छोटी सी बात : हिन्दी कहानी
आज माही इतने सालों के बाद किसी पार्टी में गयी थी। साधारण सी रहने वाली माही आज जींस, लालरंग का टॉप व उँची एडी के सेंडल पहन सबसे अलग ही नज़र आ रही थी। उसके बिल्कुल सीधे और लम्बे काले बाल व हल्का सा मकेअप, उसके चेहरे के निखार को दूना कर रहा था। वह बत्तीस पार कर रही थी, पर उसके रहन-सहन, चेहरे की चमक व फिटनेस को देख कर कोई उसे बाइस-तेईस के उपर की नहीं कह सकता था। न जाने इतना काम करके भी वह कैसे अपने आप को मेनटेन कर लेती थी।
उसके सारे साथी लोग पार्टी में वाइन व डांस का मज़ा ले रहे थे और वह एक कौने की टेबल पर सबसे अलग अपना कोक का गिलास हाथ में लिए थी। तभी अचानक से राज आया और माही के पास आ कर बोला “मे आई सिट विथ यू माही” ?
उसके इस सवाल से माही की तंद्रा टूटी और वह मुस्कुरा कर बोली “अरे राज तुम यहाँ कैसे” राज ने प्रत्युत्तर में कहा “यही सवाल तो मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि तुम आज पार्टी में कैसे? तुम तो कहती थी कि तुम्हें पार्टी में जाना पसंद नहीं।
“मेरे दफ़्तर के सारे लोग आए हैं यहाँ, सो मुझे भी आना पड़ा” माही ने अपने बाल संवारते हुए कहा ।
“और सुनाओ कैसी हो” राज ने पूछा ?
माही बोली ठीक हूँ पर तुम यहाँ मुंबई में कैसे?
“मैं यहाँ एक ज़रूरी मीटिंग के लिया आया था, कल वापिस जाना है तो आज समय व्यतीत करने के लिये यहाँ आ गया” राज ने गंभीरता से कहा।
पूरे दो वर्षों बाद आज राज ने माही को साक्षात रूप में देखा था, वैसे फेसबुक पर कभी-कभी उस से चैट हो जाती थी किन्तु सिर्फ एक औपचारिक चैट । आज उसे अपने सामने बैठी देख उस की सांसों की गति बढ़ गयी थी, मन बहुत प्रसन्न था किन्तु मस्तिष्क में खयालों के उतार-चढ़ाव उस के चहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।
दो वर्ष पूर्व उस ने स्वयं ही तो फैसला किया था कि अब वह माही से तब मिलेगा जब वह स्वयं उस से मिलना चाहेगी । कई बार मन किया कि वह मिले माही से लेकिन उस का पौरुषत्व उसे रोक देता, शायद ठुकराए जाने का एक डर था कि कहीं वह कुछ पूछे तो माही न जाने क्या उत्तर दे ?
राज ने हिचकिचाते हुए पूछा “और शादी-वादी ?”
माही उसकी आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराते हुए बोली “राज मुझे और वक़्त चाहिये”।
राज ने हताश हो कर कहा “माही और कितना वक़्त” ? जब मैं ने कॉलेज में प्यार का इज़हार किया तुमने कहा “अभी तो हम बच्चे हैं राज” कॉलेज पास करते ही फिर मैं ने तुमसे तुम्हारी मर्ज़ी जाननी चाही तो तुमने बड़े ही होशियारी से कह दिया कि अभी तो हमें पैरों पर खड़े होना है, और आज जब हम अपने पैरों पर खड़े हैं तो तुम्हें और वक़्त चाहिए, कहीं एसा तो नहीं माही मेरा प्यार एक तरफ़ा है तुम किसी और को चाहती हो ?
माही सब सुन तो रही थी लेकिन राज से नज़रें नहीं मिला पा रही थी ।
उसने असहज होते हुए कहा “एसा नहीं है राज तुम मेरी बात समझने की कोशिश करो मैं अभी यह शादी नहीं कर सकती”।
नहीं कर सकती का क्या मतलब, क्या परेशानी है शादी से तुम्हें माही ? या तुम सोचती हो कि अभी भी मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ ? राज ने खीज कर पूछा ।
एसा नहीं है राज, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है पर........” माही ने अपनी बात आधे में ही छोड़ दी।
पर क्या ? बड़े ही खिन्न भाव से राज ने कहा माही तुम साफ-साफ बताती भी तो नहीं, इधर मेरी माँ कब से मेरी शादी के पीछे पड़ी है माही, मैं अपनी माँ को और कब तक टालता रहूँ ? राज झुंझला सा गया था।
राज के चहरे पर उस के अंतस में भरे दर्द के भाव झलक गए थे, माही स्वयं उस के दर्द को बखूबी समझ रही थी किन्तु वह स्वयं भी तो हालात के हाथों मजबूर थी । उस से राज के दिल का दर्द देखा नहीं जा रहा था सो उस ने सोचा आज राज को साफ कह ही देना चाहिए और अनायास ही उस के मुंह से निकल गया “तुम आज़ाद हो राज, अपनी माँ की पसंद से शादी करने के लिए, मैं अभी तुमसे शादी नहीं कर सकती”।
बस यही तो एक डर था राज के मन में कि कहीं माही उसे इनकार न कर दे जिस के कारण वह चाह कर भी माही से मिलना नहीं चाहता था और आज जब अचानक से मिले तो वही हुआ जिस का डर था।
उस के अंतस में विचारों का भंवर घूम रहा था और वह फिर सोच में डूब गया कि “काश आज भी हम न मिले होते, कम से कम यह भ्रम तो रहता कि वह किसी का इंतज़ार कर रहा है और किसी के दिल में उस के लिए जगह है”।
अगले दिन राज मायूस होकर दिल्ली लौट आया। घर आने पर वह बहुत अनमना सा था। पूरी रात वह करवटें बदलता रहा, आँख लगती तो भी फिर से खुल जाती और माही का विवाह से इन्कार उस की आँखों के सामने एक भयावह स्वप्न की तरह दृश्यमान होने लगता।
राज की माँ उस के हाव-भावों पर गौर कर रही थी कि इस बार जब से राज मुम्बई से दिल्ली अपने घर लौटा है तब से बड़ा उदास है । कुछ-कुछ समझ भी गयी थी कि वह ज़रूर माही से मिला होगा मुम्बई में। उसे मन में लगा कि राज उसे माही के बारे में ज़रूर बताएगा। किंतु इस बार राज ने अपने मुंबई दौरे के बारे में एक बात भी न की।
लेकिन रात के समय जब उस की माँ ने उसे ड्राइंग-रूम में सोफे पर औंधी करवट लेटे देखा और उस के सर में हाथ फिराया तो राज की आँखों से आंसू बह निकले और उन आंसुओं को राज ने छुपाने की नाकाम कोशिश की तो उस की माँ की आँखों से एसे आंसू झरे जैसे पतझड़ की किसी मुरझाई बेल से एक-एक कर पत्ते झड़ रहे हों। आज पहली बार उसे अपने स्वर्गवासी पति के बिना इतना एकाकीपन महसूस हो रहा था। उन के जाने के बाद राज ही तो एक मात्र सहारा और बहाना था जिस के लिए वह मुस्कुरा रही थी। आज उस की उदासी देख उस का मन भर आया था, वह अपना जी हल्का कर लेना चाहती थी किन्तु अपना सर किस के काँधे पर रखे, किस से कहे, कैसे कहे ?
आते-जाते वह राज का चेहरा देखा करती कि वह अब कुछ बताये तब कुछ जाहिर हो कि इस उदासी का कारण क्या है । बार-बार बातें पूछ कर जवान बेटे की निजि ज़िंदगी में दखल देना भी तो उचित नहीं लगता।
लेकिन राज तो बस अपने मन की बात जैसे सागर की गहराई में छुपा लेना चाहता था।
आख़िर एक दिन उसकी माँ को ही चुप्पी तोड़नी पडी “राज मुंबई गये थे तो क्या माही से नहीं मिले” उस ने पूछा।
राज ने गहरी साँस लेते हुए कहा “माँ तुम भूल जाओ माही को”।
“ये क्या कह रहे हो तुम राज मैं समझी नहीं” राज की माँ ने कहा।
हाँ माँ एसा ही कहा मुझे माही ने, उसे और वक़्त चाहिए माँ। राज की माँ ने उससे ज़्यादा न पूछते हुए कहा “क्या तुम मुझे माही से मिलवा सकते हो”?
“माँ क्या करोगी तुम उस से मिल कर, रहने दो वह नहीं मानने वाली” राज ने माँ को टालते हुए कहा।
माँ बोली मैं फिर भी मिलना चाहती हूँ उस से एक बार”।
माँ के बार-बार आग्रह करने पर राज अगली ही छुट्टी अपनी माँ समेत मुंबई पहुंच गया। वहाँ जाकर राज ने एक रेस्तराँ में माही से मुलाकात की और अपनी माँ को भी उस से मिलवाया।
माही से मिल कर एक तरफ राज की माँ के चहरे की रौनक बढ़ सी गयी वहीं अगले ही पल उन के मन में आशंका घर करने लगी न जाने माही उन से किस मिजाज़ से बात करेगी। वह मन ही मन सोच रही थी “क्यूँ नहीं माही राज को अपना लेती आखिर वह प्यार करता है माही से, रंग-रूप ,कद-काठी में भी अच्छा ही दिखता है, भगवान की कृपा से नौकरी भी अच्छी ही है”। प्यार में ठुकराए जाने पर राज के दिल पर क्या बीत रही होगी उस की माँ से बेहतर और कौन समझ सकता था ?
राज ने कुछ स्नैक्स और कॉफ़ी आर्डर की और उसी बीच उस की माँ ने माही से इधर-उधर की बातें शुरू कर दी। माही भी राज की माँ से पूरे सम्मान के साथ बात कर रही थी।
उस के सुलझे हुए रुख को देख कर राज की माँ ने अपनी पूरी हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया “माही तुम मुझे ग़लत न समझना पर क्या मैं जान सकती हूँ कि तुम मेरे राज से शादी करना चाहती हो भी या नहीं ? तुम जानती हो न राज कितने बरसों से तुम्हारी राह देख रहा है। फिर तुम हर बार उसे टाल क्यूँ देती हो”?
एक बार तो माही ने राज की माँ को मुस्कुरा कर टाल ही दिया और उनकी बात का कोई जवाब न दे कर इधर-उधर की बातें करने लगी।
लेकिन जब राज की माँ ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा “देखो माही मेरे बेटे के अंतर्मन में सिर्फ तुम्हारा ही बसेरा है, तुम्हारे बिना उस का मन एक बीहड़ के समान है, मैं ने उसे तुम्हारे प्यार में खिले फूलों सा महकते हुए देखा है और अब मैं उसे उस वृक्ष समान देख रही हूँ जिस की हरेक डाल धीरे-धीरे सूख कर ठूंठ बनने जा रही हो ”
वह तुम्हारे बिना उस जंगली फूल के समान है जिस में रंग तो दिखते हैं लेकिन खुशबू नहीं। वह रोज दफ्तर जाता है, अच्छे कपड़े पहनता है , सूट-बूट देख कर कोई न कहेगा कि इसे कहीं कोई कमी है , किन्तु मैं उस की माँ हूँ , उस के अंतस के अँधेरे को महसूस कर सकती हूँ। तुम्हारे बिना उस के मन का आसमान अमावस की रात है, जो पूर्णिमा का इंतज़ार कर रहा है कि कब चाँद पूरे शबाब के साथ निकले और मन पर छाया स्याह रंग ख़त्म हो।
आखिर ऐसी क्या बात है जो तुम बताना ही नहीं चाहती ? हर समस्या का कोई न कोई समाधान तो होता है न, यदि तुम बताओगी तो तुम्हारा भी मन हल्का होगा और हो सकेगा तो मैं भी कुछ उपाय कर सकूं शायद” इतना कह कर राज की माँ की आँखें भर आयीं, उन के हाथ की पकड़ और ज्यादा कस गयी।
माही को ऐसा महसूस हुआ जैसे राज की माँ उस से अपने बेटे के जीवन की भीख मांग रही हो, वह तो स्वयं ही अपने हालातों के हाथों मजबूर थी, हकीकत तो यह थी कि जो तड़प राज और उस की माँ को महसूस हो रही थी वही तो माही को भी हो रही थी ?
वह स्वयं भी तो अपने अंतस में राज को खोने का दुःख पाल कर रात-दिन घुलती जा रही थी।
राज और उस की माँ अपने दिल का हाल बयान तो कर रहे थे किन्तु माही तो स्वयं ही अन्दर ही अन्दर घुटन भरी ज़िंदगी जी रही थी और हर पल सोच रही थी कि क्या करे क्या न करे ?
वह स्वयं भी तो अपने प्यार को खोना नहीं चाहती थी, शायद इसी लिए राज को इतने बरसों से ना भी नहीं कह पा रही थी।
राज की माँ की हथेली का कसाव बढ़ता जा रहा था और अचानक ही वह बोल पडी “बोलो न माही क्या बात है, क्या मुझे रुला कर दम लोगी तुम”?
नहीं आंटी ऐसा न कहें प्लीज़ मैं तो स्वयं ही .........इतना कह कर उस की आँखों से निर्झर धारा फूट पडी और न चाह्ते हुए भी उसे अपना मुँह खोलना ही पड़ा और उस ने कहा “मैं मजबूर हूँ आंटी, मेरी अपनी ज़िम्मेदारियाँ हैं , मुझे राज से कोई शिकायत नहीं”।
क्या तुम मुझे बताओगी अपनी ज़िम्मेदारियाँ ? राज की माँ ने पूछा।
माही राज की माँ को टाल न पाई और बोली “आंटी मैं ने इतने बरसों राज से भी यह बात छुपाये रखी, क्या करती लोक-लाज भी तो सोचनी पड़ती है । मेरे पिता जो भी कुछ कमाते, शराब पीने में उड़ा देते , घर में तो जैसे रोज कोहराम ही मचा रहता। मेरी माँ ने एक छोटी सी नौकरी करके जैसे-तैसे हम तीन भाई बहिनों को पाला है, यहाँ तक कि माँ जो तनख्वाह ले कर आती पिताजी की नज़र उस पर भी रहती। उस तनख्वाह को बचाने के लिए माँ ने कितनी बार पिताजी से लातों-घूंसों की मार भी खाई । एक बार तो पिताजी ने माँ के बटुए से रुपये छीनने की कोशिश की तो माँ ने उन्हें पीछे धकेल दिया और गुस्से में आग बबूला हो कर पिताजी ने माँ को भी वापिस धक्का दिया। माँ जा कर कमरे की दूसरी दीवार से टकराई, उस समय माँ के हाथ की हड्डी भी टूट गयी और सर में भी गहरी चोट आयी। माँ के हाथ में प्लास्टर चढ़ गया। उस समय मेरे मामा ने हमारी बहुत मदद की । पूरे महीने माँ दफ्तर न जा सकी। मामा ने कुछ पैसे माँ को उधार दिए तो हमारी स्कूल की फीस और घर खर्च चला। लेकिन माँ ने हमारी पढाई-लिखाई को रुकने न दिया। यहाँ तक कि जब मैं दिल्ली में पढ़ रही थी मेरी माँ मेरी फीस के लिए बहुत मुश्किल से पैसे जुटा पाती थी, मेरी बहिन उस समय ट्यूशन कर के मेरे लिए फीस के पैसे जमा करती थी।
कई बार माँ अपने भाई से उधार भी लेती और फिर हर महीने थोड़ा-थोड़ा कर उसे चुकाती। मेरे ननिहाल का हमारे ऊपर बड़ा उपकार रहा कि मैं आज आप के सामने एक अच्छी नौकरी कर रही हूँ।
आज जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गयी हूँ मैं कैसे उन्हें छोड़ सकती हूँ ? नहीं आंटी नहीं, मैं इतनी स्वार्थी तो नहीं हो सकती। मुझे अपने छोटे भाई की पढ़ाई के लिए अपनी माँ की मदद करनी है, अपनी छोटी बहिन की पढ़ाई व शादी के लिए पैसे जमा करने है, ऐसे में यदि मैंने शादी कर ली तो मेरी माँ का कौन सहारा बनेगा”?
इतना कह माही फूट-फूट कर रो पड़ी।
माही की बात सुन राज की माँ मन ही मन राज की पसंद पर नाज़ कर रही थी और सोच रही थी कि अपने घर के लिए कितनी ज़िम्मेदार है माही । राज की माँ ने मुस्कुराते हुए माही से कहा “माही बस इतनी सी परेशानी” ? बस इसी बात के लिए तुम मेरे राज को इतना परेशान कर रही हो ?
मैं तुम्हारी माँ से मिलकर इस बारे में बात करूंगी, तुम मुझे अपनी माँ से मिलवाओ तो।
“नहीं आंटी नहीं, मेरी माँ से कुछ न कहें आप प्लीज़, उन्हें शायद यह सुन कर अच्छा न लगे” माही ने रुंधे स्वर में कहा।
“लेकिन बेटी माही मुझे एक बार तुम्हारे और राज के विवाह की बात तो करनी ही है तुम्हारी माँ से, मैं इतनी सुशील लड़की को खोना नहीं चाहती” राज की माँ ने मुस्कुरा कर कहा।
माही को समझ न आया वह कैसे और क्या जवाब दे, वह तो भली-भांति जानती थी कि यदि उस के माता-पिता को उस के विवाह की ज़रा भी फ़िक्र होती तो क्या वे उस के लिए रिश्ता नहीं ढूंढ रहे होते ? शायद वे चाहते ही नहीं कि माही अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर विवाह बंधन में बंध जाए। उसे तो पहले अपने भाई -बहिन के घर बसाने है तब ही शायद वह अपने बारे में कुछ सोच सके। हाँ, माँ ज़रूर कभी-कभी भावुक हो जाती है तो कहती है कि मैं बड़ी ही स्वार्थी हो गयी हूँ माही पर क्या करूँ, तेरे भाई-बहिन की ज़िंदगी का सवाल जो ठहरा वरना कब के तेरे हाथ पीले कर दिए होते। माँ की भी तो अपनी मजबूरी है वह तो अपने हाथ की पाँचों अँगुलियों को बराबर ही देखना चाहेगी न।
लेकिन राज की माँ के बार-बार आग्रह करने और ममता भरे स्पर्श से उस की रुलाई फूट पड़ी, इतने बरसों से जिस दर्द को सीने में दबाये वह घुट रही थी, आज उसे वह अपने आंसुओं संग बहा देना चाहती थी और उस ने भावनाओं के इस वेग में राज की माँ को सब हकीकत बता दी। उस के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, राज उस का दुःख सुन कर उसे अपने सीने से लगा लेना चाहता था, किन्तु अपनी माँ के सामने झिझक गया और उस के कंधे पर हाथ रख कर बोला “माही नथिंग टू वरी, अब तो मुझे तुम्हारी माँ से ज़रूर मिलना है, इस छोटी सी बात के लिए तुम इतना परेशान थी और मैं खामख्वाह तुम्हें ही गलत समझ बैठा था”।
अगले ही दिन राज व उस की माँ माही की माँ से मिले, माही की माँ ने कहा “देखिये बहिन जी राज व माही एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं, कॉलेज के ज़माने से एक दूसरे को जानते हैं और मैं चाहती हूँ ये दोनों विवाह के बंधन में बंध जाएँ”।
जैसे ही माही की माँ ने माही के रिश्ते की बात राज की माँ के मुंह से सुनी, एक बार तो वह हक्की-बक्की रह गयी और किसी तरह से उन्हें कोशिश करने लगी। वह जानती थी कि माही का विवाह होते ही उस पर समस्याओं का पहाड़ टूटने वाला है। माही के भाई की कॉलेज फीस, उस की बहिन की डोली, सब शायद सिर्फ ख़्वाबों की ही बातें रह जायेंगी, कहाँ से जुटा पायेगी वह यह सब ? उस की आँखों के समक्ष भविष्य की बिजलियाँ कौंध गयी जिस के पीछे सिर्फ अंधियारा ही अँधियारा नज़र आ रहा था।
माही के पिता ने भी बड़ा ही गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार करते हुए वहां बैठना भी मुनासिब न समझा।
लेकिन जैसे ही राज की माँ ने उन से मुस्कुरा कर कहा “मैं मानती हूँ कि हमारे यहाँ समाज की रस्मों के अनुसार विवाहोपरांत बेटी की कमाई मायके वाले नहीं लेते लेकिन माही जैसी लड़की जिसकी बहू बनेगी उन्हें तो नाज़ होगा अपनी बहू पर, जिसे अपनी जिम्मेदारियों का पूरा एहसास है, मैं आपके साथ हूँ बहिन जी, हर सुख-दुःख में” इतना कह राज की माँ ने माही को गले से लगा लिया और स्वयं भी अपने आंसुओं व मन के भावों को रोक न पायी।
वह अनवरत बोले जा रही थी “आज जहाँ माता-पिता लड़के व लड़की में कोई फ़र्क न समझ अपनी बेटियों को पालते हैं तो हम ससुराल वाले कौन होते हैं इनकी कमाई पर अपना हक जताने वाले, अपने परिवार की मदद तो माही शादी के बाद भी कर सकती है और सिर्फ़ माही ही क्यूँ राज का भी तो आपके परिवार से भी रिश्ता जुड़ जाएगा, उसे भी उस परिवार की उतनी ही फ़िक्र होनी चाहिए जितनी माही को।
बहिन जी क्या आप इस छोटी सी बात के लिए इतनी चिंतित थी? और माही तुम मेरे बेटे को सता रही थीं ?
कुछ बातें राई के सामान होती हैं किन्तु हम अपने समाज व रीति-रिवाजों के डर से उन्हें पहाड़ बना देते हैं, लेकिन अब तो ज़माना बदल गया है तो हमें भी तो अपनी सोच को बदलना होगा न।
चलो उड़ा दो यह फ़िक्र हवा में और मेरे बेटे को जल्दी से हाँ कह दो शादी के लिए। माही मुस्कुरा कर बोली “काश आंटी सब आप ही की तरह सोचने लगें”।
अगले ही महीने राज व माही की शादी तय हो गयी। माही राज के घर में खुशी-खुशी बहू बन कर आ गयी। अब माही के बह्न और भाई की चिंता करने वाली सिर्फ माही ही नहीं राज और उस की माँ भी थे। हालांकि माही की माँ राज से आर्थिक मदद लेने में झिझकती लेकिन राज की माँ कह देती “बहिन जी क्यूँ इतना सोचती हैं आप”? कल को राज को कोई परेशानी हो तो क्या आप लोग मदद नहीं करेंगे? माही की माँ जवाब में कुछ न कह पाती लेकिन हाँ मन के किसी कौने में अपने आप से शर्मिंदा थी कि वह कितनी स्वार्थी हो गयी थी और अपने माँ होने के कर्तव्य से पीछे हटने लगी थी। माही की माँ राज जैसा दामाद व उस की माँ जैसी समधन पाकर अपनी माही पर बहुत ही फख्र महसूस कर रही थी।
रोचिका शर्मा, चेन्नई
परिचय :,
नाम : रोचिका अरुण शर्मा (खांडल)
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साझा कविता संग्रह : अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित **** कविता अनवरत ३
साझा लघुकथा संग्रह : अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित*****लघुकथा अनवरत २०१७
साझा काव्य संग्रह : सृजनलोक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
दिल्ली इंटर्नेशनल फिल्म फेस्टिवल की पुस्तक में कवितायेँ सम्मिलित वर्ष २०१६ , २०१७
अनुवाद – रचनाओं का तमिल , मलयालम , कन्नड़, गुजराती, बँगला , नेपाली , अंग्रेजी भाषाओं में अनुवाद
सम्मान एवं पुरूस्कार
१. गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा एवं विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान, दिल्ली द्वारा “काका कालेलकर सम्मान वर्ष २०१६ ।
२. साहित्य मंडल, श्री नाथद्वारा द्वारा वर्ष २०१६, काव्य भूषण सम्मान।
३.सलिला संस्था सलूम्बर द्वारा आयोजित “अखिल भारतीय पत्र लेखन प्रतियोगिता -२०१९ ” में तृतीय स्थान
४.राष्ट्रीय साहित्य पुस्तक मेला समिति, कटनी द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय बाल कहानी प्रतियोगिता-२०१९ ” में द्वितीय स्थान
५. काव्यकोष में फ़रवरी २०१५ माह का*****सर्वश्रेष्ठ कवि ।
६. प्रणाम पर्यटन पत्रिका द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता अखिल भारतीय जगेश्वर उमा स्मृति कहानी प्रतियोगिता -२०१९ -सांत्वना पुरूस्कार
७. हिन्दी अकादमी, मुम्बई द्वारा वर्ष २०२१ महिला रचनाकार सम्मान
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