- डॉ. ऋषभदेव शर्मा
भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में समकालीन मीडिया के चरित्र पर विचार करते समय यह देखना रोचक होगा कि लोकतांत्रिक भारत के स्वप्नद्रष्टाओं ने अपने ज़माने में इस महादेश के भविष्य को किस तरह देखा था. उन्होंने चाहा था कि भारत में लोकतंत्र ग्राम स्वराज्य के रूप में प्रतिफलित हो जिसमें पंक्ति के सबसे पिछले व्यक्ति तक की रचनात्मक भागीदारी हो (महात्मा गांधी), जिसमें एक व्यक्ति मात्र एक वोट न हो बल्कि एक व्यक्ति एक मूल्य हो (बाबासाहेब अंबेडकर), जिसमें मानव सौंदर्य तक का मापदंड सामान्य लोक हो (राम मनोहर लोहिया) तथा जिसमें विचार की आवश्यकता हो और साथ ही विचार की स्वतंत्रता और स्वाधीनता अनिवार्य हो (आचार्य नरेंद्र देव)। कहना न होगा कि उनके सपनों के इस लोकतंत्र को साकार करने के लिए विधायिका, प्रशासन और न्यायपालिका जितनी ही जिम्मेदारी मीडिया के ऊपर भी है. यह बात अलग है कि हमारे समय का सच कुछ और ही संकेत करता है।
यह चिंता का विषय है कि ग्राम स्वराज्य की संकल्पना को आज़ादी के साथ ही कचरे में फेंक दिया गया, आम आदमी को वोट में बदल दिया गया, सामान्य लोक और उसकी आकांक्षाओं को आत्महत्या करने के लिए विवश किया गया तथा विचार को तो देशद्रोह ही बना दिया गया. इस समस्त कारगुजारी को अंजाम देने में मीडिया की भूमिका थोड़े से अपवादों के अलावा लोकतंत्र के पक्ष में रही हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। दरअसल,पहले हमने बहुत चालाकी से लोकतंत्र को मततंत्र में बदला और मततंत्र से हमने उसे स्वार्थतंत्र में बदला। आज अधिसंख्य संस्थाएँ ऐसी हैं जो इस मततंत्र के बारे में तो चर्चा करतीं हैं पर मूल्यतंत्र के बारे में चर्चा नहीं करतीं। आज हम वर्तमान लोकतंत्र कहकर जिस लोकतंत्र की रक्षा की चिंता करते हैं वह वास्तविक लोकतंत्र नहीं है इसलिए हम लोकतंत्र के नाम पर लगातार एक ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं जो संभवतः कुछ वर्षों में नाम का लोकतंत्र रह जाएगी लेकिन आंतरिक व्यवस्था के आधार पर लोकतंत्र नहीं रहेगी।
ऐसे में, मीडिया के स्वरूप और चरित्र के संबंध में दो तथ्य हमारे सामने हैं. पहला यह कि मीडिया का बहुत विस्तार हुआ है, वह लिखित से मशीन की तरफ गया है; बहुत सारी मशीनी सुविधाएँ मिली हैं जिन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बहुत विस्तार दिया है. मीडिया का बहुत विस्तार हुआ है तो जीवन के सभी क्षेत्रों में उसका हस्तक्षेप भी बहुत बढ़ा है. दूसरा तथ्य यह कि अनेक अवसरों पर हमारा मीडिया अपने वास्तविक सरोकारों से नजरें चुराता दिखाई देता है। हमारा जो सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक यथार्थ है, उससे मीडिया अक्सर भागता हुआ नजर आता है; इसलिए लोकतंत्र के प्रति उसकी जो प्रतिबद्धता होनी चाहिए थी, वह कमजोर दिखाई देती है।
यह हमारे समकाल का सच है कि लोकतंत्र में लोक की भागीदारी कम हुई है। मीडिया इस बात से थोडा सा हट रहा है और हमारे सामने लाने से बच रहा है. उदाहरण के लिए, पिछले सात दशकों में सबसे अधिक उपेक्षा शिक्षा और संस्कृति की हुई है. हम संस्कृति के नाम पर प्रायः केवल कलाओं और परंपराओं की बात करते हैं. हम यह भूल जाते हैं कि संस्कृति में हमारे जीवन के सभी पक्ष सम्मिलित हैं और वह हमारे दैनिक जीवन से ही शुरू हो जाती है. संस्कृति अगर संस्कार, परिष्कार और हमारे चरित्र को निर्मल बनाने, हमारे भीतर छिपे हुए राक्षस को नियंत्रित करने, हमारी बुराइयों के विरुद्ध हमें खड़ा होने की ताकत देने , हमें जीवन शैली देने, हमें विचारप्रधान और बौद्धिक बनाने के सूत्र का नाम है तो हमें मानना होगा कि हमारी पूरी दिनचर्या संस्कृति में शामिल है. लेकिन हमने संस्कृति की एक ऐसी मूर्ति बना ली है जो आस्था और पूजा की वस्तु हैै। संस्कृति के इस मूर्ति रूप और दैनिक आचरण में जीवित रूप – इन दोनों के बीच में फाँक हैै। संस्कृति हमारे लिए उत्सव रह गई है जबकि संस्कृति हमारा जीवन होना चाहिए। खेद है कि हमारा मीडिया इस बात को स्थापित करने में असफल रहा है।
मीडिया और लोकतंत्र के आपसी रिश्ते पर विचार करते हुए यह बात भी ध्यान में आनी स्वाभाविक है कि इन दोनों का भाषा से भी बड़ा गहरा नाता है. लेकिन यह नाता भारतवर्ष में कमजोर हुआ है. इसी का परिणाम है कि वोट माँगने के लिए देसी भाषाएँ भले काम आती हों, सरकार और मीडिया दोनों ही उनके साथ सौतेला बर्ताव करते हैं. किसी भी गंभीर विमर्श के समय हमारे दिमाग में अंग्रेजी मीडिया होता है, उसे चलाने वाले मीडिया प्रतिष्ठान होते हैं, उसका विज्ञापन होता है, उसकी आर्थिक संरचनाएँ होती हैं और हिंदी मीडिया उसमें कहीं दब जाता है, हिंदी पत्रकारिता उसमें कहीं दब जाती है. भारतीय संदर्भ में हमें यह न भूलना चाहिए कि अंग्रेजी पत्रकारिता की शुरूआत साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुई थी। उसने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सिपाही विद्रोह सिद्ध करने के लिए और यह सिद्ध करने के लिए कि अंग्रेज हमारे देश में हमारी सुरक्षा के लिए और हमें संस्कृति एवं सभ्यता का पाठ पढ़ाने आए हैं तथा इसे पूरी दुनिया में स्थापित करने के लिए अपने सारे संसाधन झोंके. परिणाम यह कि आज भी जब हमारे विश्वविद्यालय यही चीजें दुहराने की कोशिश करते हैंं। देसी राजाओं और सैनिकों के योगदान की बात तो करते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि उस स्वतंत्रता संग्राम में किसान, साधु, वेश्या, छोटे काम करनेवाले लोग और हमारी माएँ भी शामिल थीं। यह भी क्यों नहीं पढाया जाता कि उस स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा से बांग्लादेश के नोआखाली में वह अनुशीलन समिति बनी जिसने पूरे पूर्वोत्तर भारत में स्वतंत्रता आंदोलन चलाया। इस समिति की बंगाली लडकियाँ साड़ियों में हथियार छिपा कर पहाड़ों पर पहुँचाती थीं और पुरुष जहाँ देखते थे वहीं अंग्रेजों को मार गिराते थे। भोजन न मिलने पर वे घोंघा चूसकर जीते थे. इस अलिखित/मौखिक इतिहास को यदि विश्वविद्यालय नहीं सामने ला सके हैं, तो यह काम हिंदी सहित समस्त भारतीय भाषाओं की देशज पत्रकारिता को करना चाहिए क्योंकि देशज पत्रकारिता अपने मूल स्वरूप में मिशन रही है, प्रोफेशन नहीं। देशीय भाषाओं की पत्रकारिता ने स्वाधीनता चेतना, भाषा चेतना और संस्कृति चेतना को जगाने का जो काम आज़ादी से पहले तक किया, आज का मीडिया उस मार्ग से डिग गया दीखता है। इससे मीडिया का सम्मान भी घटा है और प्रभाव भी।
इस बीच एक बड़ा षड्यंत्र यह सामने आया है कि अंग्रेजी पत्रकारिता चलाने वाले प्रतिष्ठानों ने कम से कम हिंदी पत्रकारिता को अनुवाद की पत्रकारिता बना दिया है। अतः भारतीय जनता – गरीबों और आम लोगों - का ख्याल रखने वाली देशी भाषाओं की पत्रकारिता पर पुनः ध्यान देने की ज़रूरत है. ऐसा न हो पाने के कारण वह भी अपने मूलभूत लोकपक्षीय चरित्र से छिटककर सनसनीखेज मीडिया को मजबूत करने में निमग्न होती जा रही है. हिंदी की तमाम क्षेत्रीय भाषाओं सहित सभी भारतीय भाषाओं के मीडिया को जन-समस्याओं से ज़मीनी स्तर पर जुड़ना होगा और जनता के संघर्ष को स्वर देना होगा, तभी वह लोकतंत्र और समकाल दोनों में अपना स्थान बना सकेगा।
यहाँ एक और गंभीर विचारणीय विषय यह है कि हमारे यहाँ लोकतंत्र, मीडिया और बौद्धिक जगत के बीच इतनी दूरी है कि लोकतंत्र की रक्षा करने वाले लोग एक तरफ हैं, पत्रकार बिरादरी दूसरी तरफ है और बौद्धिक बिरादरी, जिसमें लेखक भी शामिल हैं, किसी और तरफ है. तीनों एक-दूसरे को संशय की दृष्टि से देखते हैं. यह स्थिति किसी भी देश के लिए काम्य स्थिति नहीं है. दरअसल, यह इस देश की जनता के साथ बहुत बड़ा छल है . पहले तो ऐसा नहीं था. माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसदास चतुर्वेदी, अज्ञेय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना से सभी परिचित हैं. इन्हें हम क्या मानेंगे -लेखक, पत्रकार या बुद्धिजीवी? तब पत्रकार, स्वाधीनता आंदोलन, लोकतंत्र और देश का आम आदमी – सब एक ही इकाई था। आज ऐसा क्या है कि इन सबके बीच दीवारें खड़ी कर दी गई हैं?
यह स्थिति लोकतंत्र और मीडिया दोनों के लिए घातक है. इससे समाज में स्मृतिहीनता और संवादहीनता पसर रही है और सत्ता-प्रतिष्ठान अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए जनता का ब्रेन-वाश करने में कामयाब हो रहे हैं। इस प्रवृत्ति के चलते दुनिया भर में एक विचार-वैक्यूम पैदा किया जा रहा है. इस वैचारिक शून्य को ऐसी स्थापनाओं द्वारा भरा जा रहा है कि विश्व के पूरी तरह से औद्योगीकृत अथवा उत्तरआधुनिक राज्यों को यह आजादी है कि अपनी स्वाधीनता और व्यवस्था की रक्षा के लिए वे इस दौड़ में पिछड़े हुए देशों, जिनमें भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, पर हमला कर सकते हैं . अर्थात विश्व-व्यवस्था इस बहाने तानाशाही को वैधानिकता प्रदान करने की ओर बढ़ रही है. ऐसे में क्या मीडिया और बुद्धिजीवी लोकतंत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी एक-दूसरे के मत्थे मढ़ते रहेंगे? देसी मीडिया यदि अंग्रेजी मीडिया के इन षड्यंत्रों को समझता है तो उसकी जिम्मेदारी है कि देश की आम जनता के साथ होने वाले इस षड्यंत्रको सबके सामने लाने की कोशिश करे। यदि ऐसा किया जा सके तो पिछले कुछ दशकों में जो यह धारणा आम हो गई है कि क्षेत्रीय मीडिया सनसनी, शोरगुल, अश्लीलता और स्कैंडलबाज़ी के सहारे टीआरपी बटोरने के जुगाड़ में लगा रहता है, इसे निर्मूल करके इन अख़बारों, पत्र-पत्रिकाओं और चैनलों को लोकतंत्र का आईना बनाया जा सकता है। इंटरनेट और सोशल मीडिया में निहित व्यापक पहुँच की क्षमता के सहारे आज का मीडिया लोकतंत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बेहतर ढंग से निभा सकता है।
अंततः यह कहना भी ज़रूरी है कि राजनैतिक और साम्राज्यवादी शक्तियाँ नव-माध्यम की जन-आंदोलन खड़े करने की ताकत को पहचानती हैं. इसीलिए देश-विदेश में इसे नियंत्रित करने की साजिशें भी ज़ोरों से चल रही हैं. ऐसे में मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवी और जनता को एकजुट होकर लोकतांत्रिक मूल्यों की पहरेदारी करनी होगी ताकि लोकतंत्र को किसी भी स्थिति में संभावित भीड़तंत्र, अराजकता और तानाशाही में ढलने के खतरे से बचाया जा सके।
- डॉ. ऋषभदेव शर्मा
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद।
आवास : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर,
हैदराबाद-500013 (भारत)
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