कहानी : महुआ - अजीत मिश्रा

Dr. Mulla Adam Ali
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महुआ

  महुआ। जी हां आपने ठीक सुना मैं महुआ की ही बात कर रहा हूं। पता नहीं क्यों यह शब्द आज दोपहर से ही मुझे परेशान कर रहा था। मैं सोच रहा था कि यह महुआ मुझे क्यों परेशान कर रहा है। भारत के उष्ण तटबंधीय क्षेत्रों में पाया जाने वाला यह वृक्ष सदैव ही हमारे लिए महत्वपूर्ण था। अभी वर्तमान की बात यदि छोड़ दिया जाए तो मैं याद करता हूं कि हम लोगों के बचपन में इस महुए का किसान परिवार में आर्थिक रूप से बहुत महत्व था, लेकिन महुआ को वह सम्मान और गौरव नहीं प्राप्त हुआ जो उसके समकक्ष अन्य वृक्षों को प्राप्त है जैसे आम और जामुन।

   लोगों ने महूए का उपभोग तो खूब किया चाहे वह अपने व्यंजनों में किया, दवा दारू के रूप में किया या इसकी लकड़ियों का, जिसकी शाह और चौखट का क्या कहना वह आज भी बढ़ई की बेहद पसंदीदा है। आदिवासी लोक संगीत को छोड़ दिया जाए तो महुये के साथ हमारे साहित्य में और लोक संगीत में इसके साथ बहुत अच्छा बर्ताव नहीं किया गया। अब भला बताइए कि श्रद्धेय श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कुटूज जैसे खूसट वृक्ष पर तो भरपूर गद्य साहित्य लिख दिया लेकिन इस महुये के साथ अन्याय कर गए।वह चाहते तो महुये पर लिख देते हैं और इसके गौरव को और बढ़ा देते। फ़िल्म जगत में महुआ नाम की फिल्म तो बनी लेकिन उसमें इस वृक्ष से कोई लेना-देना नहीं था। अभी वर्तमान में एक सांसद के रूप में महुआ मित्रा का नाम सुनता हूं, लेकिन उनको भी इस महुआ के प्रति कोई प्रेम नहीं है। कुछ जागरूक नहीं दिखती महुआ के प्रति, यदि चाहती तो इसका वृक्षारोपण तो करवा ही सकती थी। खैर जहां तक हमारे अवधी और भोजपुरी लोक साहित्य की बात है, तो जब मैं बहुत याद करता हूं, तो मुझे सिर्फ एक ही गीत याद आता है "अमवा महुआ के झूमे डरिया, तनी देखा ला बलमुआ हमारि ओरिया"। इसके अलावा महुआ से संबंधित कोई लोकगीत प्रचलित नहीं हुआ या हुआ होगा तो मेरी जानकारी में तो नहीं है। महुआ के व्यंजन के रूप में लपसी, लाटा, गुलगुला और दही के साथ मिलाकर खाने का अलग आनंद था। जाड़े में इसे सुखाकर सुबह खाली पेट ताजे पानी या दूध के साथ खाना भी सेहत के लिए फायदेमंद था। महुआ का फल जिसको देसी भाषा में कोइया कहते थे उसको भी हमारे पुरखे सब्जी के रूप में और उसके तेल का भी उपयोग करते थे। आजकल की आधुनिक रसोई से ये बेचारा दीन हीन महुआ लगभग गायब हो गया है, कुछ अपवाद छोड़कर जहां आज भी कुछ लोग पुरखों को याद कर कभी कभार इस बेचारे महुये का उपयोग कर लेते होंगे। महुआ बीनने की कला आपकी अपनी शारीरिक चुस्ती एवं फुर्ती पर निर्भर होती है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान मुझे इस महुआ की याद अपने मित्र रूद्र से जरिये मोबाइल बात करने के उपरांत आई। मुझे याद है कि मेरे गांव में पश्चिमी तरफ एक नाला बहता है, और उस नाले से सटा हुआ एक बहुत बड़ा बाग हम लोगों के पुरखों द्वारा लगाया गया था, जिसके बीच में तालाब भी था, जो आज भी कुछ परिवर्तन के साथ वैसे मौजूद है। तालाब के किनारे आम महुआ जामुन कैथ पलाश एवं अन्य प्रजातियों के वृक्ष थे। जिसमें महुआ की संख्या बहुतायत थी लगभग 50 लेकिन पलाश से कम। आपको याद होगा कि आम के तो तमाम उपनाम मिल जाते हैं जैसे चिनियाहवा, सिंधुरवा, कोईलहवा, अचरहवा, खट्टाहवा, सिटकहवा आदि आदि लेकिन महुआ का इतना उपनाम नहीं था, फिर भी एक महुये को हम लोग लप्सीइहवा कहते थे।

 उसके नाम से ही यह प्रतीत होता है कि वह रसदार था और हम लोगों की दादी को लप्सी, जिसे हम आज का आधुनिक हलवा कहते हैं, बनाने में बहुत ही सुविधा रहती थी। जहां तक मेरा ख्याल है कि आधुनिक रसोई में अपना अस्तित्व समाप्त कर चुके इस महुआ के व्यंजन को अब हमारे घर की रसोई थाम रही महिलाएं भी भरपूर चरण वंदना के बावजूद इसे बनाने में सक्षम नहीं है। यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि मेरी मन्शा सिर्फ महुआ के प्रति उपेक्षा की पीड़ा तक सीमित है बाकी किसी भी प्रकार महिलाओं की आलोचना करना नहीं है। लप्सीइहवा की विशेषता थी कि वह बहुत ही भारी वृक्ष था और उसकी जड़ें दूर-दूर तक बिखरी हुई थी, जिसके ऊपर हम लोग तालाब से मिट्टी निकाल कर मित्र मंडली के साथ एक चबूतरे का रूप दे दिया गया था जहां पर हम सभी नवजात मित्रों की सभा होती थी जहां हम लोग अपने मन की बात किया करते थे। हम मित्र मंडली की बातें सिर्फ मन की बात तक सीमित नहीं रहती थी जैसा कि हमारे प्रधानमंत्री श्री मोदी जी करते हैं वहां पर कभी-कभी हम लोग हृदय की भी बातें कर लिया करते थे और अपनी तमाम बौद्धिक, अबौद्धिक मानसिक भड़ास निकाल कर आनंद का अनुभव प्राप्त करते थे। हम लोगों के मित्र श्री रमाकांत पांडे जी अक्सर अब भी कहा करते हैं कि काहो का छिनरी बुजरी बतियात अहा। अब उनसे कैसे कहें कि यह सब बातें उस महुए के चबूतरे पर सन 1994-1995 के दौर में खूब गर्मजोशी के साथ हुआ करती थी और आज की तारीख में हम सब इन बातों से खूब अघा गए हैं। मार्च 1995 दिन और तारीख याद नहीं लेकिन उस दिन हमारे मित्र रुद्र उस महुए के वृक्ष के नीचे काफी उदास बैठे थे, आज पहला दिन था इतने सालों में जब उनका मन क्रिकेट में नहीं लग रहा था और वो बड़ी उदासी के साथ उसी महुए के नीचे उसकी टहनियों को देखते हुए बैठे थे। शाम को मैंने पूछा का हो रुद्र आज बहुत खोए खोए लग रहे हो, का हुआ। रूद्र कुछ नहीं बोले और उनकी आंखों में आंसू देख कर अचानक मैं भी परेशान हो गया और मैंने फिर से पूछा कि क्या हुआ, तब भी वह कुछ नहीं बता रहे थे लेकिन बहुत कसम किरिया के बाद उन्होंने कहा अज्जि भैया कंचनवा ने हमें धोखा दे दिया उसके घर वाले उसकी शादी कहीं और करने जा रहे हैं। यहां यह बताता चलूं कि कंचन रुद्र के साथ इंटरमीडिएट में एक ही स्कूल में पढ़ती थी जिससे उनका इलू इलू लगभग 2 वर्षों से चल रहा था। आज कंचन की एक सहेली ने रूद्र को कंचन के हाथों का लिखा एक पत्र दिया था जब वह इंटरमीडिएट के अंतिम विषय की परीक्षा देने गए थे। उस पत्र का उनवान इस प्रकार था- डिअर रुद्र। I am sorry। किस्मत को हमारा और तुम्हारा मिलना मंजूर नहीं था। मैं अपने माता-पिता के सम्मान के विरुद्ध एक कदम भी चलना पसंद नहीं करती। हालांकि वे हमारी शादी हमारी इच्छा के विरुद्ध कहीं अन्यत्र कर रहे हैं लेकिन फिर भी मैं उनके इस निर्णय को अपनी नियति समझकर स्वीकार कर रही हूं। इन बातों का आप से मुखातिब होकर कहना मेरे लिए संभव नहीं था, इतना साहस मैं नहीं कर पाई, इसीलिए यह पत्र मैं अपनी सहेली के जरिए भिजवा रही हूं। अपना ख्याल रखना। अब से किसी और की कंचन।। पत्र की स्थिति परिस्थिति और तार्किकता को सामाजिक दृष्टिकोण से समझने के पश्चात मैं कंचन को दोषी नहीं मान रहा था और रूद्र को समझाने का प्रयास कर रहा था कि वह उसकी मजबूरियों को समझे।

 मुझे याद है उस दिन रूद्र ने मुझसे कहा था कि अज्जी तुम नहीं समझोगे प्यार क्या होता है आज कंचन मुझे इस महूए के हर पत्ते में दिख रही है उसी का रंग, उसी का रूप, मुझे इस महुए की हर डाली पर, हर पत्तों पर दिखाई दे रहा है। आप कुछ देर के लिए मुझे अकेला छोड़ दो मैं अकेला ही उसे समझना चाहता हूँ। उसके बाद रूद्र कई दिन कई हफ्ते कई महीने उस महुये के पेड़ के नीचे अकेले बैठ जाते थे और उसी महुये को कंचन मानकर अपने दिल की अपने मन की अपने ह्रदय की बातें किया करते थे। रूद्र अपनी जगह गलत नहीं थे लेकिन वह जिस समाज में जी रहे थे वह समाज इसे बहुत तवज्जो नहीं दे रहा था, वह इसे अल्पकालिक नौटंकी मानता था। वह यह नहीं जानता था कि रूद्र पर क्या बीत रही है वह यह भी नहीं समझना चाहता था कि रूद्र की आंतरिक स्थिति क्या है लेकिन जब यह बात कुछ लोगों की जानकारी में आई तो वे अक्सर रूद्र को रोमियो और मजनू कहकर बुलाते थे और मजाक करते थे । हमारा समाज कुछ ऐसा ही है। रूद्र समझदार थे इसीलिए वे अपनी बातें इस समाज से ना कह कर उस महुआ से कहते थे और अपनी व्यथा उस वृक्ष को सुना कर संतुष्ट हो जाया करते थे। रूद्र संस्कारी भी थे जब उनकी मां ने रूद्र को समझाया कि वह इस तरीके का पागलपन न करें, तब वे अपनी मां की बात मान कर गांव छोड़ दिया था हालांकि उन्होंने इंटरमीडिएट के बाद पढ़ाई नहीं किया और मुंबई में जाकर नौकरी करने लगे और आज एक सम्पन्न ब्यवसायी हैं, लेकिन उन्होंने उसके बाद अभी तक उन्होंने अपना विवाह नहीं किया। अब वह अकेला ही जीना पसंद करते हैं। लगभग 25 वर्षों से वह अपने गांव नहीं आये, हालांकि उनके परिवार वाले उनसे जाकर मिल आते हैं। बहुत कोशिश के बाद हमारी मोबाइल वार्ता उनसे हो पाई और मोबाइल वार्ता के दौरान उन्होंने कहा की अज्जि मैं तुम्हारा बहुत सम्मान करता हूं, तुम भी उस महुआ की तरह मेरे सच्चे मित्र हो। जब भी गांव आऊंगा तो उस महुआ के वृक्ष से मिलना चाहूंगा, देखना चाहूंगा कि अभी मेरी कंचन उसमें दिखती है कि नहीं। आप उसका ख्याल रखना और कहना कि रूद्र अभी आपको याद करता है और अपनी प्रेम व्यथा को सुनाने जरूर आएगा। आज मैं अश्रुपूरित आंखों से रूद्र को उनके उस प्यार के लिए एक महान व्यक्ति के रूप मैं देखता हूं । रूद्र का प्यार किसी रोमियो जूलियट, लैला मजनू या शाही महिवाल से कम न था उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया और अपने जीवन को अपनी प्रेमिका की यादों को समर्पित कर दिया। अंततः सभी मित्रों से मेरा अनुरोध है कि हो सके तो आप सब भी एक वृक्ष महुआ का अवश्य लगाएं अपने गांव जाकर, जहां आप अपनी व्यथा या कोई अन्य प्रेमी या पीड़ित व्यक्ति अपनी व्यथा उस वृक्ष के नीचे बैठकर उसे सुना सके, क्योंकि अब हमारा समाज वह नहीं रहा जिसे हम अपनी व्यथा सुना सकेंगे। 
आपका अपना अजीत मिश्र।
ग्राम : धनुहां पोस्ट : गौरा 
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
लखनऊ हाईकोर्ट में वकील
मित्रों आपको मेरी कहानी कैसी लगी जरूर कमेंट करिएगा।

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