सांप्रदायिकता की समस्या और हिंदी उपन्यास

Dr. Mulla Adam Ali
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Communalism and Hindi Novels

Communalism and Hindi Novels

सांप्रदायिकता

     सांप्रदायिकता पर लिखने वाले उपन्यासकारों में ‘पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का नाम उल्लेखनीय है, क्योंकि अपने उपन्यास ‘चन्द हसीनों के खतूत’ में हिन्दू-मुसलमान युवक-युवती के प्रेम और विवाह तथा सांप्रदायिक सद्भाव का चित्रण किया है। यह उपन्यास ‘उग्र’ जी सन् 1927 में लिखा था। इस दौर में हिन्दू और मुसलमान युवक-युवती के प्रेम और उनके विवाह का चित्रण करना किसी साहसिक कार्य से कम न था। ‘उग्र’ जी ने अपने इस उपन्यास में यह कटु सत्य उजागर करने का प्रयास किया है कि हिन्दू धर्म में किसी मुसलमान वेश्या से देह संबंध पर रोक नहीं है, कोई बाधा नहीं है लेकिन किसी भद्र मुसलमान परिवार की लड़की से विवाह करना वर्जित है। ‘उग्र’ जी ने अपने और एक उपन्यास ‘बधुआ की बेटी’ में भी अछूतोद्धार की समस्या का चित्रण किया है।

     राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के उपन्यासों में भी सांप्रदायिकता का चित्रण देखने को मिलता है। राम-रहीम उपन्यास का प्रणयन राजा साहब ने 1936ई. में किया था। राजा साहब इसकी भूमिका में कहते हैं- “मैंने रोजमर्रा की एक दिलचस्प कहानी का टेक लेकर धर्म और समाज के तमाम कच्चे चिट्ठे खोलकर रख देने की कोशिश की है। मैंने भारतवर्ष के इस युग के अत्याचार को, इस युग की पुकार को, दो जीती-जागती स्त्रियों के जीवन पर प्रस्फुटित करने का प्रयास किया है। यद्यपि उपन्यास के शीर्षक से यह प्रस्तुत आवश्यक होता है कि उपन्यास दो अलग-अलग धर्मावलंबियों की कहानी है, लेकिन ऐसा नहीं है। सांप्रदायिकता की समस्या इस उपन्यास में उठाया तो गया है लेकिन यह उच्चतम भूमि पर प्रस्तुत नहीं किया।

     सन् 1986 में अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ‘झीनी-झीनी बिनी चदरियाँ’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में लेखक ने बनारस के बुनकर समुदाय के नरकीय जीवन को कथा के केंद्र में रखा है। साम्प्रदायिक उन्माद के दौर में लेखक ने धर्म की वास्तविकता पर से पर्दा उठाने का प्रयास किया है कि बनारस का समाज कैसे कई परतों में विभाजित है। इसका चित्र खींचते हुए वे लिखते है कि- “एक समाज दुनिया का है। एक समाज भारत का है। एक समाज हिन्दुओं का है। एक समाज मुसलमानों का है। और एक समाज बनारस के जुलाहों का है। यह समाज कई अर्थों में दुनिया के हर समाज से अलग है। इस समाज के कई खण्ड है। पाँचों है, चौदहों है, बाईसी और बावनों है। अब एक नई बाईसी भी बन गई है। हर खण्ड का अपना सरदार है, अपना महतो है।... फिर यहाँ कुछ लोग बनारसिया हैं, कुछ लोग मऊवाले हैं। मऊवाले वे लोग है जो आजमगढ़ जिले के मऊनाथभंजन से आकर बस गए हैं। पढ़े-लिखे लड़के इन्हें ‘बी ग्रुप’ कहते है। ‘एम ग्रुप’ और ‘बी ग्रुप’ में नोंक-झोंक चलती ही रहती है।... फिर अलाईपुरिया अलग है और मदनपुरिया अलग। खण्ड में से खण्ड“ इस रूप में उपन्यासकार ने बनारस के जुलाहों का अत्यंत जीवंत एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। सात ही उपन्यासकार ने मिथ्या परंपराओं, कुसंस्कारों, धार्मिक रूढ़िवादिता के खोखलापन को दिखाने में सफलता प्राप्त की है।

     सांप्रदायिक विचारधारा की चपेटे में आकर समाज किस प्रकार विभाजित हो जाता है इसे बलवंत सिंह के उपन्यास ‘कालेकोस’ में देखा जा सकता है। पंजाब की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास में लेखक ने यह दिखाया है कि किस प्रकार गाँव के एक साथ मिल-जुलकर रहते थे। धर्म के नाम पर उनमें कोई भी मतभेद न था। दूसरे शब्दों में कहें तो सांप्रदायिक विचारधारा इन्हें छू भी न सकी थी लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिनों तक बनी न राह सकी। मुस्लिम लीग के मियाँ दिल मोहम्मद के आते ही परिस्थितियों में बदलाव आना शुरू हो जाता हैं। अफ़वाहों का बाजार लगते ही गाँव के हिन्दू-मुस्लिम और सिक्ख अलग-अलग बैठकें लगाना शुरू कर देते है। जैसे-जैसे अन्य जगहों से दंगों की खबर आने लगती है माहौल और भी बिगड़ जाता है। कल तक जिनमें आपसी भाईचारा था वे आज एक-दूसरे के खून के प्यासे बन जाते हैं और जो कल तक अपरिचित थे आज ‘अपने’ बन जाते है। इन ‘अपनों’ का ‘बेगाने’ बन जाना और ‘बेगानों’ का ‘अपना’ बन जाना उपन्यासकार की संवेदनाओं छूता है। लेखक ने इन परिस्थितियों का चित्रण बखूबी अपने उपन्यास में किया है।

     सन 1967 में शिव प्रसाद मिश्र का उपन्यास “अलग-अलग वैतरणी” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में लेखक ने विभाजन के बाद भारत में रहने वाले मुसलमानों की दुर्दशा का चित्रण किया है। अपने उपन्यास में लेखक ने ऐसी मुसलमान पात्रों का चित्रण किया है जो विभाजन के बाद भी भारत में ही बसते हैं। यहां के लोग ही उनके अपने लोग हैं, यह जमीन ही उनकी वतन है लेकिन विभाजन ने उनके ही यार-साथियों के मन में यह बात डाल दी कि अब जब पाकिस्तान बन चुका है तो भारत में किसी मुसलमान के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। इसी कारण जब खलील मियां की जमीन ली जाती है तो कांस्टेबल जगेसर कहता है- “एकदम मुर्दा है ये लोग खलील मियां का खेत ले लिया तो क्या हो गाय। उस दिन अभी शोभाराम जी बता रहे थे कि जाटों ने भी मुसलमानों को पकड़-पकड़ गढ़मुकतेश्वर में चकरी पर बैठा-बैठाकर ब्याह कर लिया। काहें नहीं कोई हिंदू बोला उहां मुसलमानों के पक्ष में। तब तो सब मियां चिल्ला रहे थे पाकिस्तान लेंगे। अब तो सालों ने ले लिया पाकिस्तान। जाओ रहा। यहां का पड़े हो भाई। राम दै ऐसा काम किसी और इलाके में हुआ होता, तो लोग जय-जयकार मचा देते। मगर ई गांव है बिरबावनपुर। जिसे देखो वही रट लगाए है कि बेचारे खलील मियाँ के साथ अनियाव हो गया। अरे हो गया ‘अनियाव’ तो हो गया। तुम्हरें में हिम्मत है तो रोक दो। अब सालो को कुछ नहीं मिला तो जैनपुर की उस हरजाई का मामला लेकर बदनामी कर रहे हैं।“ कहीं न कहीं यह उद्गार विभाजन के समय मिले छालों से ही निकले मवाद है लेकिन हर हिंदुस्तानी को जो विभाजन के लिए मुसलमानों को दोषी मानता है यह समझना चाहिए कि विभाजन के लिए राजनीतिक नेताओं ने धर्म का सहारा लिया। दूसरी बात यह है कि विभाजन के समय केवल हिंदूओं ने ही खोया है, यह धारण भी गलत है। दोनों ही धर्मों के लोगों उन्हें बहुत कुछ खोया है। साथ ही भारत को अगर एक संपन्न राष्ट्र बनाना है तो यह जरूरी है कि भारतीय बीते हुए कल की कड़वी घटनाओं को भुला दे।

     भारत विभाजन पर आधारित नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘जिंदा मुहावरे’ 1993 में प्रकाशित हुआ। यह बात आजादी के कुछ सालों बाद स्वतः प्रमाणित हो गई कि विभाजन की नीति गलती थी और इसे मुसलमानों ने भी महसूस किया। पाकिस्तान जाने वाले भारतीय मुसलमानों को हिकारत भरी नजर से देखा गया जो आज भी बदस्तूर जारी है। इस विभाजन की राजनीति में धर्मांधता सर चढ़कर बोली और सारी मानवीयता धरी की धरी रह गई। जिंदा मुहावरे इसी का प्रत्यक्ष दर्शन करवाता है। नासिरा शर्मा ने विभाजन के बाद भारत में रहने वाले एवं पाकिस्तान चले जाने वाले मुसलमानों का चित्रण पूरी सहानुभूति और मार्मिकता के साथ किया है। इस उपन्यास में नासिरा शर्मा ने मानवीयता को धर्म से ऊपर रखा और इस रूप में ही देखने की कोशिश की है।

     सन 1993 में गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में हिंदू सांप्रदायिकता का चित्रण देखने को मिलता है। गीतांजलि श्री एक शहर को कथा के केंद्र में रखा है जो सांप्रदायिक विभीषिका की आग की लपट में झुलसने लगता है। इस उपन्यास में एक ओर ‘मठ’ है जो सांप्रदायिक विचारधारा का पोषक है, यहीं से शहर में फैलने वाली गड़बड़ियों का संचालन होता है। वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालय है जिसके संबंध में हमारा सामान्य ज्ञान यह कहता है कि यह उच्च विचारों को पैदा करने का और संकीर्ण मानसिकता का पोशाक बन जाता है। इनमें एक ऐसा मुस्लिम पात्र ‘हनीफ’ को दिखाया गया है कि जो सांप्रदायिक विभीषिका के दौर में अकेला पड़ जाता है। यहां तक कि शहर के तथाकथित कहे जाने बुद्धिजीवी भी ऐसे समय में उसका साथ नहीं देता।

    प्रियंवदा का उपन्यास ‘वे वहां क़ैद है’ जिसमें लेखक ने बड़ी संवेदनशीलता से संप्रदाय वाद और उसके भीतर पनपते फासीवाद का चित्रण किया है। अपने अभीष्ट में लेखक सफल रहे हैं।

     सन 1999 भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘काला पहाड़’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में लगातार बढ़ती हुई सांप्रदायिकता पर लेखक ने चिंता जाहिर की है। इस उपन्यास में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार सत्ता हासिल करने के लिए सांप्रदायिक शक्तियां साधारण इंसान को अपनी गिरफ्त में ले लेती है और उसके जीवन को नरक में बदल डालती है। इस उपन्यास में मेवा नामक जाति के मुसलमानों का चित्रण किया गया है जिन्होंने बाबर के खिलाफ राणा सांगा का साथ दिया और देश के बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था। लेखक ने इस उपन्यास में उन तत्वों की शिनाख्त की है जो सांप्रदायिक विचारधारा का प्रचार करते हैं

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