ध्रुव पद अथवा ध्रुपद के संस्थापक और प्रोत्साहन देने वाले ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर थे। ऐसे समय पर जब पूरा हिंदू समाज मुस्लिम आक्रांताओंं, लुटेरों से भयभीत था। हिंदू धर्म संकट में पड़ा था। हिंदुओं का इस्लामीकरण किया जा रहा था। ऐसे में भारत के कवि, साहित्य कारों ने भगवान राम और कृष्ण का आवलंबन लिया। ऐसे समय में जब विश्व में रावण और कंस तथा राक्षस आतंक मचाए थे। अयोध्या में राम और गोकुल मथुरा में श्री कृष्ण ने जन्म लिया था। इन दोनों ने राक्षसों का अंत कर दिया। कवियों ने इनकी भक्ति में रचनाएं लिखीं और हिन्दू समाज को बताया की घबराने की जरूरत नहीं है पूर्व काल भी ऐसा संकट हिंदू धर्म में आया था और भगवान ने स्वयं अवतार लेकर हिंदू धर्म की रक्षा की है। हम सब राम और कृष्ण की आराधना करें तो वे जरूर इस संकट से में अवतार लेंगे।
कहते हैं राजा मान सिंह तोमर ने ऐसे समय में अपने दरबार में संगीतकारों गीतकारों को रखा और उन्हें प्रोत्साहन दिया। भगवान कृष्ण की भक्ति में जो पद गीत रचना की जा रही थी उसे विष्णु पद और ध्रुव पद का नाम दिया। उन्होंने अपनी गूजरी रानी मृगनयनी के लिए ग्वालियर के किले में महल बनवाया यहां पर बैजू बावरा जैसे कलाकार ,संगीत कार आते थे।
आचार्य स्वामी हरिदास भी ग्वालियर राज दरबार में आते थे और सम्मान पाते थे। और यहीं से ध्रुव पद, विष्णु पद की रचना की नींव पड़ी जो आगे चलकर ध्रुपद के नाम से मशहूर हुई।
स्वामी हरिदास में वृंदावन के घने जंगल में निधिवन को खोज निकाला और वही निवास करने लगे। वह भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहते ध्रुपद की रचना करते थे और गा गा कर कृष्ण को रिझाते। वैद्यनाथ या बैजू बावरा और तान्या यानी तानसेन उन्हीं की देखरेख में ध्रूपद गाना सीखा। बैजू बावरा ने तो आगे चलकर ध्रुपद, धमार में अनेक प्रयोग किए और आज बैजू बावरा को ध्रुपद धमार का जनक कहा जाता है।
दिल्ली में जिस समय सिकंदर लोदी का निरंकुश राज्य था। सिकंदर लोदी हिंदू और हिंदू धर्म को नेस्तनाबूद करने के लिए उतावला था उसी समय राजा मानसिंह तोमर ने कृष्ण भक्त कवियों को प्रोत्साहित किया। सन 14 24 में डूंगर सिंह तोमर ने ग्वालियर में अपना वर्चस्व बना लिया और वही से ग्वालियर तोमर खानदान का हो गया। डूंगर सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राजा कीर्ति सिंह उर्फ कर्ण सिंह ग्वालियर के सिंहासन पर बैठे। सन 1455 में ग्वालियर के राजा कर्ण सिंह थे उसी समय बहलोल लोदी (1451_ 1488) ने जौनपुर के शासक हुसैन अहमद शर्की के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। ग्वालियर के तत्कालीन राजा कीर्त सिंह उर्फ कर्ण सिंह ने पर्याप्त मात्रा में धन भिजवा कर हुसेन अहमद शर्की की मदद की थी। उसी समय से लोदी और तोमर राजवंशों में मतभेद शुरू हो गए थे। सन 14 85 में कीर्ति सिंह के देहावसान के बाद राजा मानसिंह तोमर ग्वालियर की गद्दी पर बैठे और सबसे ज्यादा शक्तिशाली राजा सिद्ध हुए। बहलोल लोदी की मौत के बाद उनका बेटा सिकंदर लोदी दिल्ली के तख्त पर बैठा । सिकंदर लोदी एक क्रूर सुल्तान था। उसने मथुरा ,भरतपुर ,संभल आदि पर आक्रमण कर लूट की और मंदिर तोड़ डाले। पूरे भारत में उसका आतंक छा गया।
सन 1500 में राजा मानसिंह तोमर ने सिकंदर लोदी के पास अपना एक दूत निहाल सिंह भेजा और ग्वालियर राज्य और दिल्ली में सैन्य समझौता करने का सुझाव दिया। समझौते की बात बिगड़ गई और सिकंदर लोदी और राजा मानसिंह में शत्रुता प्रारंभ हो गई। राजा मानसिंह तोमर को सबक सिखाने के लिए सिकंदर लोदी ने अपनी सेना ग्वालियर को सबक सिखाने के लिए भेजी। उस समय राजस्थान के धौलपुर के राजा माणिक देव ने मानसिंह तोमर का साथ दिया तो सिकंदर लोदी ने धौलपुर को ही घेर लिया। राजा माणिक देव जान बचाकर ग्वालियर भागा। सिकंदर लोदी ने धौलपुर और उसके आसपास खूब लूट की और निर्दोष हिंदुओं को निर्दयता से मार डाला। बाद में राजा मानसिंह तोमर के पुत्र विक्रमादित्य सिंह ने सिकंदर लोदी से संधि कर ली और इस तरह ग्वालियर पर अाई विपत्ति टल गई। सन 1505 में सिकंदर लोदी ने मंद्रेल पर आक्रमण किया और करौली तक लूटपाट मचाई। सिकंदर लोदी ने हिंदुओं में भय व्याप्त करने के लिए जमकर नरसंहार किया और इस्लाम कबूल करवाया।
सिकंदर लोदी के शासन से हताश निराश हिंदुओं को मानसिंह तोमर ने सहारा दिया। करीब 30 साल के अपने शासन में मानसिंह तोमर ने ना सिर्फ हिंदू राजाओं को आश्रय दिया उन्होंने कवियों साहित्यकारों संगीतकारों और संतों को सम्मान प्रोत्साहन दिया।
इसी बीच राजा मानसिंह तोमर ने एक गूजरी युवती की वीरता और उसके गायन से प्रभावित होकर उससे शादी की। । जब राजा मानसिंह ने मृगनैनी से यह पूछा कि इतनी वीरता और इतना मीठा तुम कैसे गाती हो तो उसने बताया कि वह अपने गांव की राय नदी के पानी पीती है। नदी के पानी पीने के कारण ही उसमें यह शक्ति आई है। गूजरी युवती ने इसी शर्त पर राजा मानसिंह से शादी की कि वह उसके पीने के लिए उसके गांव की राय नदी का पानी ग्वालियर के महल में रोज मंगवाएगा और राजा मानसिंह तोमर ने उस गांव से ग्वालियर के महल तक एक नहर ही बनवा दी। वह युद्ध के समय भी राजा मानसिंह के साथ रहती थी और रोज गीत संगीत की सभाएं होती थीं।
उन्हीं दिनों हरिदास के अलावा बैजू बावरा ग्वालियर के दरबार में आया और उसने मानसिंह तोमर के साथ मिलकर ध्रुव पद और विष्णु पदों की रचना की। जो बाद में ध्रुपद कहलाए। बैजू बावरा, मानसिंह तोमर और मृग नयनी ने मिल कर ग्वालियर में संगीत पीठ की स्थापना की और भारतीय संगीत जन-जन तक पहुंचाया।
यजुर्वेदी सुलोचना और आचार्य बृहस्पति ने लिखा है कि बैजू बावरा मानसिंह तोमर और मृगनयनी के संरक्षण में ध्रुपद गायन की ऐसी परंपरा चल निकली की उसने बाद में ब्रज में सूरदास और अवध में तुलसीदास तक को प्रभावित किया।
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है
_पार्वती पाट पट डोर हर गुन मनि।
मंगल हार रचेऊ कवि मारी मृग लोचनि।
मृग नयनी विधु बदन रचे ऊ कि मंगल हार सो।
और धरहू जुवती जन बिलोकत लोक सोना सार सो।।
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तुलसीदास ने गीतावली में भी मृग नयनी का उल्लेख अपने पदों में किया है।
इतिहास विद कृष्ण दत्त बाजपेई ने लिखा है सोलहवीं शताब्दी में वृंदावन में कुछ नहीं था यहां पर जंगली जानवर रहते थे स्वामी हरिदास ने सर्वप्रथम सन 1505 में वृंदावन पहुंचकर स्वामी आसुधीर से दीक्षा ली और यही अपनी कुटिया बनाई। बंगाल से आए चैतन्य महाप्रभु दूसरे ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने वृंदावन को पहचान दिलाई चैतन्य महाप्रभु सन 1514 में ब्रज मंडल में आए थे।
स्वामी हरिदास के कारण ही बाद में वृंदावन संगीत पीठ के रूप में स्थापित हुआ। जो ग्वालियर संगीत पीठ के बाद स्थापित हो गया । बैजू बावरा से शिक्षा लेकर उनके शिष्य बख्श ने अपनी संगीत शैली से उत्तर भारत को मोहित किया किंतु स्वामी हरिदास ने उसी शैली में ध्रुव पद अथवा ध्रुपद को अमर कर दिया।
संगीत के क्षेत्र में ग्वालियर से ज्यादा बड़ा काम स्वामी हरिदास ने किया। स्वामी हरिदास ने ना सिर्फ वृंदावन को संगीत पीठ बनाया बल्कि वृंदावन को एक तीर्थ का रूप दे दिया। उसी समय वल्लभाचार्य वृंदावन आकर पूरे ब्रज मंडल को कृष्ण भक्ति मय कर दिया ध्रुपद को अपने अष्टछाप कवियों के माध्यम से अमर कर दिया।
शिवचरण चौहान
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