‘पार्च्ड’ (फिल्म समीक्षा)
निर्देशिका - लीना यादव
भाषा - हिन्दी
वर्ष - 2016
कलाकार – तनिष्ठा चटर्जी, सुरवीन चावला, राधिका आप्टे, आदिल हुसैन, लहर खान
आजकल सिनेमा जगत में नित नये प्रयोग हो रहे है। कहा जा सकता है कि कला के भूखे व कला के पारखी दोनों ही तबकों के लिये इस काल में बहुत उम्मीदे है। कुछ ऐसे विषयों व मुद्दों को उठाया व दिखाया जा रहा है। जिनकी चर्चा भी पहले करना मुश्किल था। विशेषकर सेक्स व स्त्री पुरुष संबंधों पर समाज चुप्पी साध लेता था और जो फिल्मों में भी न के बराबर था।
हालांकि दबी छुपी जुबान में हर कोई इसके बारे में बात करता है किन्तु यदि खुलकर किसी ने इस बारे में बात करनी चाही तो वो समाज की नज़रो में बेहया, बेशर्म और निर्लज्ज की श्रेणी में आ जाता है I आज का समय परिवर्तन का समय है I नारी के प्रति समाज में जो वर्जनाये थी वे टूटने लगी है और अब तो वह समय आ गया है कि नारी खुद अपने पैरों की बेड़ियाँ तोड़ने लगी हैI इस फिल्म में भी जो नारियां है वे इस प्रकार के कुंठित समाज की कुछ ताथाकथित कायदे–कानून तोड़ती नज़र आती हैI गांव की चार महिलाओं के इर्द-गिर्द इस फिल्म की कहानी बुनी गयी है जो समाज की बनायीं मान्यताओं, परमपराओं और रिवाजों की जकडन में अपनी ज़िन्दगी का बसर करती हैI लेकिन बाद मे बताया गया है कि किस प्रकार हमेशा दूसरों के लिए अपना जीवन झोंक देने वाली, कभी अगर थोडा सा अपने लिए जीना चाहे तो समाज के कुछ ठेकेदारों की भोहे बड़ी तन-सी जाती है।
इस फिल्म की महिला किरदार आर्थिक रूप से सशक्त भी बताई गयी है फिर भी घर में उनकी इज्ज़त न के बराबर है I कोई अपने पति तथा कोई अपने पुत्र के कारण दुखी है I समाज के नियमो कों न मानते हुए बिजली जो नर्तकी है,रानी ओर लाजो की आपस में गहरी मित्रता है I तीनों नारी पात्रों का जीवन सभी प्रकार की खुशियों से वंचित है फिर भी वे अपने हिस्से की खुशियाँ ढूंढ़ ही लेती है I वे तीनो आपस में मिल बांटकर समस्याओं का अपने तरीके से हल निकाल ही लेती है I इसी सन्दर्भ में जब लाजो बताती है की वह माँ नहीं बन पा रही, जिस कारण समाज व पति की नजरो में उसकी कोई इज्ज़त नहीं है ऐसे समय बिज़ली उसे जो समाधान बताती है,वह शायद हमारा समाज कभी न पचा सके किन्तु उससे एक नंगा सच तो उजागर हो ही जाता है कि पुरुष हमेशा अपनी ना मर्दानगी का ठीकरा भी औरतों पर फोड़ते है I ऐसे में जब सच सामने आता है तो उन्हें वह बर्दाश्त नहीं होता I
इसी प्रकार रानी भरी जवानी में वैधव्य झेल कर बड़ी मुश्किलों से अपने बेटे कों बड़ा करती है I मर्द की कमी उसे उसके जीवन में खटकती रहरी है इसलिए जब उसे किसी पर पुरुष का मोबाइल पर कॉल आता है तो पहले वह हिचकती हुई बात करती है I समय के साथ उसे उस पर पुरुष की बातों में भी अलग ही आनंद मिलाता है I उसे अपनी सहेली लाजो का स्पर्श भी बड़ा सुकून देता है जिसका अर्थ साफ है की उसे भी शारीरिक सुख की लालसा है लेकिन जिसे वह पूरा नहीं कर सकती I यही हमारे समाज की सच्चाई है की एक औरत अपना मन मार कर भी अपने परिवार की खुशियों के लिए जीती है I अपने हिस्सों की खुशियों को स्वाहा कर परिवार का भला करती है I अपनी बहु की ख़ुशी के लिए रानी अपने बेटे कों समझाती रहती है किन्तु जब वह देखती है कि उसका बीटा उसकी बहु में बिलकूल रूचि नहीं ले रहा तो वो एक अनोखा कदम उठाती है I जो इस समाज कों तो कतई स्वीकार्य नहीं होगा I अपनी बहु को अपने हाथों से तैयार कर उसे उसके प्रेमी के साथ भेजती है I वह जानती है कि जिन खुशियों को वह पाने के लिए तरस गयी है उसकी बहु जानकी वह सब खुशिया पाये और वो भी अपने पसंद के साथी के साथ I
नर्तकी बिजली बहुत ही तेज़–तर्रार व मर्दों कों अपनी उँगलियों पर नचाने वाली औरत बताई गयी है I जो गाँव के बाहर लगने वाले मेले में नाच कर मर्दों को रिझाती है और पैसे लेकर उनकी हवस को पूरा करती है I ऐसे ही एक दिन उसकी सहेली रानी का बीटा उसके पास आता है तब वह भौचक्की रह जाती है I उसका किरदार बाकि दोनों किरदारों कों गति देने वाला ज्यादा है I बेबाक होकर जीना और अपने हक़ के लिए लड़ना, इस फिल्म के तीनों मुख्य किरदार इसी संकल्पना पर चलते है I इस फिल्म में पुरुषों के लिए एक कड़ा सन्देश है -‘मर्द बनना छोड़ ,पहले इन्सान बनना सीख I’
जानकी जो रानी की बहु है और उम्र में बहुत छोटी है I वह किसी और को प्रेम करती है और उसी के साथ विवाह भी करना चाहती है किन्तु जब उसकी इच्छानुसार यह नहीं हो पाता तब वह अपने बालो कों छोटा कटवा लेती है ताकि उसकी शादी टूट जाये परंतु यह नहीं हो पाता I बारात लौटते समय जब उसका घूँघट उठ जाता है और सबके सामने उसके कटे हुए बालों की सच्चाई आ जाती है तो रानी का बेटा आग बबूला हो जाता है I वह उसके साथ हर रात बहुत बेरहमी से पेश आता है I रानी देखती है कि जानकी चुप चाप सब सहती रहती है I वह जानकी को भी अपनी सहेलियों से मिलवाती है, खुली हवा में साँस लेने देती है और अंत में मुक्त भी कर देती है I
आज हमारे समाज कई हिस्सों में यही सोच है कि स्त्रियाँ कुछ नहीं कर सकती I वे शारीरिक रूप से कमजोर है ,उन्हें अपने फैसले लेने नहीं आते I इसी सोच कों इस फिल्म में बदलते बताया गया है I अपना वजूद कायम रखते हुए व समाज की थोथी मान्यताओं कों नकारते हुए बताया गया है I आज हमारे समाज में चारों ओर स्त्रियों का यौन -शोषण हो रहा है I उनकी अस्मिता के साथ रोज़ ही खिलवाड़ हो रहा है I अपने ही पति के द्वारा उसका रोज़ बलात्कार हो रहा है ,उसकी रोज पिटाई हो रही है और व्रत –उपवास के नाम पर उसको धर्म भीरु बनाया जा रहा है I यह सब किसी एक समाज में न होकर समाज के लगभग हर तबके में हो रहा है I निर्देशिका ने भोगवादी नज़रिए को बोल्ड अंदाज़ में पेश किया है I इस फिल्म की स्त्रियाँ भी परिस्थितियों की मारी है, खालिस देसी औरते लेकिन सोच एकदम आधुनिक I
आज हिंदी फिल्म उद्योग में जिस प्रकार की फिल्में बन रही हैं उनमे गावों कों इतना प्रभावी ढंग से दिखने वाली फ़िल्मों में पार्च्ड का नाम सर्वोपरी है I आज के गावों में मोबाइल, टीवी तो पहुँच गए लेकिन लोगों की सोच में आधुनिकता अब तक नहीं आ पाई है I गाँव की औरतों के लिए अब भी कुछ नहीं बदला है उनके लिए समाज के वाही बंधन अब भी लागु है जो परंपरा से चलते आ रहे है I पुरुष ने अपनी आजादी के महल में और भी नई खिड़कियाँ जोड़ डी है जो बहुत ही रंगीन है I आधुनिकता का असर उनके चाल-चलन , रहन सहन और जीवन शैली पर पद रहा है किन्तु औरतों को वैसे ही दबा-कुचला कर रखना चाहते है I उनकी भावनाओं को समझे बिना ही उनके लिए फैसलों के फरमान सुना दिए जाते है I इस फिल्म में जब लाजो, बिजली के बताये अपरिचित व्यक्ति के साथ सम्भोग कर के माँ बनती है तो उसकी ख़ुशी उसका मर्द बर्दाश्त नहीं कर पाता और उसको पीट कर अपनी कमजोरी कों बड़ी ही आसानी से बता देता है I इसके विपरीत जिसके साथ वह केवल एक करार के तहत संबंध स्थापित करती है, वही आदमी संबंध स्थापित करने के पहले उसके पैरों में झुककर प्रणाम करता है I यहाँ भी दो तरह के मर्दों का सच उजागर हुआ है I
हर हाल में यह फिल्म नारी सशक्तिकरण कों दर्शाती और उसके साथ न्याय करती नज़र आती है I कहानी के सभी नारी पत्रों ने रुढ़िवादी से आगे बढ़कर अपनी जिंदगी जीने की कोशिश की है I इस फिल्म के माध्यम से निर्देशिका ने कुछ अकतिथ नियमों कों तोडा है जो औरतों पर लादे गए है I जैसे औरतें मर्दों कों इंकार नहीं कर सकती, रात में अकेले घूम नहीं सकती, अपनी मर्जी से किसी से संबंध नहीं रख सकती और सबके सामनें अपनी बात खुले-आम कह नहीं सकती I इन सभी नियमों कों बारी-बारी से बड़ी ही कलात्मकता के साथ जोड़ा गया है और वो भी मजबूर और लाचार माने जाने वाली औरतों के द्वारा I फिल्म की शुरुआत में ही एक द्रश्य बताया गया है जिसमें एक लड़की रो रो कर पंचायत में कहती है की में ससुराल में नहीं जाना चाहती I वह अपनी माँ से अपना दर्द् बाटती है और कहती है कि उसका ससुर उसके साथ जबरदस्ती करता है, पर माँ यह सब सुन कर भी उसका साथ नहीं दे पाती है I यही कटु सच्चाई हमारी भारतीय पारंपरिक सोच की है I चाहे बेटी ससुराल में कितनी भी दुखी हो पर माँ बाप उसे यही सीख देते रहते है की अब वही तुम्हारा घर है I एक बार डोली में जिस घर में गई तो वहाँ से उसे अर्थी पर ही बाहर निकलना चाहिए I इस तरह की सोच कों माता-पिता लड़की के पैदा होते ही उसके मन में डाल देते है जबकि उसके उलट वह बेटे बेटी में यदि समनाता का भाव पैदा करे तो बेटियाँ अपने लिए खुद् लड़ सकती है I माँ, चाहते हुए भी कही बार बेटी की मदद नहीं कर पाती है क्योंकि आखिर उसे भी तो इसी समाज में रहना है I मगर कई बार यह भी देखा गया है की अपनी बेटी के लिये माँ ने समाज से भी दुश्मनी मोल ली है I इस पुरुष प्रधान में महिलाएं अगर चाहे तो अपनी दृढ इच्छा शक्ति से अपनी अपने वजूद का लोहा मनवा सकती है और वह दिखा सकती है की वह अबला नहीं सबला हैI यह फिल्म नारी शक्ति को दिखने में पूरा न्याय करती है I लाजो ने अंत में अपने पुरुष के दोगले-पन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया I रानी ने अपनी बहु को उसका अधिकार व प्रेम देकर एक नयी परिभाषा गढ़ी I अपने बिगडैल बेटे का मोह त्याग कर बहू को उसके बंधन से मुक्त करना अपने आप में एक बहुत क्रन्तिकारी कदम है I बिजली द्वारा विकट परिस्तिथियों में भी न टूटना और अपनी शर्तो पर अपनी जिंदगी जीना I
इस फिल्म में एक और बात निर्देशिका ने बखूबी बताई है कि स्त्रियों को खुश रहने के लिए पुरुषों की ही जरुरत नहीं है I अपनी महिला मित्रों के साथ भी वह खुश रह सकती है बल्कि ज्यादा खुश रह सकती है Iएक महिला का दर्द दूसरी महिला ज्यादा अच्छी तरह से समझती है I उसकी भावनाएं शायद पुरुष पूरी तरह ना समझ पाये पर उसकी महिला मित्र उनकी हर एक बात समझ सकती है I जैसे कुछ दृश्यों में रानी व लाजों के बीच संवाद कम होते हुए भी वे आँखों ही आँखों में एक दूसरे को बहुत कुछ कह जाती है और समझ जाती हैI
इस फिल्म की ग्रामीण नारी जो बेहद कम बाहरी दुनिया के संपर्क में रहती है और अल्प सुविधाओं के बीच अपना जीवन -यापन करती हैI यदि उसे मौका दिया जाये तो वह अपने हूनर से अर्थोपार्जन भी कर सकती हैI एक शिक्षित ,शहरी और बुद्धिमान दम्पति गाँव में आकर रहते है और ग्रामीण स्त्रियों की कला का प्रयोग कई सुन्दर व कलात्मक चीजें बनवाकर शहर में जाकर बेचते हैI उससे मिलने वाला मुनाफा इन ग्रामीण स्त्रियों के साथ बाँटते हैI साथ वे उन्हें उत्तम कार्य के लिए इनाम भी देते है I इसका सीधा मतलब है कि सही मौके इन स्त्रियों को दिए जाये तो वे बहुत कुछ कर सकती है I
पार्च्ड अर्थात ‘सूखा’, इस फिल्म को अभी तक 24 अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाया गया है जिसमें से 18 बार इसे अवार्ड्स से सम्मानित भी किया गया हैI इस फिल्म में रुढिवादिता, थोथी परम्पराओं और दकियानूसी ख्यालों को दरकिनार करते हुए अपनी इच्छा से जीवनयापन करने की आकांक्षा को दिखाया गया हैI शायद यह एक नई सोच को जन्म दे और हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में एक नई आशा जन्म ले, जहाँ स्त्रियों का सम्मान हो आदर होI
फिल्म का हर पात्र सशक्त है I हर किसी ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया हैI आशा करते है कि आने वाले समय में इसी तरह का बेहतरीन सिनेमा और भी देखने को मिलेगा I वक्त की बदलती मांगों को महिला निर्देशिकाएं चित्रपट द्वारा समाज में पहुचाएंI महिलाओं के लिए एक ऐसा संसार हो जहाँ वे उन्मुक्त हो कर साँस ले सके, जी सके I उनके कर्त्तव्य क्या है? बताने की बजाय ऐसा सिनेमा बनाये जिससे औरतों को उनके अधिकारों का ज्ञान हो सके क्योंकि कर्तव्य का निर्वहन तो वह सदियों से करती आ रही है पर अब कुछ अधिकारों को पाने की भी बात होI
सन्दर्भ ग्रन्थ : नवभारत टाइम्स (22 सितम्बर 2016)
amarujala.com (23 सितम्बर 2016)
aajtak.intoday.in (23 सितम्बर 2016)
indianexpress.com (23 सितम्बर 2016)
movies.ndtv.com (23 सितम्बर 2016)
डॉ. नीतू भूषण तातेड
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