बात संभवतः सन 2012 की है। आचार्य महाश्रमण तब मेरे गृहनगर देवगढ़ मदारिया (राज)में थे , आचार्य महाप्रज्ञ जी के सानिध्य में। दर्शन के समय मुझसे यूं ही पूछ लिया-" माला फेरते हो?" मैंने कहा -"नहीं 'मैं स्वाध्याय के अतिरिक्त किसी व्रत- नियम का पालन नहीं करता ।वे बोले- अच्छी बात है। पर रोज की एक माला तो ...?"मैंने कहा-" कभी -कभी भूल भी हो जाती है, इसलिए यह सब नहीं कर पाता।" महाश्रमण जी बोले -"जितना सध जाए, उतना तो लाभ मिल जाएगा।"
साधुचर्या की बात और है और गृहस्थों की कुछ और।मुझे लगा कि व्रतों की नियमितता में यह जो उदार दृष्टि है, वह भी गृहस्थों के लिए आरंभिक तौर पर सकारक है।सौ प्रतिशत नंबर न आएं, न सही। पर नब्बे आएं सौ में से ,तो यह बड़ी बात है। नियमों का ऐसा डर भी क्यों ? और सकारक पक्ष यह भी कि धीरे-धीरे अभ्यास बन जाए; तो स्मृति, साधना की जागृति, नियमित अभ्यास अन्य बातों में भी राह बनाने लगते हैं। हम क्यों मानें कि यह नियम कांच के बर्तन की तरह हैं, टूटे कि गये।पर इससे जीवन में नियमितता का अभ्यास होता है, कुछ समय के लिए ध्यान और एकाग्रता आती है, व्यर्थ की बातों का अतिक्रमण करते हुए अरिहंतो का नाम स्मरण होता है, तो जितना सध पाता है वह भी तो एक उपलब्धि है।
बात बहुत छोटी है पर व्यावहारिक संहिता के साथ सौ प्रतिशत सफलता पाने की लक्ष्यबद्धता भी भीतर में प्रेरित करती है ।आज का समय इसी सहजता के साथ जीवन की राह बनाने का है। हम जो गृहस्थ हैं, वे जीवन को नियमों में इतना भले ही न कसें, बल्कि नियमों के पालन की सहजता के साथ आचरित करें। वे रस्सी से कसने के बजाए मन का सहज निग्रह बनें।ऐसी जीवन पद्धति विकसित करें, जो शास्त्रों से प्रेरित हो मगर मन की सहजता से अनुप्राणित। धर्म शुष्काचार नहीं केवल ग्रंथों की
सूत्रबद्धता का ज्ञान नहीं ,आचरण की यथासंभव क्रियाशीलता है ।शास्त्र नियमों की अपेक्षा हमारी तरल चेतना में भावांतर ले आएंगे ।तब नब्बे प्रतिशत भी पूरा सौ हो जाएगा ।और हमारा आचरण बाजार की भाषा में सौ टका।
अभी आचार्य महाश्रमण की एक पुस्तक पढ़ रहा था -"आओ हम जीना सीखें"। मैं जब आचार्य तुलसी को देखता -पढ़ता था, तो लगता था कि एक सामाजिक क्रांति घटित हो रही है। पर्दा गया, नारी शिक्षा के द्वार खुले। साधु -साध्वियों का युगपरक शिक्षण- प्रशिक्षण हुआ। पुराने -धुराने रीति-रिवाज विदा हुए ।एक खुला समाजशास्त्र नई शिक्षा और नैतिक आचरण के साथ आया। राष्ट्रीय स्तर पर अणुव्रत असांप्रदायिक अभियान बना। जीवन-विज्ञान शिक्षा का मूल्य परक संवाद। प्रेक्षाध्यान श्वासों को जीवन योग्य बनाने का शारीरिक- मानसिक प्रशिक्षण। आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे चेतना के रूपांतरण से जोड़ दिया। मिसाइल मैन पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम और अहिंसा -शांति की मिसाइल आचार्य महाप्रज्ञ ने एक नई राह दी।
जब आचार्य महाश्रमण की इस लघु पुस्तिका को पढ़ता हूं, तो लगता है कि उनके व्याख्यान में शास्त्रीय सूत्र जीवनपरक सहजता में ढलने की प्रेरणा देते हैं ।उनके व्याख्यान की दृष्टांत शैली तो संत -परंपरा और सामाजिक उद्बोधन में कारगर रहती ही है ।पर नियमों को भी सरल भाषा में पिघलाकर जीवन को बेहतर बनाने का संदेश आम आदमी के लिए सहज ग्राह्य हो जाता है। इसीलिए वे अपने व्याख्यान में शास्त्र के एक श्लोक ,उसकी व्याख्या और दृष्टांत के सहारे सहज भावांतर लाने की कोशिश करते हैं ,अपनी प्रवचन वाणी में ।और धीरे से श्रोताओं को बाहर से भीतर जाने के लिए राह दिखाते हैं। ताकि आत्मदर्शन हो ,आत्म- निरीक्षण हो ,आत्मरमण हो। इसमें हम बाधक कषायों- क्रोध- मान -माया- लोभ से सचेत होते हैं। निर्मल भावों की राह पकड़ते हैं। शास्त्रीय भाषा के बजाय सरल भाषा में कहें ,तो निर्जरा ही मन की निर्मलता का प्रसार है ।फिर वे उस दृष्टि को विकसित करते हैं। कबीर कहते हैं कि गुरु ने ऐसा तीर मारा कि कलेजे को छेक दिया। अब अहिंसक साधना में ये शब्दों के तीर ही उस भाव को उपजा देते हैं, जिसमें श्रावक आत्मरमण करता हुआ संसार को जीने योग्य बनाता है ।पर सांसारिक प्रभावों का पुतला भर नहीं रह जाता। दृष्टि मिलती है, तो चाल- ढाल भी बदल जाती है। नशा और अहंकार से मुक्ति मिले, तो जीवन में उतार-चढ़ाव कोमलता के साथ पसरने लगते हैं।
फिर स्वास्थ्य की बात भी की जाए ।इसीलिए उठने- बैठने का भी अपना तौर-तरीका, अच्छी संगति के लाभ ,एकाग्रता से उर्जा के व्यय के बजाय उसका संवरण, सोने- उठने- बैठने, खानपान, वाणी- व्यवहार में मधुर शब्दों का प्रयोग और मौन-साधना और उनके कठोर व्यवहारों के बीच सहिष्णुता का विकास। ये शारीरिक पक्ष हैं और उनकी भी एक आचरण संहिता है। कायोत्सर्ग में क्रियाहीन उन्मुक्तता है, तो चेतना में विचारों की उदात्त गतिशीलता। विचार का बड़ा क्षेत्रफल हो आदमी में और मनोविकारों से परे भी। इससे युवावस्था ही नहीं सधती बल्कि वृद्धावस्था भी चेतना और शारीरिक क्षमता से पुष्ट रहती है।
यह तय है कि यह जो यह जो शरीर है वह निष्प्राण हो जाएगा। आत्मा संसार से विदा होगी, तो मृत्यु को विषाद न बनाकर महाश्रमण उसे मरने की कला कहते हैं। आत्मचेतना में रमण और संथारायुक्त सचेतन मृत्यु का ज्योति- रूप ।जीवन की इस सद्गति के लिए जरूरी है कि तपस्या से ज्योतिर्मय हों। ऋजुता से मनोभावों की सरलता आए। कुंठा और मनोग्रंथियों से मुक्ति मिले। संयम से लोभ और बदले की भावनाओं पर निग्रह हो। और मृत्यु भी सामने आए तो शरीर भले ही ढीला ,पर जितनी परीक्षाएं होती है जीवन के अंतिम छोर पर; उसमें परीषहों के आगे हारे नहीं। यहआत्मजयिता है। सद्गति है और चरम शांति भी।
बी .एल. आच्छा
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