आलेख - निधि 'मानसिंह'
बाल साहित्य एक ऐसी विधा है जो बालकों में अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करती है। और जिनसे बालकों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। वही वास्तविक बाल साहित्य है। बाल साहित्य मुख्य रूप से 8-14 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। भारत के पहले बाल साहित्यकार "हरिकृष्ण देवसरे" थे जो मध्य प्रदेश के रहने वाले थे। बाल साहित्य में पीएचडी करने वाले भी वो पहले व्यक्ति थे।
बाल साहित्य में बच्चों के लिए मनोरंजन, ज्ञानवर्धक कथाओं और कहानियों का अथाह सागर होता है। यह साहित्य बच्चों की रूचियों और इच्छाओं को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। बच्चे देश का भविष्य होते हैं इसलिए हमारा भी फर्ज है कि हमे उन्हें फलने-फूलने देना चाहिए। बचपन हमारे जीवन का वो हिस्सा होता है जो हमें कल्पनाओं के सागर में घूमाता है, इच्छाओं के पंख लगाकर आसमान में उडाता है, नये - नये कार्य करने के लिए लालायित करता है।
आज से बीस साल पहले अर्थात 90 के दशक में बाल साहित्य को लेकर बच्चों में जो उत्साह था जो खुशी थी वो अवर्णनीय है। उस समय बच्चों के लिए काफी रोचक कहानियां लिखी गई जैसे - चंपक, नंदन, चाचा चौधरी, गिल्लू आदि। सभी प्रेरणादायक और बच्चों की रूचियों पर आधारित थी। बच्चे भी उन्हें बडे शौक से पढते थे। हमारे हिन्दी के कई लेखकों ने भी बाल साहित्य में अपना योगदान दिया है। मुंशी प्रेमचंद ने "ईदगाह, पंच परमेश्वर" जैसी कहानियां लिखी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने "लाख की नाक " नाम का नाटक लिखा। भीष्म साहनी जी की "गुलेल का खेल" भी बहुत सुंदर कहानी है। प्रियंवद ने "नाच घर" नाम का उपन्यास लिखा जिसमें दो किशोर बालकों के प्रेम की कथा है। वरूण ग्रोवर का" पेपर चोर "कहानी संकलन काफी प्रसिद्ध है।
बाल साहित्य में मुख्यत दो विधा होती है -
1-मौखिक विधा
2-लिखित विधा
मौखिक विधा के अनुसार बच्चा दादी, नानी से प्ररेक कहानियां सुनकर सीखता है। मौखिक रूप से बोली गई बातें बच्चों को स्मरण रहती है। वह बीच-बीच में रूककर उनके बारे में जानना चाहते हैं।
फिर है लिखित विधा जो बच्चों को किताबों, गीतों और कविताओं के माध्यम से प्राप्त होती है। बाल साहित्य को ध्यान में रखकर बहुत सुंदर - सुंदर कविताओं को गीतों को लिखा गया है। उनमे से एक कविता जो पाकिस्तानी लेखिका के द्वारा लिखी गई हैं -
"एक था तीतर, एक बटेर
लड़ने मे थे, दोनों शेर।
लड़ते-लड़ते हो गई गुम,
एक की पूंछ एक की दुम।
हम इसे कविता भी कह सकते हैं और गीत की तरह भी गा सकते हैं। केरल की लोककथा - मरता क्या ना करता, राजस्थान से विजय दान देथा की" अनोखा पेंड "आदि बाल साहित्य मे अपना विशेष स्थान रखती है। विनिता कृष्णा की "तीन मछलियां" एक बेहतरीन कहानी है। इस प्रकार सत्तू का लिखा "अनारको "भी आधुनिक दृष्टि मे अपना उचित स्थान रखता है।
परन्तु धीरे-धीरे डिजिटल कम्प्यूटर वीडियो गेम आदि के कारण ये सब समाप्त होता जा रहा है। आधुनिक उपकरणों के कारण इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण बाल साहित्य की स्थिति दयनीय हो गई उस पर धूल जमने लगी।
या दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि माता पिता अपने बच्चों को हिन्दी में या भारतीय भाषाओं में नहीं पढ़ाते जिससे बच्चों का लगाव हिन्दी और बाल साहित्य की ओर कम होता जा रहा है। प्राचीन काल में बालकों को गुरूकुल व आश्रमों में साहित्य की शिक्षा दी जाती थी। गुरूओं के द्वारा मौखिक रूप से सुनाई गई दंत कथायें, महान विभूतियों की कथायें आदि बाल साहित्य का ही अंग माना जाता है। गुरुकुल व आश्रमों मे रहने वाले विद्यार्थी के मानसिक, शारीरिक व शैक्षणिक पर उचित ध्यान दिया जाता था। बालकों को साहित्य समझने के लिए प्रकृति का सम्पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है।
लेकिन हिन्दी में बाल साहित्य लिखना छोटा कार्य माना जाता है। साहित्यकार समझते हैं कि इसमें इतनी प्रसिद्धि नहीं मिलती इसी कारण वश बाल साहित्य पिछड़ता जा रहा है। दूसरी ओर डिजिटल दुनिया, माता पिता का अपनी मातृभाषा या उपभाषा मे न पढ़ाना भी बहुत बडा कारण है।
हमारे आधुनिक साहित्यकारों व लेखकों को बाल साहित्य की विधा के लेखन मे बढ चढकर अपना समर्थन देना चाहिए। नहीं तो ये बाल साहित्य की विधा धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगा और बस नाममात्र शेष बचेगा।
- ©निधि 'मानसिंह'
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निधि 'मानसिंह' एम. ए., (हिन्दी) कैथल, हरियाणा |