डॉ. जयप्रकाश कर्दम
गंगा प्रसाद विमल मानवीय संवेदना के साहित्यकार हैं। विमल जी का बचपन पहाड़ों में बीता और बाद का जीवन और कार्यक्षेत्र दिल्ली जैसे महानगर में। इसलिए बहुत स्वाभाविक रूप से उनकी रचनाओं की विषय वस्तु और पात्र ग्राम और शहर दोनों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनके लेखन में एक ओर प्रकृति, पहाड़ और गाँव हैं, तो दूसरी ओर नगर और महानगर हैं। उनका लेखन, एक तरह से देखा जाए तो, गाँव और शहर के बीच तथा नैसर्गिक और निर्मित के बीच आना-जाना है। अपनी इस आवाजाही में वह नैतिकता और अनैतिकता, यथार्थ और कृत्रिमता, तथा परम्परा और आधुनिकता के विश्वासों और मूल्यों से टकराते हुए आगे बढ़ते हैं। वह अपनी रचनाओं में कुछ नया गढ़ते या रचते नहीं हैं अपितु जो है उसे ही विभिन्न कोणों से जानने, समझने की कोशिश करते हैं। वह न कुछ बताते या समझाते हैं और न किसी भी व्यक्ति, विचार या वस्तु की व्याख्या करते हैं। बस, सहज रूप से अभिव्यक्त करते हैं।
विमल जी के साहित्य से गुज़रते हुए हम यह देखते हैं कि उनके कहे में बहुत कुछ अनकहा होता है और अनकहा बहुत कुछ कहता है। शायद यह कहा, अनकहा ही गंगा प्रसाद विमल के शब्दों में मालूम और नामालूम है। इसी मालूम और नामालूम को ही वह अपनी कविता और कहानियों में अभिव्यक्त करते हैं। यथा- ’जो मालूम है उसे नामालूम बनाने के लिए मैं कविताएँ लिखता हूँ और जो नामालूम है उसे एकदम विश्वसनीय बनाते हुए कहानी। और सबसे बड़ा सच है कि मैं हर विधा में सिर्फ़ कहानी ही लिखता हूँ।’1 मालूम को नामालूम और नामालूम को विश्वसनीय बनाना सरल नहीं है। इसके लिए कौशल चाहिए, और कहने की आवश्यकता नहीं है कि गंगा प्रसाद विमल में ऐसा करने का कौशल था।
जिस तरह का विमल जी का सहज, सरल व्यवहार था, वैसी ही सहजता और सरलता उनके लेखन में है। उनकी रचनाओं में किसी तरह का कोई दुराव, छिपाव या भटकाव नहीं है। न वह किसी मत के पक्ष में खड़े होते हैं और न विरोध में दिखायी देते हैं। दूर खड़े होकर जीवन को जैसा देखते हैं, वैसा ही चित्रित कर देते हैं। उन्हें कुछ भी कहने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, सब कुछ उनकी चेतना से स्वत: बाहर आता है। हाशिए के लोग भी उनकी रचनाओं में इसी तरह आए हैं। उनके प्रति विमल जी कोई सहानुभूति व्यक्त नहीं करते हैं और न करुणा दिखाते हैं। हाशिए की दुनिया का सच क्या है, तथा समाज का उनके प्रति क्या दृष्टिकोण और व्यवहार है, वह इसको बारीकी से देखते हैं और यथावत अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करते हैं।
भारत में हाशिए के लोगों की पहचान वैसी नहीं है जैसी इसके बारे में अँटोनियो ग्रामसी की संकल्पना है, उससे भिन्न है। भारत में, हाशिए के लोग दो तरह के हैं, एक वह, जो आर्थिक रूप से कमज़ोर तथा श्रम करके अपनी आजीविका चलाते हैं। दूसरे, सामाजिक रूप से निम्न जातीय और अस्पृश्यता के कारण समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग और हाशिए पर रहने वाले लोग। हाशिए के ये लोग मेहनत को अपना ईमान तथा सत्य और नैतिकता को धर्म मानते हैं। ईमानदारी के रास्ते पर चलते हुए रात-दिन कड़ी मेहनत करके भी उनका जीवन कष्टमय और संघर्षपूर्ण बना रहता है, जबकि दूसरी ओर झूठ और बेईमानी से निरंतर सम्पन्न होते लोग हैं। ईमानदारी और सत्य के मार्ग पर चलकर यदि पेट नहीं भरता है तो ये मूल्य किस काम के हैं। अदम गोंडवी का प्रसिद्ध शेर याद आ रहा है-‘चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को।’ हाशिए के लोगों के इस दर्द दो गंगा प्रसाद विमल की कहानी ‘आत्महत्या’ के एक पात्र के उन शब्दों से अच्छी तरह समझा जा सकता जो, आत्महत्या करना चाहता है और आत्महत्या करने से पहले एक पत्र लिखता है, जिसमें वह लिखता है, ‘हाँ, मैं आत्महत्या कर रहा हूँ, इसलिए कि कोई विकल्प नहीं है। मूल्य, नारे, ईमानदारी और सच्चाई…..ये सब बातें झूठी हैं। जो लोग मूल्यों, ईमानदारी और अच्छाई के झूठ से बंधे नहीं हैं, वे सुखी लोग हैं। भौतिक रूप से सम्पन्न लोग। ये ही वे लोग हैं, जो अपेक्षा रखते हैं कि कोई ग़रीब मास्टर ग़रीब बच्चों के मन में बचपन से ही धर्म, दया आदि के बीज बो डाले, ताकि इन बंधनों में जीवन भर बँधे रहें। वे बैल की तरह समाज का सारा भार ढोते रहें……हमेशा के लिए दब जाएँ, जिसके रहते वे कभी अपना हक़ न माँग सकें। इन उपदेशों से पीढ़ियाँ की पीढ़ियाँ कायर और नपुंसक बनी पड़ी हैं।’2
समाज समता के मूल्यों पर निर्मित और विकसित होता है। समाज की संकल्पना में जो कुछ होता है, मिला-जुला होता है, उसमें हाशिया जैसी किसी चीज़ के लिए कोई स्थान नहीं है। हाशिए का निर्माण किया जाता है। हाशिए का समाज कैसे बनता है, आत्महत्या करने वाले युवक के इन शब्दों से इस तथ्य को बहुत सहजता से समझा जा सकता है। कहानी यह संकेत करती है। कि चतुर-चालाक लोगों द्वारा, झूठ, बेईमानी और छल-कपट से सीधे-सच्चे और ईमानदार लोगों को मूर्ख बनाकर उनका शोषण किया जाता है। सदैव सत्य बोलना, चोरी न करना, ईमानदारी का आचरण करना, दीन-दुखियों की सेवा करना और ईश्वर में विश्वास करना, ये सब धर्म की शिक्षा के अंग रहे हैं। निम्न वर्ग या हाशिए के समाज इन सब का पालन करता रहा है। और अपने साथ होने वाले धोखे, बेईमानी, और शोषण को भी इस संतोष के साथ सहता है कि भगवान देखेगा और न्याय करेगा। लेकिन कोई भगवान उसके साथ न्याय नहीं करता, न अन्याय और शोषण करने वालों को कोई सज़ा देता है और न उसे शोषण से मुक्ति दिलाता है। आत्महत्या करने वाला युवक अपने पत्र में यह लिखता है, ’डकैत, तश्कर, चोरबाज़ारिए…….वे लोग तो मानव-मूल्य या मानव-करुणा या सच को ताक पर रख, बहुत ही क्रूरतापूर्ण ढंग से अपनी तिजोरियाँ भरे जा रहे हैं, और मैं स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहा था कि झूठ बोलना पाप है,, हमेशा सच बोला करो, दीन-दुखियों की मदद के लिए आगे आओ…….।’3
दया, धर्म, ईमानदारी, न्याय, नैतिकता, ये सब किताबी आदर्श की बातें हैं, जो पढ़ने, कहने या सुनने में अच्छी लगती हैं, लेकिन व्यवहार के धरातल पर इनका कोई मूल्य नहीं है। आत्महत्या करने वाला युवक अच्छी और नैतिक शिक्षा के नाम पर पढ़ायी और सिखायी जाने वाली इन बातों के खोखलेपन और अर्थहीनता को अच्छी तरह जानते समझते हुए भी विद्यार्थियों को वही सब बातें पढ़ाने के लिए स्वयं को अपराधी समझता है। वह महसूस करता है कि अच्छी कही जाने वाली लेकिन अव्यावहारिक बातें पढ़ाकर वह उन लोगों के साथ न्याय नहीं कर रहा है जिनका शोषण इन सब बातों पर अमल करने के कारण ही होगा। उसका दर्द उसके इन शब्दों में अनुभव किया जा सकता है, ’क्या दे सकता हूँ मैं अपने बच्चों को?……क्या छोड़ सकता हूँ विरासत मे….सिर्फ़ भूख…..क़र्ज़—पराजय—-और एक निकम्मी सी धारावाहिक प्रतीक्षा…….मैं उन लोगों को जानता हूँ जो हमारी सुरक्षा के लिए सीधे ज़िम्मेदार हैं, पर मैं उनका कर ही क्या सकता हूँ।’4
इस दर्द को कहानी के एक अन्य पात्र धर्मराज के इन शब्दों से और गहराई से समझा जा सकता है, जो वह विमल से प्रश्न करते हुए कहता है, ‘कभी आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई मज़दूर पिछले सात वर्ष से सुबह-शाम का खाना जुगाड़ने के लिए मेहनत किए जा रहा हो और और वह……जीवन हर रोज़ दुष्कर बनाता जाता है।’5
हाशिए के लोगों का शोषण की चक्की में पीसने का यह सारा खेल धर्म की धुरी पर चलता है। धर्म के नाम पर, धर्म की अफ़ीम खिलाकर ही उनका शोषण किया जाता है। ईश्वर यदि धर्म के व्यापार का ब्रांड नेम है तो मंदिर एक ट्रेड सेंटर की तरह है। धार्मिक मूल्यों में विश्वास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यहीं आना है और यहीं पर अपनी जेब ख़ाली करके जाना है। यही वह तंत्र है जो हाशिए के समाज का निर्माण करता है। धर्मराज, विमल से यही कहता है, ‘धर्म, मंदिर…..विश्वास, ये चीज़ें आदमी को बेचारा साबित करने में लगी हैं।’6
हाशिए के असली लोग वह हैं जो वर्ण-जाति-व्यवस्था के कारण सामाज से अलग-थलग, उपेक्षित और हाशिए पर हैं। जो गाँवों का हिस्सा होकर भी वे गाँवों के अंदर नहीं रह सकते, उनकी बस्तियाँ गाँवों से बाहर एक ख़ास दिशा में होती हैं। यूँ तो वे आर्थिक रूप से भी विपन्न होते हैं, किंतु यदि इस समाज का व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाए तो भी गाँव के बीच में घर उसका बनाकर रहना उच्चजातीय लोगों को स्वीकार्य नहीं होता है। इसके अलावा, वर्ण-व्यवस्था द्वारा निर्धारित पेशे या कार्य ही प्रायः हाशिए के इन लोगों को करने पड़ते हैं। धर्म के उपदेश भी इन लोगों में ही सबसे अधिक दिए जाते हैं मानो ये ही सबसे अधिक अधार्मिक लोग हों।
आर्थिक और जातिगत आधार के अलावा दो अन्य तरह के लोग, हाशिए के लोग होते हैं, एक ग्रामीण हाशिए के लोग और दूसरे शहरी हाशिए के लोग। ग्रामीण हाशिए के लोगों में कुछ के पास अपनी थोड़ी-बहुत कृषि भूमि भी होती है, किंतु अधिकांश लोग भूमिहीन कृषि मज़दूर होते हैं, वे दूसरों के घर और खेतों में काम करते हैं। इन लोगों के पास, बेशक कच्ची मिट्टी के हों या पक्की ईंटों के, प्रायः अपने घर होते हैं। किंतु शहरी हाशिए के लोगों में कोई निर्माण कार्यों में ईंट और तसला धोने का काम करता है, कोई रिक्शा चलाता है, सब्ज़ी बेचता है, कोई दूसरों के घर, दुकान या कारख़ानों में काम करता है, और कोई सड़क के किनारे पटरी पर सामान बेचता है या छोटी मोटी चाय की दुकान या ढाबा चलाता है। जहाँ दो फ़ुट की ज़मीन में ही उनका धंधा और घर चलता, पलता है। कुछ लोग झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हैं और कुछ सड़कों के किनारे आसमान की छत के नीचे। कुछ किराए के कमरे लेकर रहते हैं। बहुत कम लोगों के पास ही अपने घर होते हैं।
रोटी और रोज़गार की तलाश में अपने घर-गाँव छोड़कर नगरों-महानगरों को विस्थापन करने वाले श्रमिक हों अथवा गाँवों में उच्च जातियों के अत्याचार और शोषण से मुक्ति पाने के लिए अपनी ज़मीन से उजड़कर अन्यत्र जाकर रहने को विवश निम्न जातियों के लोग, वे सब हाशिए के लोग हैं। गंगाप्रसाद विमल जी अपनी कविताओं में श्रमिकों के विस्थापन के दर्द को महसूस करते दिखायी देते हैं। भूखे, नंगे, अभावग्रस्त, मन में अतीत की यादें और आँखों में भविष्य के सपने लिए, कमर में लगे पेट, पिचके गालों के साथ रोटी की जुगाड़ में यहाँ-वहाँ भटकने वाले ये श्रमिक ज़िंदा लाशों की तरह हैं। अपनी एक कविता में वह कहते हैं, ‘…..मैंने उन्हें चलते ही देखा /सड़क किनारे रेवड़ों में /सरों पर लादे /बेतरतीब सामान /वे शांति की तलाश में थे वहाँ /सुकून की /कौन कहे /चलते हुए सपनों की स्मृति /हर ठोकर की कल्पना पर ही /विलो जाती है विस्मृति में/ मैंने उन्हें चलते ही देखा /आज भी ढोते हुए अपने शरीर /वे चलते ही रहते हैं कर्मवीर /पुरुषार्थी….’7
गंगाप्रसाद विमल हाशिए के इस समाज को पहचानते हैं, और इन हालातों में वे कैसे ज़िंदा रहते हैं, इसे एक चमत्कार के रूप में देखते हैं। ‘बदहवास’ कहानी का नायक इसका चित्रण इस प्रकार करता है, ‘जिस चमत्कार की बात मैं कर रहा था, वह देशकाल का चमत्कार वहीं घटित था, यानी दो फ़ुट चौड़ी और अनंत विस्तार जैसी लम्बी उस पटरी पर। आधा फ़ुट जगह खाने वालों ने घेरी हुई थी, आधा फ़ुट चमचमाते बर्तनों ने और एक फ़ुट में गृहस्थी का वह राजभवन था। उसमें चीकट हुए बिस्तर थे। उन्हीं बिस्तरों से सटे एक कोने में एक छोटा-सा बच्चा फटी हुई चादर से अपना सोया हुआ जिस्म झलका रहा था।’8
इन हालातों में संघर्ष करके भी जो जीवंतता के साथ जी सकता है, वह बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना कर सकता है। लेखक को इस चमत्कार में बेहतर भविष्य की आशा दिखायी देती है कि एक दिन यह चमत्कार अपनी वर्तमान परिस्थितियों पर विजय अवश्य पाएगा। उसकी यह आश्वस्ति उसके इन शब्दों में अभिव्यक्त हुई है, ‘अचानक मुझे उस बच्चे की तश्वीर ने खींच लिया, जो वहीं कहीं मेरी स्मृति में थी। मुझे याद आया, फटी हुई चादर उसके साँस लेने से ऊपर नीचे हो रही थी। मुझे याद आया उसके चेहरे पर मुस्कान तैर रही थी-कभी न कभी, कहीं न कहीं, वह भविष्य में झाँक रहा था…….एक खौफ़नाक वर्तमान के विरुद्ध उसकी सजीली, कमसिन मुस्कान जैसे एक झंडे की तरह खड़ी थी। अडिग।’9
धर्म और पूँजी दोनों हाशिए के लोगों का शोषण करते हैं। धर्म बौद्धिक दास बनाकर लूटता है और पूँजी शारीरिक रूप से निचोड़ती है। शोषण करने के मामले में गाँव के सामंत और शहर के पूँजीपति में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही उसका शोषण करते और लूटते हैं। अधिक से अधिक मुनाफ़े पर अपनी गिद्ध दृष्टि जमाए पूँजी ने आज अपना रूप बदल लिया है। गंगा प्रसाद विमल पूँजी के इस बदलते रूप और चरित्र को बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं, तभी वह कहते हैं, ’इसमें कोई दो राय नहीं है। व्यवस्थाएँ विकसित होती रहती हैं। परंतु मनुष्य को लूटने की दृष्टि से जिन सुविधाओं की विज्ञापन और प्रचार द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर विज्ञप्ति की जाती है वह शोषण का नया तरीका है। पहले आदमी के श्रम पर कुछेक पूँजीपति डाका डालते थे, अब पूँजीपति घराने, कारपोरेट जगत विश्व को…’10
जातिगत ऊँच-नीच का जाहर भारतीय समाज में इतने गहरे तक व्याप्त है कि इसने मानवीय संवेदना के स्रोतों को भी सूखा दिया है। मुँह देखकर बात करने वाले समाज में भी लोग जाति देखकर बात और व्यवहार करते हैं। निम्न जातियों के प्रति उच्च जातियों के मन में कोई अपनापन और सद्भाव नहीं है। उच्च जातियों की दृष्टि में मनुष्य के रूप में उनका कोई मूल्य नहीं है। कम से कम अपने जैसे, अपने सामान मनुष्य के रूप में तो उनकी कोई स्वीकृति नहीं है। विमल जी की कहानी ‘बच्चा’ भारतीय ग्रामीण जीवन के इस कटु यथार्थ को अत्यंत ईमानदारी से अभिव्यक्त करती है। हवेली से गिरकर एक बच्चा मर गया। औरतों का हुजूम उमड़ आता है। वे सब कुलीन औरतें हैं। आती है, रोती हैं, मातम मनाती हैं। किंतु यह पता चलते ही कि बच्चा सबरी धोबिन का है, सबकी आँखों के आँसू ग़ायब हो जाती हैं और सब उठाकर चली जाती हैं। कहानीकार ने बहुत ख़ूबसूरती से इसका चित्रण किया है। ‘श्रीमती परेश धड़धड़ाती हुई ठीक बीच में पहुँची और लेते बच्चे को देख बोली, ‘मेरा अंदाज़ा है कि यह सबरी धोबीं का लड़का है।’
‘धोबिन का लड़का……..’ भीड़ में सन्नाटा छा गया। औरतें हड़बड़ाहट में उठाने लग गयीं।
‘बेचारा मिस्टर गया’ श्रीमती परेश के कहने पर भी कोई औरत रोने और मातम मनाने के लिए नहीं रुकी।
कुलीन और श्रीमंत क़िस्म की औरतें जैसे घूँघट के बीच ही नाक-भौं सिकोड़ रही थी। धोबिन के बच्चे के लिए वे नहीं रुक सकती थीं। उसे छूने का तो सवाल ही नहीं उठता था।’11
दलितों के दर्द को वही सवर्ण ठीक से समझ सकता है और उनके प्रति सच्ची सहानुभूति रख सकता है जो अपनी जातीय श्रेष्ठता के झूठे सत्य को स्वीकार करता हो तथा अपनी और अपनी जाति की आलोचना कर सकता हो। हाशिए के समाज के प्रति गंगाप्रसाद विमल की समझ और सहानुभूति इसलिए ईमानदार दिखायी देती है कि वह जाति की कसौटी पर अपना मूल्याँकन करते हैं और अपनी जातीय श्रेष्ठता के झूठे सत्य को स्वीकार करते थे। अपनी कहानी ‘बीच की दरार’ में वह इस सत्य को इन शब्दों में स्वीकार करते दिखायी देते हैं, ‘ब्राह्मण होने की हैसियत से वह लोगों की जन्म कुंडलियाँ देखकर उनके भविष्य के बारे में कुछ बातें बताया करता था, लेकिन वह अपने केस के बारे में कुछ भी नहीं जानता था, यह बातें मुझे अचरज में डाले हुए थीं।’12
जातिगत ऊँच-नीच, भेदभाव और शोषण का आधार धर्म है, क्योंकि जिस वर्ण-व्यवस्था से जातियों की उत्पत्ति हुई है, उसकी जड़ें, ऋग्वेद में हैं, जिसे हिंदू धर्म का सबसे बड़ा धर्म-ग्रंथ माना जाता है। रामायण, महाभारत और वेद, पुराण की कथाओं के माध्यम से ब्राह्मणों ने निम्न जातियों को यह पाठ पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि उनकी दयनीयता, दरिद्रता और निम्नता उनके पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है। और इस जन्म में वर्ण-व्यवस्था द्वारा निर्धारित कर्म कर, ईश्वर को प्रसन्न करके वे अगले जन्म में सुख पा सकते हैं। ऊपर वाला (अर्थात ईश्वर) बहुत दयालु है, वह सब दुःख दूर कर देगा। यही झूठी आशा उन्हें जीवन भर शोषण की ज़ंजीरों में जकड़े रहती है। गंगा प्रसाद विमल इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हैं। ‘मैं भी जाऊँगा’ कहानी में उनकी यह टिप्पणी उल्लेखनीय है, ’बस कुछ नहीं। एक लंबी फुर्सत। लोग फुर्सत में हैं। जो कुछ होगा वह पश्चिम से ही आएगा। यह अगर आप गौर करें तो एक तरह का ब्राह्मणवाद है। ब्राह्मणों ने यह व्यवस्था पहले से की हुई है। जो कुछ होगा ऊपरवाला करेगा परंतु यह कहते हुए भी वह अपनी दक्षिणा झपोर लेगा।’13
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संदर्भ-सूची:
1. गंगा प्रसाद विमल, दस प्रतिनिधि कहानियां, किताबघर प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2006, पुरोवाक
2. वही, पृष्ठ- 48
3. वही, पृष्ठ-48-49
4. वही, पृष्ठ-48
5. वही, पृष्ठ-53
6. वही, पृष्ठ-53
7. सुधा उपाध्याय, विस्थापन से बड़ा दुःख नहीं, जानकीपुल डॉट कॉम, ३० दिसम्बर, २०१९
8. गंगा प्रसाद विमल, दस प्रतिनिधि कहानियां, किताबघर प्रकाशन, पृष्ठ-87-88
9. वही, पृष्ठ-88
10. गंगा प्रसाद विमल, कहानी-मैं भी जाऊँगा, हिंदी समय डॉट कॉम
11. गंगा प्रसाद विमल, दस प्रतिनिधि कहानियां, किताबघर प्रकाशन, पृष्ठ-28
12. वही, पृष्ठ-113
13. गंगा प्रसाद विमल, कहानी-मैं भी जाऊँगा, हिंदी समय डॉट कॉम
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