस्थानों में शिक्षिका, लाइब्रेरियन, नार्स, डॉक्टर आदि सेवाएँ उपलब्ध होने लगी। जहाँ आवश्यक हो प्रशिक्षण सुविधाएँ भी दी जाने लगी। “भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालय श्रम, स्वास्थ्य, शिक्षा, गृह, कृषि, परिवार कल्याण, उद्योग आदि तथा योजना आयोग के सामन्तित प्रयास नारी की आर्थिक स्थिति को सुधारने की ओर उन्मुख हुए ताकि नारी वर्ग का चन्द्रमुखी विकास हो सके और वर राष्ट्र की प्रमुख धारा में अपना योगदान कर सके।”1 शिक्षा के ज़रिए आज नारी अपनी अलग अस्मिता की उपादेयता पर विचार करने लगी है। उच्च शिक्षा प्राप्त करके वह ऊँचे पदों पर नौकरी करने लगी है। इसके लिए सरकार स्त्रियों को अपनी तरफ से पूर्ण सहयोग भी दे रही है।
अनामिका का उपन्यास ‘तिनका तिनके पास’ में एक सेक्स वर्कर जिस्म बेचकर अपनी बेटी तारा को पढ़ाती है ताकि वह पढ़-लिख कर आगे बढ़पाये। जिंदगी में कुछ बन पाये “मरने के पहले माँ कह गयी थीं – बेटा, किसी तरह पढ़ लेना। उसका बस चलता तो मुझे पहले ही दिन से होस्टल में रखकर पढ़ाती।”2 तारा की माँ चाहती थी कि तारा पढ़े, कुछ बने। उसकी अपनी जिंदगी बरबाद हो गयी। उसकी बेटी पढ़-लिखकर अच्छी अफसर बन जाये तो अपनी बेटी की ज़िंदगी तो बच जाएगी।
‘शेष कादम्बरी ’ में पारिवारिक हिंसा की शिकार युवतियाँ अधिक हैं। उपन्यास की मुख्य पात्र रूबी दीं का जीवन भी इन समस्याओं से पूर्ण है। उपन्यास में ऐसे स्त्री पात्र भी है जी कि ज़िंदगी को अपनी मर्जी से जीती है। उसकी नातिन कादम्बरी दिल्ली में रहता है ,वह पत्रकारिता करती है। कदम्बरी अपनी नानी की प्रकृति से भिन्न है। वह कुछ एग्रेसिव है और नई दृष्टि से जीवन को देखती है। कादम्बरी दिल्ली में सहजीवन बीता रही है। वह अत्यन्त साहसी है कि उसे विवाह का बंधन भी अनिवार्य नहीं है। वह नानी से भी खुलकर बता देती है। स्त्री-विमर्श को यह व्याख्यायित करता है।
कुलमिलाकर निष्कर्ष के रूप में यह कहना उचित होगा कि संविधान के भीतर और बाहर स्त्री को घर-परिवार, समाज, देश-राष्ट्र में समान अधिकार दिलाने वाले नियम कानून तो है। उसका कार्यान्वयन भी लगभग सरकार की ओर से हो रहा है। फिर भी हमारे घर-परिवार-समाज में पुरुष की प्रभुता प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में विद्यमान है। इसके कारणों में पुरुषवर्चस्ववादी संस्कृति का लंबा इतिहास है। सौकड़ों हजारों सालों से उसका आचरण समाप्त करता आ रहा है। स्त्री भी इस आचरण से मुक्त नहीं है।
संदर्भ :
1.धर्मपाल - नारी एक विवेचन -पृ. 11,भावना प्रकाशन,दिल्ली,प्र.सं – 1996
2.अनामिका - तिनका तिनके पास - पृ. 48,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली ,प्र.सं – 2008
3.अलका सरावगी - शेष कादम्बरी - पृ.78,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली, प्र.सं – 2004
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