बच्चे अपने आस-पास जो चीज देखते हैं, महसूस करते हैं उनका उनके व्यक्तित्व पर प्रभाव अवश्य पड़ता है। ऐसे में बाल-साहित्य का महत्व काफी बढ़ जाता है क्योंकि बाल साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं है बल्कि बच्चों को सामाजिक परिवेश से परिचित करवाना और उनमें अच्छे संस्कारों और नैतिक मूल्यों का निरोपण कर उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाने की प्रेरणा देना भी है। यह जिम्मेदारी अभिभावकों और विद्यालयों की भी है। सभी अभिभावक इस जिम्मेदारी को पूरा करने का भरसक प्रयत्न करते भी हैं किंतु दुर्भाग्य से अपने देष में शिक्षा का अभाव है। इसलिए बहुत से अभिभावक इस बात को समझ ही नहीं पाते कि उनके बच्चों के लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है।
(Impact of Children's Literature on Children) बाल साहित्य का बच्चों पर प्रभाव
रही बात स्कूलों की तो हमारे देश में जो शिक्षा व्यवस्था लागू है वह लार्ड मैकाले की देन है। उनका उद्देष्य अच्छा नागरिक तैयार करना नहीं बल्कि अच्छे क्लर्क तैयार करना था जिनके दम पर अंग्रेज अपने राज्य की व्यवस्था संभाल सकें। लार्ड मैकाले अपने उद्देश्य में सफल रहे। आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था कमोबश बाबू ही तैयार कर रही है। कोई भी अभिभावक अपने बच्चे को किसी स्कूल में यह सोच कर भर्ती नहीं करवाता कि वहां से वह एक अच्छा नागरिक बन कर निकलेगा बल्कि यह सोच कर भर्ती कराता है कि वहां से पढ़ लिखकर वह एक अच्छी नौकरी हासिल कर लेगा। हालांकि बच्चों के चरित्र निर्माण के लिए अब स्कूलों में सहायक पाठ्य सामग्री के रूप में बाल साहित्य की कुछ पुस्तकें उपलब्ध कराई जाने लगी हैं किंतु यह दाल में नमक के बराबर है। इस दिशा में अभी काफी सुधार की आवश्यकता है। ऐसी स्थित में बाल साहित्य की जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है।
बाल साहित्य का बच्चों के उपर कितना प्रभाव पड़ता है इसके मैं दो उदाहरण देना चाहूंगा। पहला राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का। उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है कि वे बहुत परिश्रम से अपने पाठ रटकर याद करते थे लेकिन उत्साह की कमी के कारण उसे जल्दी ही भूल जाते थे। एक दिन उन्हें ‘भक्त श्रृवण कुमार’ नामक पुस्तक पढ़ने को मिली जिसे उन्होंने कई बार पढ़ा। इसके बाद उन्हें ‘सत्यवादी राजा हरीषचन्द्र पुस्तक’ पढ़ने को मिली। इन दोनों पुस्तकों ने उनकी विचारधारा को ही बदल डाला और उन्होंने सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने और लोगों की सेवा करने का प्रण कर लिया। छत्रपति शिवाजी को उनकी मां जीजाबाई प्रेरक कहानियां सुनाया करती थीं जिसे सुनकर ही उनमें देश प्रेम की भावना जागृत हुई। कई क्रांतिकारी ऐसे है जिन्होंने कहानियां पढ़कर ही अंग्रेजी राज्य के विरूद्व बगावत का बिगुल बजाया। कहने का तात्पर्य है कि बाल मन कच्ची मिट्टी की तरह होता है और साहित्य का उसपर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी। अतः बाल साहित्य सृजित करते समय अत्यंत सावधानी की आवश्यकता होती है। कहानियों में अक्सर बुराई पर अच्छाई की जीत दिखाई जाती है इसके लिए कुछ खलपात्रो और बुरी घटनाओं का सृजन करना आवश्यक हो जाता है किंतु यह दुधारी तलवार पर चलने के समान है क्योंकि यदि इनका वजन ज्यादा हो गया तो बच्चों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
अभी तक हमारा समाज पुरूष प्रधान रहा है और यह बात बाल साहित्य में भी प्रर्दशित होती थी। किंतु अब स्थितयां काफी परिर्वतित हो गई हैं। आज की नारी पुरूषों से कंधे से कंधा भिड़ाकर नहीं खड़ी है बल्कि कई क्षेत्रों में उनसे आगे भी निकल गई है। अतः आज ऐसे बाल साहित्य के सृजन की आवश्यकता है जिसमें लिंगभेद परिलक्षित न हो, लड़के और लड़कियों के अधिकार एक समान दिखाए जाने चाहिए। बच्चे जब उन्हें पढ़ेंगे तो बचपन से ही उनमें समानता के विचार विकसित होगें। ज्यादातर कहानियों में आज भी यह दिखलाया जाता है कि मां रसोई संभाल रही है और पिता कमाने जा रहा है। इससे बच्चों के मन में यह बात पैठ कर जाती है कि स्त्री और पुरूष के कार्यक्षेत्र भिन्न -भिन्न हैं जबकि आज स्थित परिर्वतित हो चुकी है। ज्यादातर महिलाएं अब कामकाजी हो गई हैं और परिवार के आर्थिक मामलों में सहयोग कर रही हैं अतः पुरूशों को भी घरेलू कार्यों मे सहयोग करना चाहिए किंतु यह बात समाज के एक बड़े तबके को समझा पाना मुश्किल है। यदि बाल-साहित्य के माध्यम से यह बात समझाई जाए तो बच्चों के मन में बचपन से इस बात के संस्कार आसानी से बैठ जाएगें कि स्त्री और पुरूश के अधिकार और कार्य एक समान हैं।
हमारे पास श्रेष्ठ बाल साहित्य का विपुल भंडार उपलब्ध है। पंचतंत्र की कहानियां और जातक कथाएं तो ज्ञान-विज्ञान का अनुपम खजाना हैं। इनकी प्रत्येक कहानी बच्चों को भरपूर मनोरंजन के साथ-साथ कोइ न कोई शिक्षा भी अवष्य देती है। इसके अलावा गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगोर, मुंशी प्रेमचंद, अमृत लाल नागर, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों ने श्रेश्ठ बाल साहित्य का सृजन किया है। आज भी अनेकों साहित्यकारों द्वारा ऐसी कहानियों और कविताओं को लिखा जा रहा है जो बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनने की प्रेरणा देती हैं। अभिभावकों को चाहिए कि इन कहानियों-कविताओं को बच्चों को उपलब्ध करवाएं इससे उनमें नैतिक मूल्यों का विकास होगा। क्योंकि बाल-साहित्य बच्चों के सर्वांगीड़ विकास का सबसे महत्वपूर्ण औजार है।
संजीव जायसवाल ‘संजय’
बाल साहित्यकार
लखनऊ (उ.प्र)
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