बैजू बावरा (Baiju Bawra) अर्थात फिल्मी पर्दे पर लिखा महाकाव्य
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जो सीधे अंतर्मन की गहराइयों तक पहुंच जाती हैं और बरसों पुरानी होने के बाद भी ताज़ी हवा का झोंका सरीखी दिखती हैं। आज से लगभग सत्तर साल पहले अक्तूबर सन 1952 में रिलीज़ हुई फ़िल्म बैजू बावरा को इसी कोटि में रखा जा सकता है। बैजू बावरा सिर्फ़ एक महान गायक की कहानी नहीं है बल्कि हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास का एक सुनहरा पृष्ठ भी है। इस फ़िल्म के गीतों ने फ़िल्मों में रागों की महत्ता और लोकप्रियता को स्थापित करने का काम किया, जो उस समय भी असम्भव माना जा रहा था। नौशाद (Naushad) के संगीत निर्देशन में शकील बदायूंनी ने भक्ति, प्रेम, विरह आदि रसों के ऐसे सुरीले गीत रचे जो आज भी गुनगुनाए जाते हैं। राग मालकौंस में निबद्ध भजन मन तड़पत हरि दरसन को आज में मोहम्मद रफी (Mohammad Rafi) की गायकी सोने में सुहागा का काम करती है, इसी प्रकार ओ दुनिया के रखवाले गीत को राग दरबारी कान्हड़ा में, आज गावत मन मेरो गीत को राग देसी में, मोहे भूल गए सांवरिया गीत को राग भैरव में, इंसान बनो कर लो भलाई के काम गीत को राग तोड़ी में, तोरी जय जयकार गीत को रागपुरिया धनाश्री में, बचपन की मोहब्बत को गीत को राग मंद, घनन घनन घन बरसो गीत को राग मल्हार, तू गंगा की मौज और झूले में पवन के आयी बाहर गीतों को राग पीलू में गाया गया है। शकील बदायूंनी ने इस फिल्म के लिए इतने बेहतरीन गीत लिखे हैं कि उनकी काव्य प्रतिभा को नमन करने की इच्छा होती है।
फिल्म में भारत भूषण (Bharat Bhushan) ने एक गायक के उदात्त प्रेम, पिता की मृत्यु के लिए उत्तरदायी तानसेन से बदले की आग में जलते युवक तथा संगीत की साधना में निरत संगीतज्ञ की भूमिका बखूबी निभाई है और मात्र बीस वर्षीया मीना कुमारी ने उनकी प्रेयसी गौरी को जीवंत कर दिया है, जिनका किंवदंतियों में कलावती नाम आता है, जो चंदेरी की रहने वाली थीं और यहीं पर इन दोनों का प्यार परवान चढ़ा था।
फिल्म में नायक महादेव की विशालकाय प्रतिमा के समक्ष खड़े होकर प्रेयसी की मृत्यु पर ईश्वर से सवाल खड़े करता है। इस दृश्य की नकल बाद में शोले और नास्तिक जैसी अनेक फ़िल्मों में की गई। फिल्म का उज्ज्वल पक्ष यह भी है कि प्रारंभ में ही बालिका गौरी बालक बैजनाथ उर्फ़ बैजू को डूबने से बचाती है और स्त्री के सशक्तीकरण की झलक दिखाती है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। फिल्म में फिल्मकार विजय भट्ट ने इतना चुस्त दुरुस्त निर्देशन किया है कि ढाई घंटे से अधिक लम्बी फिल्म देखने में कहीं से भी बोरियत महसूस नहीं होती और दर्शक का बैजू बावरा और गौरी के साथ साधारणीकरण हो जाता है। कुलदीप कौर ने डाकू रूपमती की भूमिका में शानदार अभिनय किया है और नायक नायिका को मिलाने में अहम भूमिका निभाई है लेकिन अकबर के दौर में डाकुओं के पास बंदूकें होना थोड़ा आश्चर्यचकित अवश्य करता है और यह भी स्त्री की सशक्त भूमिका की गवाही देता है। यह एक ऐसी शानदार फिल्म है जिसे प्रत्येक फिल्म प्रेमी को, संगीत प्रेमी को और सिने जगत से जुड़े लोगों को अवश्य देखना चाहिए।
डॉ. पुनीत बिसारिया आचार्य एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी |
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* डॉ. पुनीत बिसारिया जी द्वारा स्वरचित हिन्दी दोहे आप सभी के समक्ष