मैं तुम्हें गाता रहूँगा : एक अंतर्यात्रा - पूजा अग्निहोत्री

Dr. Mulla Adam Ali
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main tumhe gaata rahunga

"मैं तुम्हें गाता रहूँगा..... एक अंतर्यात्रा"


                                                       पूजा अग्निहोत्री 

आलोकित प्रदीप से, बिंब गीत - ऋषि समग्र।
पढ़ चक्षु भये नीरमय, अरु हिरदय अति व्यग्र।
अरु हिरदय अति व्यग्र, कहुँ कछु खो सो जावै।
नयन सों नीर झरै, कोर अधरन मुसकावै।
पढ़ पूजा योग - वियोग, आंदोलित भव चित।
प्रभाकीट जो आगमन, विपिन होय आलोकित।

यह भाव इस पुस्तक 'मैं तुम्हें गाता रहूँगा' को पढ़ने से मन में बरबस ही आ गये जिसे डॉ. प्रदीप जैन जी ने गीतऋषि 'आदरणीय किशन सरोज जी' के गीतों को व्याख्या एवं विमर्श के साथ सम्पादित किया है। यह गीतऋषि किशन सरोज जी के गीतों के विशुद्ध विमर्श पर आधारित पुस्तक है।

इस बात में लेशमात्र भी मिथ्या नहीं कि जब तक इस पुस्तक को पढ़ा, हृदय और आत्मा एक दूसरे ही लोक में विचरण कर रही थी। जहाँ किशन सरोज जी के मर्मस्पर्शी नवगीत थे, साथ में सुधी समीक्षक एवं अन्य विद्वज्जनों के विचार और व्याख्या थी। संयोग और वियोग शृंगार से सज्जित इस काव्य-लोक से बाहर आने में काफी समय लगा क्योंकि गीतों की मधुरता और व्याख्या की ग्राह्मता बारंबार आकर्षित कर रही थी। 

सुधी समीक्षक एवं वयोवृद्ध साहित्यकार बन्धु कुशावर्ती जी के शब्दों में, "जनमानस का कण्ठहार रहा छायावादोत्तर हिन्दी गीतोत्कर्ष का मूल्यांकन अब परवान चढ़ने लगा है।" इस कथन से सिद्ध होता है कि, हिन्दी-गीतकारों एवं नवगीतकारों ने छायावादोत्तर हिन्दी कविता को जनमानस में पहुँचाया, तब भी छायावाद के बाद के हिन्दी काव्य को छन्द और मंचीय कविता का हिस्सा बताते हुए हमेशा हाशिये पर ही रखा।

डॉक्टर प्रीति कौशिक द्वारा लिखित संपादकीय का पहला पैरा सीधे हृदय में उतरता प्रतीत होता है। "सा हितेन च साहित्य" कितनी प्यारी बात कही है, जो सबका हित चाहे, जिससे सबका हित हो वही साहित्य है। 

यह पुस्तक स्वयं अपने आप में गहन समीक्षा है। डॉ. प्रदीप जैन जी ने इस समीक्षकीय प्रयास में 'किशन सरोज' जी की रचनाओं का नख से शिख तक विवेचन किया है जो एक श्रमसाध्य एवं धैर्ययुक्त काम है। इस पुस्तक के अध्ययन से पाठक सहज ही रीतिकालीन एवं छायावादी युग से परिचित हो जाता है। 

जब इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो सारे गीत हृदय को छू रहे थे, पर कहीं कुछ था जिससे वह जुड़ाव महसूस नहीं हो रहा था जो होना चाहिये। फिर इसको समझने के लिये गद्य वाले अंश को पढ़ना शुरू किया। गद्य वाले हिस्से को पढ़कर ऐसा लगा जैसे आदरणीय किशन सरोज जी कोई पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति हैं जिनके बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के जीवन से भली-भाँति परिचित हूँ। उसके बाद पुनः काव्य को पढ़ना शुरू किया। फिर उसके बाद जो अनुभव हुआ वह अद्भुत् था। हर गीत की गहराई को और प्रयुक्त बिंब को बहुत अच्छे से समझा।

जीवन की निस्सारता को समझाते हुये कहा गया है कि, "ऊधौ कहवे को बस बातें रह जायेंगी।" उन्होंने अपनी आत्मकथा के एक अंश में लिखा है कि,"गीत विधा को अपमानित करवाने में सबसे आगे संस्कारविहीन वे गीतकार ही रहे जिनमें अनुभूति की तीव्रता, गीतात्मक ऋजुता, काव्यगत सामान्य व्याकरण ज्ञान एवं शिल्प के रूप को निखारने की क्षमता का सर्वाधिक अभाव था।" 

एक और कटु सत्य बेबाकी से लिखा गया है कि, आज-कल के कवि सम्मेलनों में कवि ही वक्ता और कवि ही श्रोता होते हैं। भले ही यह बात आजकल के कवियों को सह्य हो अथवा न हो, पर सच तो है।

मुझे पुस्तक के अध्ययन से यही प्रतीत हुआ कि जैसे प्रदीप जैन जी ने गीतों के पुनरुद्धार का बीड़ा उठा रखा हो। किशन सरोज जी का गीतलोक लौकिक-अलौकिक प्रेम का अनूठा चित्रण है जिसमें उन्होंने अपने गीतों का अलंकरण विभिन्न प्रकार के बिंब प्रयोग से किया है जिसमें सात्त्विक बिंब, ध्वन्यात्मक बिंब, संस्मरण बिंब, प्राकृतिक बिंब प्रमुख हैं। इन बिंब के अतिरिक्त भी विविध बिंब का प्रयोग किया गया है। जिसकी सांगोपांग व्याख्या करके प्रदीप जैन जी ने जनसाधारण के लिये ग्राह्य बनाया है।

किशन सरोज जी ने अपने गीतों में प्रकृति और प्राकृतिक दृश्यों का मानवीकरण करके मानव मन की संवेदनाओं को जिस खूबसूरती से कागज पर उतारा है वह और कहाँ मिलेगा। जैसे- 

"छोटी से बड़ी हुई तरुओं की छायाएँ
धुँधलाईं सूरज के माथे की रेखाएँ
मत बाँधो आँचल में फूल, चलो लौट चलें
वह देखो कोहरे में चन्दन-वन डूब गया"

एक और-
नैन में चुभ-चुभ गया हल्दी लगा तन
वक्ष में स्वर बिंध गये शहनाइयों के

और इसको स्पष्ट करते हुये आदरणीय जैन जी ने कहा है कि-

प्रेम का उत्कर्ष जब मिलन से न होकर वियोग से हो तो ऐसी वंचना वैराग्य की ओर ही ले जाती है। शहनाई के स्वर भी जब सुहाते न हों, तो इससे बड़ी वंचना क्या हो सकती है।

एक और उदाहरण देखिये,

"आज भी निद्रा-नदी के पार जब-तब
गूँज उठती एक वंशी की करुण धुन
बन्द पलकों पर उभरता वन-महोत्सव
प्राण सुनते घुँघरुओं की मन्द रुनझुन
पर तभी अभिशप्त कानों में अचानक
तेज मादल सा धमकता है तुम्हारा नाम"

और एक नजर इन पंक्तियों की विवेचना पर-

मादल, एक आदिवासी वाद्य यन्त्र होता है, जिसका स्वर अत्यंत कर्कश होता है। ऐसे वाद्य यन्त्र के स्वर को शब्दों में प्रतिध्वनित करके जो बिम्ब उभरता है वह अप्रतिम घुँघरुओं की रुनझुन के बीच अचानक मादल का कर्कश स्वर जैसे खीर में नमक डाल देता है।"

"संपूर्ण समर्पण का पर्याय है प्रेम, प्रेम में एक दूसरे पर अपना सर्वस्व निछावर कर देने की मानो होड़ सी लगी होती है। जिस संबंध में ऐसा भाव नहीं होता उसे स्वार्थ, व्यापार आदि कुछ भी कह लें, प्यार कभी नहीं कह सकते।"
इन पंक्तियों को सिर्फ वही समझ सकता है जिसने सच्चा प्रेम किया हो।

मुझे लगता है जिन भावों को हृदय से महसूस करके गीतऋषि किशन सरोज जी ने गीतों का स्वरूप गढ़ा है उससे भी अधिक उन भावों को समझने का प्रयास करते हुये प्रदीप जी ने उनकी व्याख्या की है जो हम जैसे मतिमन्दों हेतु, गीतों के मर्म तक पहुँचने के लिये बहुत सहायक है। 

 मैंने कई समवयस्क लोगों से इन गीतों में प्रयुक्त कुछ लोककथाओं के बारे में पूछा पर उन्होंने किसी भी जानकारी से अनभिज्ञता जताई। ऐसे में मैं अपने निजी अनुभव से कह सकती हूँ कि अपने गीतों में किशन सरोज जी ने जिन लोककथाओं एवं दन्तकथाओं का उपयोग किया है वे अब लुप्तप्राय हो चुकी थीं जिन्हें कि प्रदीप जी ने नवजीवन प्रदान किया है।

 प्रकृति नटी ने मानव को ढेरों उपहार दिए हैं लेकिन उन सभी उपहारों में मन सर्वोपरि है। हालाँकि मन पशु पक्षियों के पास भी होता है, लेकिन वह हमारी तरह स्पष्ट तरीके से सुख, दुख प्रेम, घृणा, क्रोध आदि मानवीय अनुभूतियों एवं संवेदनाओं को प्रकट नहीं कर सकते। अर्थात् अपनी भावनाओं को भली-भाँति व्यक्त करने का वरदान प्रकृति द्वारा सिर्फ मानव को प्राप्त है। 

 प्रकृति द्वारा इतने अनमोल उपहार को पाकर भी मनुष्य सिर्फ इनमें उलझ कर नहीं रह सकता। जीवनयापन के लिए मनुष्य को आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ होना आवश्यक है। कितना भी विशुद्ध प्रकृति-प्रेमी व्यक्ति हो, नियति उसे सुखद स्वप्निल संसार से घसीट कर यथार्थ के कठोर धरातल पर ला पटकती है। चाहे या अनचाहे उसे आसन्न परिस्थितियों से दो-चार होना ही पड़ता है। इस भाव को किशन सरोज द्वारा रचित निम्न पंक्तियों द्वारा समझा जा सकता है-

 "ज्यों कमल गिर जाए तपती रेत पर यों
तन जलाती है अभावों की तपस्या
छाप हर पल पर लगी अगली घड़ी की 
आज के माथे लिखी कल की समस्या"

कुछ और पंक्तियाँ देखिये-

 "तारे अब लगते हैं 
चावल के दानों से 
अनचाहे आसपास बढ़ रहा उधार 
पहली तिथि पन्द्रह दिन 
पहले आ जाए तो 
पन्द्रह दिन आयु घटाने को तैयार 
फबता है साबुन से उजलाया वेश 
बिसरे संदेश, याद केवल आदेश"

 गीतऋषि किशन सरोज जी के गीतों की भाषा एवं प्रदीप जैन जी द्वारा उनकी जो व्याख्या की गई है, उसकी भाषा इतनी मिलती-जुलती है कि कई बार भ्रम हो जाता है कि गीत एवं उनकी व्याख्या एक ही लेखक द्वारा लिखी गई हो। प्रदीप जी की भाषा विशिष्ट एवं प्रांजल होने के साथ-साथ स्पष्ट एवं बोधगम्य भी है।

चूँकि यह पूरी पुस्तक प्रेम एवं प्रेमगीत पर आधारित है इसलिये पूरी प्रेम के रस से सराबोर है। गीतऋषि किशन सरोज जी के गीतों में प्रेम के हर रूप के दर्शन होंगे, चाहे वह संयोग हो अथवा वियोग। 

अपनी बात में प्रदीप जी ने प्रेम के परिपक्व रूप को चित्रित करते हुए लिखा है कि-

"परिपक्व प्रेम किसी प्रकार की विघ्न बाधा अथवा परिस्थिति में लेश मात्र भी न घटता है, न ही परिवर्तित होता है।" कहने का आशय मात्र यही है कि प्रेम का परिपक्व भाव स्थाई होता है। और मात्र स्थाई ही नहीं वरन जैसे-जैसे समय व्यतीत होता है वैसे-वैसे अपने अभीष्ट के प्रति उसका अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। फिर प्रेम की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त होता है जिसे हम 'प्रणय' कहते हैं। अर्थात् अपने अभीष्ट के प्रति समस्त सीमाओं से मुक्त होकर अनुराग भाव रखने, प्रेम करने को ही भक्ति कहा गया है। 

 "अथातो भक्तिजिज्ञासा 
   सा परानुरक्तिरीश्वरे"

 अर्थात् ईश्वर में पूरी अनुरक्ति व पूर्ण अनन्य तल्लीनता ही भक्ति है संभवत इसी को शाश्वत प्रेम कहते हैं। 

 प्रेम के बारे में एक और बहुत अच्छी बात यह कही है कि, प्रेम का आरंभ स्थूल रूप से ही होता है। अर्थात् अलौकिक प्रेम की जो शुरुआत होती है, वह किसी सामान्य लौकिक प्रेम की भाँति ही होती है। लेकिन कुछ प्रेमी अपने प्रेम के असफल होने पर अपने प्रेम को देह के बंधनों से मुक्त करके, अपने प्रिय को अपने मनमंदिर में स्थापित कर लेते हैं। इस प्रकार उन्हें प्रेमी के स्थूल रूप की आवश्यकता महसूस नहीं होती और वे अपने प्रेम के प्रेम-पाश में बँधे हुए एक-एक पायदान चढ़ते हुए प्रेम के सर्वोच्च शिखर तक पहुँच जाते हैं, जहाँ देह का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।


किशन सरोज द्वारा लिखे गए प्रेम गीतों का अध्ययन करके श्री प्रदीप जैन जी लिखते हैं "किशन सरोज के गीतों में प्रेम के जिस उदात्त शाश्वत शुद्ध एवं सात्विक स्वरूप का निरूपण प्राप्त होता है उसके कारण ही सहृदय मन पुनः पुनः इसमें गहरे और गहरे डूबने के लिए मचलता रहता है, और यही उन गीतों को परम वैशिष्ट्य प्रदान करता है।"

 और यह बात पुस्तक पढ़ते हुए मैंने भी महसूस की है, पता नहीं कितने बार पृष्ठों को पलट-पलट पढ़ा, साथ में यन्त्रचालित सी रोई और मुस्कुराई भी। 

 किशन सरोज जी ने प्रेम के हर हर रूप पर लिखा है चाहे प्रेमी प्रेमिका का प्रेम हो प्रकृति प्रेम हो या फिर देश प्रेम। यहाँ एक देश प्रेम की रचना 'पड़ोसी दुश्मनों के नाम' का एक अंश उद्घृत करना चाहूँगी, जिसे पढ़कर किसी भी भारतीय के मन में गर्व एवं देशभक्ति की भावना प्रबल हो उठेगी।

"निवेदन है सभी से, अब हमारे
कपोतों पर न कोई बाज छोड़े
भरे बारूद तोपों के दहाने
न अब कोई हमारी ओर मोड़े

न हम अन्याय के आगे झुके हैं
पड़ा जब-जब समय, दिखला चुके हैं,
तुम्हारे व्योमचुम्बी 'सैबरों' से
हमारे 'नेट' का भुजपाश, कम ऊँचा नहीं है

हमें अवसर मिला, हमने सराहा
तुम्हारे 'फैज' को' 'मेंहदी हसन' को
मगर पत्थर दिये तुमने हमारे
'कपिल-गावस्करों' के बाँकपन को

समीक्षा खेल की हो या कि बम की
सहन हमको किसी की भी न धमकी
तुम्हारी 'ट्रेल' हो या मात्र 'ब्लफ' हो
हमारे हाथ में भी ताश, कम ऊँचा नहीं है"

 प्रस्तुत पुस्तक में गीतों का भाव पक्ष एवं शिल्प अद्भुत् है। इस पुस्तक को पढ़ने से एक अन्य फायदा यह हुआ कि आदरणीय किशन सरोज जी के अतिरिक्त अन्य रचनाकारों का परिचय भी प्राप्त हुआ जिन्हें पढ़ना अपने आप में बहुत अच्छा अनुभव है।

अनुगूँजों के स्वर / आर्य भूषण गर्ग 
अनुभूति से अभिव्यक्ति / रणधीर प्रसाद गौड़ 'धीर'
अश्रु ढले गीत बने / आचार्य देवेंद्र 'देव'
 आग उगलने लगता चंदन / शारदा पराशर 
 इज्तिराब / संपादक / आलोक यादव 
कब तक मन का दर्द छुपाते / कमल सक्सेना कल्याण काव्य कौमुदी / रणवीर प्रसाद गौड़ 'धीर'
कितनी बातें कहनी है / कृष्णा खंडेलवाल 'कनक'
कुमुद- काव्य कलाधर / ज्ञानस्वरूप कुमुद गायत्रेय / आचार्य देवेंद्र देव 
गीत चले हैं मानसरोवर /ब्रजराज पांडे 
छाया खोजे धूप / अवधेश कुमार सिंह राठौर 
तुम किसी के हो चुके हो / डॉक्टर रंजन विशद निर्झरिणी / डॉ कृष्ण कुमार नाज अंक / संपादक हरिशंकर सक्सेना  
पंख मेरी कल्पना के / दिनेश गोस्वामी 
पंछी गुमसुम पिंजरे में / श्याम निर्मम  
प्रथमा / आशीष भाटिया 
बुनियादों का कर्ज / उदय 'अस्त'
 मदशाला / सत्य प्रकाश सक्सेना 
मन की सतह पर / कृष्ण कुमार नाज 
मेरी ग़ज़ल / आरती कपूर 'वेदना'
मैं थका नहीं / ब्रजराज पांडे 
मैं सुरभि हूँ / डॉक्टर सुरभि प्रकाश 
संवेदना कलश / संपादक ध्रुव प्रकाश उपाध्याय
स्मृतियां ही शेष रह गई / सत्यवती सक्सेना
उपरोक्त लेखकों की पुस्तकों की भूमिका पढ़कर इन सबको पढ़ने की प्रबल उत्कंठा उत्पन्न होती है। 

 पुस्तक में एक विशिष्ट खंड है जिसका नाम है 'परिशिष्ट' इसमें आदरणीय किशन सरोज जी की पुत्री तनिमा जौहरी ने अपने पिताजी के पारिवारिक जीवन पर प्रकाश डाला है। उनके द्वारा लिखे गए लेख में पारिवारिक प्रेम की सुगंध को महसूस किया जा सकता है। साथ ही सुश्री मीरा शलभ जी द्वारा किशन सरोज जी का लिया गया साक्षात्कार है जिसमें कि हम किशन सरोज जी के व्यक्तित्व से भलीभाँति परिचित हो सकते हैं। उनके द्वारा जो किशन सरोज जी की शारीरिक संरचना का वर्णन किया गया है, पढ़कर पाठक अपने आप ही जो खाका तैयार करता है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह सामने ही खड़े हों। 

 मधुर नागवान जी का आलेख "किशन सरोज के गीतों में बिंब विधान" न सिर्फ पढ़ने में उनके नाम के अनुसार मधुर है बल्कि उससे बहुत कुछ सीखने को भी मिलेगा।

 इस पुस्तक में शामिल समस्त विद्वज्जन अपने-अपने क्षेत्र में पारंगत हैं। यह पुस्तक भाव, शिल्प, विचार एवं अन्य जानकारियों का सागर है।

आदरणीय प्रदीप जैन जी का साधुवाद जिन्होंने बिखरे हुए माणिकों को एक कुशल शिल्पी की भाँति एक सूत्र में पिरो कर अत्यंत उपयोगी एवं रुचिकर पुस्तक का रूप प्रदान किया।

©® Pooja Agnihotry

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