अभागिनी (कविता)
श्रीलेखा के. एन
मेरी माँ रो रही थी
मेरे भविष्य के बारे में सोचकर !
समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ में
छपी थी एक खबर
माता-पिता और दो बच्चों से युक्त
एक अणु परिवार की त्रासदी |
संयुक्त न होने पर भी
खुशियों से चमक रहे थे सब मुख
प्रेम था,वात्सल्य था और
अपनापन था सबके बीच |
पर..................
अचानक एक दिन मार डाला-
पुत्र ने अपने पिता को |
संपत्ति चाहिए थी उसे,
शराब पीना था,मस्त रहना था |
पिता ने दे दिया था उसे
सच्ची ज़िंदगी का उपदेश,
यही मात्र एक गलती थी
उस बेचारे पिता की |
माँ ने पाला - पोसा और
बड़ा किया,अपने बेटे को-
विदेश भेजा था,पढ़ाई के लिए |
बेटे के भविष्य की उम्मीदें
दे रही थी उसे जीने का सुख
पर...............
अब उस अभागिनी
सो रही है मिट्ठी में |
न अब वह चिन्तित है
या,न दु:खी |
पुत्र ने दे दिया था उसे
मृत्यु का वरदान |
नन्हीं सी,मासूम सी बहन को भी
वह साथ लेकर शहर चला
अब किसी फ्लाट के कमरों में
उसकी आवाज़ें गूँज रही हैं |
मासूमियत को लुटानेवाले
उन बंध कमरों से
बाहर जा रहे थे,कोई आ रहे थे |
सबके चेहरों पर खुशियाँ थीं ,
उसे भोगने की |
वह चिल्ला रही थी,
आवाज़ दे रही थी |
दोहरा रही थी एक ही वाक्य
“ अंकिल ने छू लिया था मुझे
यहीं,वहीं,सबकहीं | ”
क्या हुआ था उसे
न वह सच बता सकती थी ।
न और कोई समझ सकती थी |
फ्लाट के दूसरे कमरे में भाई ,
पैसा इकट्ठा कर रहा था,शराब के लिए |
सौ से ज़्यादा पैसे के बीच
वह जी रहा था बहन को बेचकर |
सबेरे इस समाचार ने
गंवा लिया था मेरी नींद को,
क्योंकि........
मेरी माँ रो रही थी ,
आँखें पोंछ रही थी |
इस न्यूज़ को पढ़कर
एक लड़की की माँ होने के नाते ,
वह मन ही मन
अपने आपको कोस रही थी |
श्रीलेखा के. एन
शोध छात्रा, कोच्चिन विश्वविद्यालय, केरल |