जरा फ्यूज़ उड़ाओ, चुनावी मौसम है
बी. एल. आच्छा
चुनाव तो लोकतंत्र का फगुनिया राग है ।राग- रंग भी पक्ष- विपक्ष के लिए उलटकर सुलटे और सुलटकर उल्टे। विरोधियों के लिए परस्पर आंधी ला दे, मगर चद्दर उड़ें तो अपनी पार्टी की संपत्ति बन जाएं। विपक्ष की आवाज ऐसी बुलंद कि उजालों पर घोर अंधेरा न बरपा पाएं तो गहरा भुरभुरा तो कर ही डालें। सत्ता में हों, तो घने अंधेरों को चंपई दिखा दें। मुफ्तिया बरसातों मे मुंहबाजी से इतना मजबूर कर दें कि वोटर भी जत्थों में गाने लगे -"आसमां ने खुश होकर रंग बिखेरे हैं।"
अब कोई बिजली मुफ्त देकर दूजों पर बिजलियां गिराएगा तो अगला उनका फ्यूज उड़ाएगा कि नहीं? कुछ नई पेशकश से इन बिजलियों की लेजर काट करेगा कि नहीं? मुफ्तियाक्रूज के वोट- तंत्र के मनोविज्ञान को जितना भुनाने की कोशिश ,तो उधर उतनी भीतर- भीतर में राहें रोकने के लिए फ्यूज- तंत्र की व्यूह- रचना। तभी अंदरूनी दांव- पेंच एक दूजे के लिए यही गाते हैं-" जरा फ्यूज उड़ाओ, चुनावी मौसम है ।"अपने गठबंधन के लिए किसी और गठबंधन से एक तार खींच लिया या अपने तार को छुआ दिया ,तो डीपी ही उड़ जाती है धमाके के साथ। एक सौगात से बड़ी सौगात का एजेंडा रच दिया तो किए कराए की बिजली गुल। जमाना चला गया, जब योजनाओं के एजेंडे ही वोटरों की निगाह होती थी। बड़े-बड़े बांध। राजमार्ग ।बड़े-बड़े कारखाने ।पिछड़े- आदिवासी अंचलों को जोड़ती रेलें-सड़कें। हर गांव में तालाब ।मगर ये सब हों, तब भी मुफ्तिया पेंच ही सुर्खियों में इतराते हैं। डायरेक्ट टू होम की तरह डायरेक्ट टू वोटर। मामा जी ,काका जी, बहन जी, भैया जी ने किस एंगल से किसको क्या देने का संकल्प पत्र रचा है?
चुनावी मौसम में लगता है कि आम के बगीचे से आमरस सीधे ऑनलाइन टपकाने की स्वप्न नीति कारगर हो रही है ।बड़े हापुसों -दशहरियों का अपना गणित होता होगा।पर देशी जनता की आम- चूसू संतुष्टि के गणित को खंगालने की होड़। कुछ टपकाओ और ज्यादा हथियाओ। मगर सिद्धांतों के कवच में। सत्ता- मोह के हिंडोलों के मुफ्तिया राग धक्का देते हैं, लौटते हुए झूले में आसंदी पा जाने के गणित में।
पर वोट- बटोरू एजेंडा के राग- रंग का यह जितना पॉजिटिव नजरिया है, उतने ही दूसरी ओर की व्यूह- रचना के नेगेटिव उतापे भी हैं। जितने लाभवादी रौशन- मार्ग , उतने ही फ्यूज उड़ाऊ बत्ती-गुल के जश्न- राग। आश्वासनों की अमराई के जितने संकल्प, उतने ही बबूलिया कांटों की सुरंग रचना का कूट- शिल्प। सबकी अपनी अपनी गुगली। सभी पॉकेटों पर अपने-अपने दांव। स्ट्रोक पर मास्टर- स्ट्रोक। कभी-कभी औरों के फ्यूज उड़ाते- उड़ाते कुछ जबानों में ऐसा करंट दौड़ जाता है कि वे ही बोल-कुबोल सारे चुनाव के खाद- बीज बनकर पार्टी को ही उलझा देते हैं।
कभी-कभी फेंटेसीनुमा ऐसा बबूल दिख जाता है, जिसमें जितने कांटे हैं, उतने ही फल और खिले- खिले गुलमोहर के फूल। कांटे भीतर में इकदूजे को चुभाते रहें। पराए खेत की पीली सरसों कांटो की व्यूह रचना से अपनी बन जाए। गठजोड़न - गठतोड़न के जुगाड़ू- बिगाड़ू खेलों में खेला हो जाए । गुप्त पेंच और उखाड़ चालें।मगर चुनावी मौसम में अदृश्य बबूल में फलों की बहार और गुलमोहर के फूलों से लुभाती चुनावी खुश-फेंक। इस कौशल से दुनिया भर के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स हैरत में पड़ जाते हैं। गिरती हुई जीडीपी, महकते हुए आश्वासन ।समाजशास्त्र की सारी रिसर्च टूटते गठबंधनों के मर्सिया और विरोधियों के साथ रॉकनरोल करते पाणिग्रहण पर भौंचक रह जाते हैं। मगर रौशनी और फ्यूज का गणित। बिगड़ते बजट और मुफ्तवाद के एजेंडे को न अर्थशास्त्र समझ पाता है न समाजशास्त्र।
©® बी. एल. आच्छा
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