सांप्रदायिकता विरोध का उपन्यास : शानी का ‘काला जल’

Dr. Mulla Adam Ali
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Book Kala Jal by Shani

Book Kala Jal by Shani

         गुलशेर खाँ शानी (Gulsher khan shaani) का जन्म जगदलपुर में 16 मई,1933 में हुआ। अपनी लेखनी का सफर जगदलपुर से आरंभ कर  ग्वालियर फिर भोपाल और दिल्ली तक तय किया। शानी प्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्य अकादमी पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ और ‘साक्षात्कार’ के संस्थापक-संपादक थे। ‘नवभारत टाइम्स’ में भी इन्होंने कुछ समय काम किया। अनेक भारतीय भाषाओं के अलावा रूसी, लिथुवानी, और अंग्रेजी में इनकी रचनाएं अनुदित है।

       मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त शानी बस्तर जैसे आदिवासी इलाके में रहने के बावजूद अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने एक विदेशी समाज-विज्ञानी के आदिवासियों पर किए जा रहे शोध पर भरपूर सहयोग किया और शोध अवधि तक उनके साथ सुदूर बस्तर के अंदरूनी इलाकों में घूमते रहे। कहा जाता है कि उसकी दूसरी कृति ‘शालावनो का द्वीप’ इस यात्रा के अनुभवों को संस्मरण में पिरोई गई है।

    उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत और मध्य प्रदेश के शिखर सम्मान से अलंकृत शानी का निधन 10-फरवरी,1955 को हुआ।

‘कालाजल’ - शानी

            ‘कालाजल’ उपन्यास गुलशेर खाँ शानी द्वारा लिखा गया है। ‘कालाजल’ उपन्यास में शानी छत्तीसगढ़ के मुस्लिम परिवारों के भीतर प्रवेश करके एक अंतेवासी के रूप में उस बदबूदार काले जल की सड़ांध को चित्रित करते हैं जो महज मोनी तालाब के जल की सड़ांध ही नहीं है, निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज की अपनी सड़ांध भी है। मुस्लिम परिवारों के जीवन का कुछ ऐसा ही चित्र राही ‘आधा गाँव’ में पेश करते हैं। यहाँ कथा वाचक ‘मैं’ है, जो अपनी छोटी फूफी के यहाँ शबेरात की फातिहा पढ़ने गया है और जिस भी बुजुर्ग के नाम पर फातिहा पढ़ी जाती है, उनकी जिंदगी के क्षण खुले पन्ने के रूप में सामने आते-जाते है। कहने को रूढ़ियों-रीतियों की जो जकड़न, अर्थ और काम संबंधों की जो असलियत निम्नवर्गीय इन मुस्लिम परिवारों की है लगभग वैसे ही निम्नवर्गीय हिन्दू परिवारों में भी। एक बड़ी गहरी समानता धर्म के अंतर के बावजूद यह दिखाई पड़ती है कि मानव स्वभाव सब कहीं एक है- जिसके क्रिया-कलाप एक है, उनके कर्मकाण्ड, रूढ़ियाँ, उनके उत्कर्ष तथा अधःपतन के किस्से एक हद। धर्म तो ऊपरी मुखौटा है, जिसे इन लोगों पर चढ़ा दिया है। बड़ी कलात्मकता और बड़ी प्रामाणिकता से शानी ने अपने स्वजनों के अंतरंग और बहिरंग को उद्घाटित किया है अपने उपन्यास में।

     दिलचस्प तथ्य यह है कि इस कथा के मुस्लिम परिवारों में केंद्रित होने बावजूद इसमें हिन्दू पात्र भी है- बिल्कुल उसी तरह जिस तरह सामाजिक जीवन में ये पास-पास रहते; मिलते-भेंटते और झगड़ते हैं। मिर्जा करामात अली और बी. दारोगन, जो हिन्दू ग्वाले की लड़की थी और मिर्जा से विवाह करकें मुसलमान बनी, उसके परिवार की कहानी ‘कालाजल’ है। मिर्जा और बी. दारोगन के बाद परिवार की पीढ़ी है- मिर्जा रोशन बेग और छोटी फूफी और उनके बाद पीढ़ी मोहसिन सल्लो आदि की। इन्हीं में कहीं रफू मियाँ भी हैं। कहानी मुस्लिम परिवारों की अंतरंग जिंदगी पर केंद्रित होते हुए भी भारत के स्वाधीनता आंदोलन का स्पर्श करती है, छोटी फूफी का बेटा नायडू के नेतृत्व में जिस में भाग लेता है अपना केरियर चौपट करता है और अंत में बड़े तल्ख अनुभवों से गुजरता हुआ पाकिस्तान जाने की सोचता है। ‘आधा गाँव’ में जिस तरह राही ने मुस्लिम कौम की अस्वाभाविक मान्यता को उभारा है, जो महज मुसलमान होने के नाते उन्हें देशभक्ति के दावे से वंचित करती है, उपन्यास के अंत में वाकर और मोहसिन का वार्तालाप भी इसी मान्यता को जैसे रेखांकित करता है।

     ‘यहाँ आदमी की कद्र नहीं है’ मोहसिन ने दांतों चबाकर कहा, जो जितने बड़ा बेईमान है वह उतना ही बड़ा आदमी है और चाहे घर हो या बाहर, ईमानदारी से चलने वाले को नायडू की सी मौत मिलती है। कोई नाम लेवा भी नहीं रह जाता।....पिछली सारी बातें बेवकूफियों से भरी लगती हैं। कैसी-कैसी उठपटक नहीं मचायी, क्या-क्या बचपना नहीं किया। आज सोचने पर हँसी आती है, हँह, देश का उद्धार करने चले थे।

     “और तुम तो कुछ न कहना, अगर कहूँ की मुझे इस देश-प्रेम में बिल्कुल विश्वास नहीं रहा।...वह तो अम्मी की वजह से बांधा बैठा हूँ। मेरा वश चले तो इसी पल यहाँ से भाग निकलूँ?”

     ‘कहाँ? भागकर जा ही कहाँ सकते हो? पाकिस्तान...।“

     “और क्या? बल्कि मेरी माने तो तुम्हें भी यही सलाह दूँगा... यहाँ जिंदगी भर बीच के आदमी बने रहोगे, न इधर के, न उधर के।“

     “क्या यह सचमुच वहीं मोहसिन है जिसने कभी पी..सी..नायडू (P.C.Naidu) का अकेले दम पर साथ दिया था।“ जिन्हें कभी रियासत नौकर के बेटे होने के बावजूद इस बंजर धरती में इंकलाबी कदम उठाये थे।"

“मैं जानता हूँ”, उसने कहा-

“तुम्हें लगता होगा कि मैं बक रहा हूँ या यह कि मेरी बातों में सांप्रदायिकता(Communalism) की बू आती है; पर अपने को अच्छी तरह टटोलकर देखो तो तुम भी खुद स्वीकार करोगे। क्या हम सब लोग यहाँ लादे हुए मुगालतें में नहीं जी रहें.? और जैसे तुम राष्ट्रीयता(Nationality) और ईमानदारी समझ रहे हो क्या वह सिर्फ मजबूरी नहीं है?”

     मैं हंसने लगा। बोला – “मोहसिन तुम तो झगड़ों जैसी बातें करते हों। यह गनीमत है कि हमारी बात और कोई नहीं सुन रहा; वरना ऐसा ही ख्याल पूरी कौम को बदनाम करते हैं।“

     “दरअसल मेरी आँखों के सामने 48 के बाद का वह जमाना घूम गया, जब कस्बे के कुछ लोग और हमारे ही रिश्तेदार पाकिस्तान भाग रहे थे... उसी बीच दफ्तर की ओर से अब्बा से भी पूछताछ हुई थी; लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। कुछ हमदर्दों ने दबी जबान में समझाया तो बोले मरना-कटना होगा तो यहीं मर-कट जायेंगे। बुढ़ापे में मिट्टी खराब करने कहाँ जायेंगे?”

     और उसकी के साथ वाला वह दौर जब शक की नजर से देखे जाते थे। स्कूल में लड़के हम लोगों पर ताने कसते थे भेजो सालों को पाकिस्तान। हमें बेईमान क्यों समझते है? और मुझे तब यह सोचकर रोना आता था। हमने मुस्लिम परिवार में जन्म लिया है क्या सिर्फ यही है कि हमारा दोष।“1

     शानी का ‘कालाजल’ सांप्रदायिकता विरोध का उपन्यास है। शानी का उपन्यास कालाजल मुस्लिम समुदाय के जीवन का एक प्रामाणिक दस्तावेज है।

संदर्भ;

1. शानी - कालाजल- पृ-310-311, पैकेट बुक्स

डॉ. मुल्ला आदम अली

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