भारत विश्व में प्राचीनतम् कृषि-प्रधान देश है। मैं समझता हूँ कि आधुनिक काल से पूर्व सम्राट अकबर के समय में उनके नवरत्न टोडरमल की पहल और सूझ-बूझ से किसानों की जोत और ज़मीन के लिये पहली व्यवस्थित-प्रणाली बनाकर लागू की गयी।उससे पहले की मान्यता है कि हमारे यहाँ का किसान खेती-बाडी़ के साथ ही अपने खेतों व ज़मीन का भी मालिक होता था।परम्परागत रूप से अपनी उपज के एक तय-अंश को राजकोष में नियत समय तक दे देना उसका दायित्त्व होता था।अकाल,सूखा,अतिवृष्टि या महामारी जैसी आपदा से यदि कभी उसकी फसल का नुकसान हुआ,तब उपज का अंशदान देने की अनिवार्यता के बजाय फसल की क्षति के नाते राजा के राजकोष द्वारा उसकी यथेष्ट भरपायी की जाती थी। राज-समाज के बीच यही पारम्परिक-व्यवस्था स्वीकृत व प्रचलित थी।
इसमें दिक़्क़त और तब्दीली का सिलसिला तब शुरू हुआ, जब व्यापार करने के बहाने अँगरेज़ हिन्दुस्तान में आ जमे और अपने व्यापारिक-हित की आड़ लेकर मुगल-बादशाह से उन्होंने सुरक्षा-तन्त्र के बहाने अपनी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना बनाकर रखने का अधिकार प्राप्त कर लिया।इसके बाद तो कुटिल-कपटी अँगरेज़ बेहद चालाकी ही नहीं,बेहद शातिरपने से इस देश के राजे-रजवाडो़ं के बीच अपनी पहुँच -पैठ बनाते हुए इन सब के सत्ताधिकारों में भी जबर्दस्त; और कभी-कभी तो उससे भी कहीं आगे तक की दख़लन्दाजी़ करने लग गये! और भी दुर्भाग्यपूर्ण तो दरअस्ल तब ये हुआ कि कमजो़र होती व छीजती मुगलसत्ता के उस दौर के साध प्रभावशाली होती ईस्ट इण्डिया कम्पनी,यहाँ के देशी राजों-रजवाडों की कृषि-जोत व ज़मीन की व्यवस्था में हस्तक्षेप समेत ब्रिटिश-प्रणाली की ऐसी पद्धति भी संचालित करने में कामयाब होती गयी, जिसमें कम्पनी समेत बिचौलियों की भी पौ बारह रहे और किसान के बजाय ज़मीन पर राजा से लेके जमींदार तक के ही स्वत्त्वाधिकार स्थापित रहें।इससे ज़मीन को जोतते-बोते रहने से उस पर भारत देश के अन्नदाता का परम्परागत रूप से जो मालिकाना-हक़ कायम रहता आया था,उसके स्थायी-स्वामित्त्व का मौलिक अधिकार ही ख़त्म हो गया!किसान को ज़मीन अब तो ज़मीन किसान को तय-अवधि के लिये और बँधी-बँधाई शर्तों पर ही जोतने-बोने को मिलनी थी। धन-धान्य व उपज न होने पर,राजकोष की ओर से भरपायी होने की कौन कहे,अब तो उसकी नियति हुकुम के मज़बूर-गुलाम की बनाकर छोड़ दी गयी थी!
अतएव सनातन-काल से इस देश की धरतीमाता की कोख से अन्न उपजाते और अन्नदाता कहलाते किसान के हाथ से उसकी ज़मीन जाने के साथ-साथ यह देश भी ईस्ट इण्डिया कंपनी के चंगुल में शनैःशनैः जकड़ता गया! यही नहीं बल्कि; बडा़़ सच यह भी है कि तब से 'सोने की चिडि़या' कहलाते भारत पर ज़मीनीहक़ की खा़तिर यहाँ के राजे रजवाडे़ नहीं, किसान-मज़दूर और उनसे जुडे़ आम-अवाम ही सारी की सारी लडा़इयाँ लड़ते आये हैं!१७६७ से१९००ई.तक की तक़रीबन१३३वर्षों की इन सभी लडा़इयों समेत 'भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम' कहलाता सन्१८५७ का वह विप्लव भी रहा है, जिसकी विफलता के फलस्वरूप यहाँ पर ब्रिटिशों का 'विक्टोरिया-राज' का़यम हो गया किन्तु;भूलें भी नहीं कि १७वीं-१८वीं शताब्दी के दौरान गंगा-जमुना के मैदान से लेकेर देश के धुर दक्षिण तक आदिवासी,संन्यासी पहाडि़या,
मुण्डा, चेरो, नील, भील, कूका, मोपिला, तमाड़, कोली, भूमिज, पागल पन्थी, संथाल, तिलका माँझी समेत इस देश में अनेक किसान विद्रोह; अंग्रेजो़ंं की औपनिवेशिक फौजों को नाकों चने चबवाते रहे हैं। हमारे इतिहास के पन्नों में इन सभी की सम्यक्-चर्चा हुई है किन्तु;तब शायद कवियों, लेखकों आदि में राष्ट्रीयता-बोध की वह जागरूकता नहीं थी कि वे अपनी रचनाओं में इन गौरव गाथाओं की सम्यक्-चर्चा चेतनता व साहसिक-उत्साह के साथ करते।
वस्तुतः देश-प्रेम के राष्ट्रीय-बोध की व्यापक चेतना की दृष्टि से सबसे पहले भारतेन्दु हरिश्चन्द १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बताते हैं कि हमारी गफ़लतों से भारत देश का धन लूटकर अंग्रेज़ अपने देश लिये जा रहे हैं। उनके व्यंग्य-मिश्रित नाटक 'भारत -दुर्दशा'(१८७३)में दारुण-विलाप वाले शोक-गीत के रूप में वह सब इस तरह से अभिव्यक्त हुआ था--
'आवहु सब मिलिके रोवहु भाई!
हा!हा!!भारत-दुर्दशा न देखी जाई!'
भारतेन्दु के इस स्वर में 'अँगरेज-राज, सुख-साज सजे सब भारी' लिखते हुए जिस तरह से भरे-पेट के तबकों की कलई तब उतार दी गयी थी,वैसे ही इसमें विषाद के साथ 'सब धन बिदेस चलि जात,यहै अति ख़्वारी' का आर्तनाद भी व्यंजित किया गया था। भारतेन्दु की उपर्युक्त सम्पूर्ण कविता में अन्त -र्वेदना के रुदन व विलाप और भी सघन व मर्मान्तक होकर आये है!भारतेन्दु के इस लेखन ने रचनाकारों में किसानों की दशा-दुर्दशा पर हौसले से लिखने की हिम्मत व ताकत दी।फिर तो हिन्दी पत्रिकाओं, अखबारों, सम्पादकों आदि के जरिये रचनाकारों द्वारा लिखी किसानों की बहुतेरी दिक़्क़तों, तकलीफों, समस्याओं समेत दारुण-दुख आदि भी कई तरह से मुखरित व प्रकाशित होने लग गये!
१९वीं सदी के उत्तरार्द्ध व २०वीं सदी के पहले दशक के दौर (१८८४ से १९०७) में अपने लेखन, पत्रकारिता एवं कविकर्म से सुविख्यात् बाबू बालमुकुन्द गुप्त की अपनी लम्बी कविता 'सर सैय्यद का बुढा़पा' में; समाज, सत्ता व सत्ता से जुडे़ हुए लोगों की वजह से किसानों व खेतीबाडी़ की बदहाली बेहद मार्मिकता से यों व्यक्त हुई है। उद्धृत हैं कुछ सतरें, जो अभी तक दुर्लभप्राय रही हैं--
'जिनके कारण सब सुख पावें,जिनका बोया सब जन खायें!
हाय - हाय! उनके बालक नित, भूख के मारे चिल्लायें!
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अहा! बिचारे दुख के मारे, निस दिन पच - पच मरें किसान!
जब अनाज उत्पन्न होय, तब सब उठवा ले जाय लगान!
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सुनी दशा कुछ उनकी बाबा! जो अनाज उपजाते हैं!
जिनके श्रम का फल खा - खाकर,सभी लोग सुख पाते हैं!
हे बाबा ! जो यह बेचारे ! भूखों प्राण गवाँवेंगे !
तब कहिये-"क्या धनी गलाकर अशर्फियाँ पी जावेंगे" १७अक्तूबर,२०१९ से शुरू हुई 'अवध किसान आन्दोलन' की शताब्दी पर एतद्विषयक लेखन-पत्रकारिता के पन्नों में झाँकने के क्रम में कुछ प्रासंगिक चर्चा की कोशिश हैं आगे की सतरें।
इस यत्किंचित प्रयत्न में २०वीं सदी के शुरू से भी मैंने पाया है कि किसानों के दुखों की दशा-दुर्दशा, उनके विरोध-विद्रोह एवं उनकी मुखरताओं-सक्रियताओं को हिन्दी के रचनाकार सामने लाते रहे हैं।द्विवेदीयुगीन 'भारत भारती' (कवि मैधिली शरण गुप्त) शायद पहली कृति है, जो मात्र २सतरों 'हम क्या थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी ? आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी' में आत्मालोचकीय-दृष्टि देते हुए किसानों की दुरवस्थाओं से भी हमें रूबरू कराती है।पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी 'सरस्वती' में किसान विषयक रचनाएँ शुरू से ही अत्यन्त संवेदनशीलता से प्रकाशित कर रहे थे तो बतौर लेखक-सम्पादक वह स्वयं भी एतद्विषयक लेखन कर रहे थे।'सरस्वती' में गयाप्रसाद शुक्ल'सनेही' की 'किसान' व 'अभागा कृषक' कविताएँ (जनवरी१९१२ व अप्रैल१९१४), मैथिलीशरण गुप्त की 'कृषक-कथा' तथा 'भारतीय कृषक' कविताएँ क्रमशः(जनवरी१९१४-मई १९१६) में आयीं।इसी क्रम में अन्यान्य रचनाकारों की रचनाओं समेत बडे़ फलक वाली कृतियों में मैथिलीशरण गुप्त कृत 'किसान'(१९१५) व कृषक क्रन्दनःगयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'(१९१६) के बाद ही 'अनाथ': सियारामशरण गुप्त(१९१७) प्रबन्ध काव्य भी उसी दौर में अत्यन्त व्यापकता से जनमानस के ध्यान को आकृष्ट कर रहे थे।
यही समय है जब पं.महावीरप्रसाद द्विवेदी से सम्पादन की दीक्षा लेकर निकले गणेशशंकर विद्यार्थी; अपनी स्वातन्त्र्य-समरमुखी प्रखर-पत्रकारिता से नया इतिहास रचने लग गये थे!उनके सम्पादन में निकलता 'प्रताप' देश की स्वाधीनता व क्रान्तिकारियों के आन्दोलनों के समान्तर देश के किसानों से जुडे़ सभी आन्दोलनों की गतिविधियों को भी बेहद प्रमुखता से छाप रहा था। मेवाड़(राजस्थान) की बिजोलिया रियासत के 'बिजोलिया किसान आन्दोलन' से विद्यार्थीजी ने शुरुआत से ही 'प्रताप' को तो जोडा़ ही, वह खुद भी अत्यन्त घनिष्टतः इस किसान आन्दोलन से अपनी शहादत तक निरन्तर जुडे़ रहे, जो १९१४-'३९ तक, २५बरस तक चला था!देश में यह सर्वाधिक दीर्घकालीन किसान आन्दोलनों में से एक था।८० तरह के लगान व देनदारियों के बोझ तले दबे किसान यहाँ की रियासत के अलग-अलग ओहदेदारों से बराबर प्रताडि़त होते रहते थे।'प्रताप' ने अपने पन्नों में प्रमुखता से छापते हुए इस किसान आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी बना दिया!इसके नेता विजय सिंह 'पथिक' व उनके सहयोगी रामनारायण चौधरी के बीच उठे मतभेदों को दूर करने विद्यार्थीजी अस्वस्थता के बावजूद बिजोलिया गये!तब तिलक का 'केसरी'अख़बार भी 'बिजोलिया किसान आन्दोलन' से गहरे से जुडा़ था किन्तु; 'प्रताप' तथा विद्यार्थीजी जैसी घनिष्टता-संलग्नता एवं उसके गहरे-प्रभाव को इसी से समझिये कि अँगरेजी़-सत्तामुखी,पर स्वायत्त-प्रशासन संचालन कर रही बिजोलिया रियासत में 'प्रताप' को पूरी तरह से प्रतिबन्धित कर दिया गया! जमानत और जुर्माने की परवाह न करने वाले 'प्रताप' के सम्पूर्ण प्रकाशन-काल में यह पहली बार हुआ कि 'प्रताप' पर देश में कहीं प्रतिबन्ध लगा!इससे 'प्रताप' की ही साख बढी़ !
किसान आन्दोलन से जूझती बिजोलिया रियासत ने अपनी- तईं इस कार्रवाई को तसल्लीबख्श भले समझा हो एवं इस नाते वहाँ ग्राहकों को 'प्रताप' की प्रतियाँ मिलनीं भी मुहाल हो गयीं!परन्तु इतने से ही 'बिजोलिया किसान आन्दोलन' को को राष्ट्रीय-पहचान मिल चुकी थी।अब रियासत ने सोचा, हम किसानों को बलपूर्वक जेलों में ठूँसकर उनकी एकजुटता को बलपूर्वक तोड़ देंगे किन्तु; बदले में किसानों की स्त्रियों व उनकी समूची महिला-शक्ति ने फिर तो इस आन्दोलन में अपनी जबर्दस्त भागीदारी से ऐसी चेतना भरी कि उसकी प्रखरता की धार व गति अप्रत्याशित रूप से और भी तेज़ हो गयी। 'बिजोलिया किसानआन्दोलन' आकाश छूने लग गया! 'प्रताप' ने दमन के साथ ही ये सब देश के सामने सविस्तार रखा तो बिजोलिया के राजा की बेहद थू-थू हुई और फिर वे समझौते पर आ गये। तभी युवाकवि- सुदर्शन 'चक्र' ने लिखा था:'डर नहीं था तोपों के भी तेवरों के ताप का,यही तो प्रताप था, 'प्रताप' के प्रताप का! 'विडम्बना कि बिजोलिया किसान आन्दोलन की इस सफलता के शीर्ष-मुकाम से विद्याथीजी साक्षात् करते कि उससे पहले ही कानपुर के साम्प्रदायिक दंगे में वह शहीद हो गये थे!
इधर १९१७ के आसपास से उत्तर प्रदेश में कुछ इलाकों व अवध-क्षेत्र के किसानों पर यहाँ के राजे-रजवाडो़ं, ज़मीदारों, ताल्लुकेदारों एवं ब्रिटिशराज के करों, हारी-बेगारी से लेकर १४० से भी ज़्यादा कोटि के करों-देनदारियों का पहाड़ टूटा पड़ता था। इससे उबरने के लिये कांग्रेस तथा गाँव के लोगों द्वारा बनायी किसान सभा की गतिविधियाँ से रियासतों एंव जमीदारों में बेचैनी तो होती थी किन्तु; प्रतिपक्षी रियासतों की दबंगई व ब्रिटिशसत्ता की भरपूर सरपरस्तीं, किसान सभाओं की कोशिशें को परवान नहीं चढ़ने देती थीं। विद्यार्थीजी को भी इसका अहसास था। वह भीतरी स्तर तक इन सबकी टोह ले-लेकर 'प्रताप' में खबरें छापते रहते थे।साथ ही किसान सभाओं व उनसे जुडे़ लोगों तक नज़दीकी सम्पर्क-संवाद कायम रखते हुए वह 'प्रतापं' के लिये प्रामाणिक तथा त्वरित समाचार पहुँचाने में सक्षम व परम्-विश्वसनीय-सूत्रों को भी बराबर जोडे़ रहते थे।किसान सभाओं में अपनी आकस्मिक-उपस्थिति से भी कभी-कभी वह अचम्भित कर देते! किसान आन्दोलनों के इस पूरे दौर में विद्यार्थीजी कि ये तत्पर-त्वरित कार्यशैली ही थी कि 'प्रताप' किसानों के संघर्ष का प्रमुख-संवाहक और मुखपत्र के रूप में सदैव अग्रणी बना रहा है। उस दौर में प्रताप प्रेस से छपती साहित्यिक वैचारिक पत्रिका 'प्रभा' (मासिक) के पन्ने भी किसानों और उनके आन्दोलनों से जुडे़ तथ्यों व रचनाओं को समेटने की भूमिका में मुस्तैद रहे हैं।
'अवध किसान सभा'१७ अक्तूबर, १९२०से विधिवत् अस्तित्त्व में आकर तीव्रगामिता से सतह पर सक्रिय हो चली थी। सन् १९२२ की ७ जनवरी को रायबरेली के मुंशीगंज में घटित हुए अमानवीय गोलीकांड में सप्रयास की गयी जमींदारों-ताल्लुकेदारों और सरकारी-नृशंसता, अवध-क्षेत्र ही नहीं बल्कि; किसानों के सभी आन्दोलनों के लिये प्रेरणा-स्रोत बन गयी!कितनी ही कहानियाँ, कविताएँ, सम्पादकीय, लेखादि लिखे गये और वे छपते रहे हैं। आज उन सबका अल्पांश ही उपलब्ध है।और;
कम ही लोगों को पता है कि शुरू से ही उर्दू में लेखन करते आये प्रेमचन्दजी से विद्यार्थीजी,अब हिन्दी में भी निरन्तर लिखने का आग्रह बराबर करते थे।सो, सन् १९१४ में प्रेमचन्द ने हिन्दी में जब पहली रचना ('परीक्षा' कहानी) लिखी, तो उसे छपने के लिये सीधे विद्यार्थीजी को ही भेजा। प्रेमचन्द की ये पहली हिन्दी रचना 'प्रताप' के विजय दशमी अंक (अक्तूबर १९१४) में छपी थी।इसका मूल विषय रियासत के प्रजाहित -चिन्तक बूढे़ दीवान के सुयोग्य प्रतिस्थानी का चुनाव था! ऐसे में ये कितना हैरत अंगेज़ है कि किसानों के जीवन-संघर्षों और उनकी दुश्वारियों से निकटता से परिचित प्रेमचन्द किसानों के आन्दोलनों; विशेषतः उस दौर के प्रखर 'अवध किसान आन्दोलन' को दरकिनार करके 'प्रेमाश्रम' उपन्यास व इस पर ही आधारित नाटक 'संग्राम' लिखते हैं। परन्तु;अपने आदर्शवादी-रुझान के साथ ही काफी कुछ गान्धी के प्रभाव से ग्रस्त निदान--'आश्रम' के इर्द-गिर्द ही सिमटे रह जाते हैं!ऐसे में अवध के किसान आन्दोलन की चरम तथा अप्रत्याशित-परिणति के नाते किसानों की बलि लेते मुंशीगंज-गोलीकांड (जिसको विद्यार्थीजी ने 'दूसरा जलियाँवाला बाग़' काण्ड की संज्ञा दी थी,) से प्रेमचन्द की निरपेक्षता हतप्रभ करती है!आगे चलकर लिखे प्रेमचन्द के उपन्यास 'रंगभूमि' के केन्द्रीय-चरित्र में सूरदास के रूप में दरअस्ल गान्धी व उनके आन्दोलन की प्रविधियाँ आदि हैं। फिर वाया 'कर्मभूमि', गान्धी और गान्धीवाद के मोह से उबे या उबरकर विलग हुए प्रेमचन्द 'गोदान' में हमें यथार्थवाद के अपने जिस चरमोत्कर्ष पर दीखते हैं,वह आजा़दी-पूर्व के भारतीय किसान के मजदूर बनने की क्रूर और दारुण-गाथा है!
यहीं इसे भी जान लेना अत्यन्त प्रासंगिक होगा कि उसी दौर में लगभग डेढ़-सौ तरह के करों व देनदारियों से बिलबिलाते अवध के किसानों पर जो बीत रही थी, उससे न काँगरेसियों का कुछ लेना-देना था,न मदनमोहन मालवीय व अन्यान्य क्रान्तिधर्मा संगठन आदि के सदस्यों का और न इन किसानों से सहानुभूति जताते किसी और का ही!प्रतापगढ़-स्थित रूर गाँव के झिगुरी सिंह-सहदेव सिंह, सारी कोशिशों के बावजूद अभी किसानों को संगठित करके भी उनकी एकजुटता को वैसी धार और रफ़्तार नहीं दे पा रहे थे,जैसी कि अब बेहद ज़रूरी हो गयी थी।ऐसे में फीजी से लौटे गिरमिटिया बाबा रामचन्द्र, वकील माताबदल पाण्डेय,झिँगुरी व सहदेव सिंह आदि की एकजुटता से १७अक्तूबर,१९२० को बनी 'अवध किसान सभा', उससे जवाहरलाल नेहरू समेत अवध के किसानों के व्यापक समुदाय के सघन-जुडा़व, और 'अवध किसान आन्दोलन' से उपजी सक्रियता, अग्रगामिता, संघर्ष-जीविता इत्यादि इतिहास की विषय-वस्तु तो बने ही बने; मुशीगंज गोलीकाण्ड, अवध से इतर किसानों के प्रासंगिक आन्दोलनों के लिये भी प्रेरणा का प्रमुख स्रोत बन गया है!
अतः किसान आन्दोलनों और 'अवध किसान आन्दोलन' से सम्बन्धित अगणित रचनाएँ व पुस्तकें लिखी गयीं व छपी हैं।यहाँ सब का उल्लेख तो सम्भव नहीं, फिर भी मुख्य कृतियों को देखें तो नेहरू की 'मेरी कहानी' में खासा-प्रसंग 'अवध किसान आन्दोलन' के आये हुए हैं। प्राणनाथ विद्यालंकार लिखित कृति 'किसानों पर अत्याचार' भी उल्लेख्य है।अवध किसान आन्दोलन पर माताबदल पाण्डेय (प्रतापगढ़) द्वारा आजा़दी से पूर्व प्रकाशित हुई पुस्तक-माला की तीन पुस्तकें हैं।
रायबरेली में सक्रिय किसान आन्दोलन पर अमरबहादुर सिंह 'अमरेश' कृत 'एक और जलियायाँवाला..'(१९८१)की किताब मुख्यतः मुंशीगंज - गोलीकाण्ड पर है तो श्रीराम सिंह कृत 'रायबरेली: किसान आन्दोलन की यज्ञ-भूमि'(१९८५), जिले के ४किसान आन्दोलनों के दमन में घटित गोलीकांडों की विषय-वस्तु को समेटा गया है।किसानों, उनकी जीवन- स्थितियों, 'अवध किसान आन्दोलन' और किसानों के विभिन्न आन्दोलनों से सम्बन्धित एम०एच०सिद्दीकी़, निशा राठौर, जे.एस.नेगी व अंशु चौधरी आदि के गहन अध्ययन व शोध- कार्य भी इस क्रम में सुविज्ञ हैं।इनमें से कुछेक शोध-प्रबन्ध, पुस्तक रूप में भी आये हैं। यथाः 'किसान-विद्रोह, कांग्रेस और अंग्रेजी़राजः १८८६-१९२२' ;लेखक: कपिल कुमार। वीरभारत तलवार की 'किसान राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचन्द' व डाॅ. महेन्द्रप्रताप कृत 'उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन' के नाम इसी क्रम में उल्लेखनीय हैं।कथाकार कमलाकान्त त्रिपाठी का उपन्यास 'बेदखल'(१९९७) अवध-क्षेत्रीय किसानों के आन्दोलन के इतिहास और लोक-श्रुति का रोचक समन्वय है। आर.पी. सरोज ने हरदोई के 'एका' आन्दोलन के नायक पर केन्द्रित 'क्रान्तिवीर मदारी पासी' पुस्तक तथा लेखक बृजमोहन ने 'क्रान्तिवीर मदारी पासीं'(२०१९) उपन्यास रचा तो इसी क्रम में लिखी-छपी राजीवकुमार पाल की नवीनतम् कृति 'एका'(२०१९)कई विधाओं का सम्मोहक समुच्चय है। बाबा रामचन्द्र की पत्नी पर 'किसानिन जग्गी देवी' पुस्तक प्रिया मेहरोत्रा ने लिखी है।सुभाषचन्द्र कुशवाहा कृत 'अवध का किसान विद्रोह'(२०१८) भी इस सिलसिले में पठनीय पुस्तक है।
परन्तु यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन लोगों ने किसान आन्दोलनों में खुद को खपाया,उनमें से बहुतायत के वंशज, अपने हुतात्मा पुरखों के बारे में अधिकांशतयः आज न के बराबर जानते हैं। कोई प्रामाणिक अभिलेख व धरोहर इनमें से यदि किसी के पास मिले तो वह आश्चयप्रद-अपवाद ही होगा!अतः प्रयत्न पूर्वक 'अवध किसान आन्दोलन' के इस शताब्दी वर्ष में जो भी दुर्लभप्राय सामग्री और प्रमाणिक जानकारियाँ मिल सकेंगी, निश्चय ही वे सब हमारे लिये 'बडी़ उपलब्धि' और 'अनमोल-धरोहर' होंगी!
अवध क्षेत्रीय सांस्कृतिक - साहित्यिक परिवेश के जिले सुलतानपुर (उत्तर प्रदेश) में
जन्म : ५ अक्तूबर, १९४९।
विद्यार्थी जीवन से लेखन - प्रकाशन के साथ साहित्यिक - सांस्कृतिक पत्रकारिता और साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन। बालसाहित्य के परिदृश्य का एकाग्रता से अध्ययन एवं समीक्षात्मक आलोचनात्मक लेखन।
सम्पादक :
१. ' कात्यायनी ' एवं ' सजीला ' (लखनऊ १ ९६८-१९ ७४) से प्रारम्भ से ही सम्पादकीय - सहयोगी के रूप में जुड़ाव।
२. ' लघुकथा ' एवं बालरंगमंच ' पत्रिकाओं का १६७४ से १ ९ ६२ तक संपादन प्रकाशन।
३. सम्पूर्ण बालरचनाएँ : अमृतलाल नागर (२०११) कासम्पादन एवं भूमिका - लेखन।
४. सुभद्राकुमारी चौहान का बालोपयोगी किशोरोपयोगी साहित्य (संचयन) एवं ' कुली प्रथा ' (जब्तशुदा नाटक) / लक्ष्मणसिंह चौहान : प्रकाशनाधीन।
५. बालसाहित्यालोचन : अभिनव हस्तक्षेप (खण्ड : २ व ३) लेखनाधीन
सम्मान एवं पुरस्कार : 'लल्लीप्रसाद पाण्डेय बालसाहित्य पत्रकारिता सम्मान ' - २०१५ से उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा समादृत।
सम्पर्क:
४५६/२४७, दौलतगंज (साजन मैरिज हॉल के सामने), डाकघर - चौक, लखनऊ -२२६००३ (अवध)
मो. ९७२१८६६२६८
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