प्रभुजी, तुम डॉलर हम पानी : डॉ. सूर्यबाला के व्यंग्य का अंतर्पाठ
डॉ. सूर्यबाला समकालीन हिंदी व्यंग्य का सुपरिचित एवं बहुपठित नाम है। 'कुछ अदद जाहिलों के नाम', 'अजगर करे न चाकरी', 'धृतराष्ट्र टाइम्स' व्यंग्य संग्रहों में उनकी व्यंग्य रचनाएं संकलित हैं। व्यंग्य रचनाओं की उनकी शैली है। न तो प्रदर्शनी आक्रोश, न प्रहार या आघात की मानसिकता, न तनी हुई आक्रामक मुद्रा,न अपने लिखे का शोरगुल। लेकिन जो बात कही जाती है, वह पूरी मासूमियत के साथ। बॉडीलैंग्वेज में व्यंग्य से भरीपूरी रंजकता के साथ मार करने वाली। लगता है कि उनकी मुस्कान और शरीर की बिनकसाव वाली मन:स्थिति से शिथिल मुद्रा में ही व्यंग्य की प्रत्यंचा को तान देती हैं। और छोटे-छोटे वाक्य गुदगुदाते भी हैं, मगर मानस पटल को भेद भी देते हैं।
उनका एक व्यंग्य सामने रखा है-" प्रभुजी ,तुम डॉलर हम पानी। "भक्ति के पद की लय और उस पर तान व्यंग्य की। अमेरिकी भारतीयों के जीवन के परिदृश्य की। बीच-बीच में भक्ति काल के सूरदास के पदों के सहारे इतने तीर चले हैं कि अमेरिकी जीवन में भारतीयता के असल रंग और अंतरंग भी खुलकर सामने आए हैं। बात केवल सभ्यताओं के उपरले रंगों की नहीं है, बाजार बनती सभ्यताओं में संस्कृति के अंतरंग स्पर्शों के खो जाने की भी है। स्वर्ग तो मिल जाता है, सभ्यता का बाजार तो रंग -बिरंगा हो जाता है, पर देशी आत्मा की कुलबुलाहट को खोकर। तकनीक और भोगवाद की दुनिया बेहद रंगीन है। देशज भारतीयों को यह कुलांचे मारती सभ्यता ललचाती है। इसमें ढलकर आदमी डॉलर को ही भगवान का समझ लेता है और भारतीय संस्कृति संस्कारों के चरम मूल्य डॉलर के आगे पानी पानी। तकनीक के आविष्कारों में गुम आदमी जैविक यंत्र भर बन जाता है। उन सारे प्रतिमानों को खोकर, जो उसे मनुष्य बनाते हैं, मातृत्व जैसी संस्था देते हैं।
अमेरिका सभ्यता और सर्वोच्च सफल जीवन का प्रतिमान बन गया है। जैसे भक्त आठों याम भक्ति में डूबा रहता है, वैसे ही अब अमेरिका से लौटा आदमी अमेरिकामय जीवन और उसके गुमान में जीता है। कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अमेरिका में डॉलर ही भगवान है और फिलवक्त भारतीयों का सपना भी डॉलर वाले अमेरिका का एक विश्वमुद्रा, जो सारी मुद्राओं को चला रही है। इस मुद्रा के आगे विश्वमुद्राएं नतमस्तक हैं। इतना भर ही सही नहीं है। बल्कि उसके जीवन के तकनीकी तंत्र का जो स्वर्गिक सा लगने वाला रंगीला दृश्य है, सोच और रहन-सहन की आजादी है, वह मशीनों पर सवार होकर मनुष्य को भी जैविक नहीं रहने देती। बच्चों के जीवन को ही यंत्र बना देती है। तकनीकी उल्लास के रंगों में डूबा जीवन और भारतीय जीवन पसरी गुमसुम एकरसता सूर्यबालाजी व्यंग्यात्मक लहजे में कह जाती है कि इन दोनों के बीच कोई सेतुबंध नहीं है। तकनीकी उल्लास में आत्मा फड़फड़ाती है, मगर सभ्यता अपनी रंगीनी में गौरव बन जाती है।
इसकी व्यंग्य की खासियत केवल दो सभ्यताओं को आमने सामने लाने तक सीमित नहीं है। इन सभ्यताओं के नेपथ्य में जो कुलबुलाहट है और सभ्यता के रंगीन परिदृश्यों में शिखर सपनों का गौरव हैं, इन दोनों के बीच भारतीय मानसिकता और उसके सांस्कृतिक क्षरण के परिदृश्यों पर व्यंग्य इस रचना को खास बना देते हैं। और दोनों देशों में बसे लोगों के बीच मानसिकता और सभ्यता का अंतर एक व्यंग्य- वाक्य में चुभनभरा असर भीतर तक कर जाता है- "फर्क रह गया है तो सिर्फ इतना कि वे डॉलर पाकर पागल हैं और हम डॉलर पाने के लिए।" यह व्यंग्य दो तरह के पागलपन के बीच की फांक पर जमकर ताने मारता है। और पाठक इस पंक्ति के साथ इस दोहे की तर्ज को भूलता नहीं है- "कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, इहि पाए बौराय जग,उहि खाए बोराय। अमेरिकी स्वर्ण सभ्यता के आगे हमारी धतूरा सभ्यता बेतरह पागल है।सब कुछ खोकर डॉलर रंगीनियों के लिए बेकरार।
अमेरिकी जीवन में जो इंडिया बसा है, उसके भीतर अमेरिका की शान- शौकत इतनी गहरी धंसी है, उसकी महत्वाकांक्षा इतनी सजी है कि हिंदुस्तानी मां-बाप अपनी संतानों पर गर्व करते हुए एक ही सपना पाल लेते हैं कि कब भारतीय मुफलिसी से निकलकर बेटे- बेटियों के साथ रहते हुए सिर पर सभ्यता का छत्र लगाकर राजसी हो जाएं- "इस उम्मीद में एक न एक दिन रंक चले सिर छत्र धराई।"
और सभ्यता के रंगीन छत्रों को धारण करने वाले अमेरिका में किस तरह सभ्यता के संस्करण हिंदुस्तानी अमेरिकी को बदलकर रख देता है। बच्चों की प्रसूति और पालने के लिए माता-पिता जब स्वदेश से आते हैं, तो वहां की नई पीढ़ी उन्हें नए आविष्कार में ढाल देती है। साड़ी वाली मां सलवार- कुर्ती वाली और पिता जींसवाली उत्तर आधुनिकता में। मातृत्व का भारतीय संस्करण जरूरत के मुताबिक मॉडिफिकेशन के लिए तैयार है। बेहद शालीन तरीके से लेखिका ने कहा है- "अमेरिका की धरती पर सलवार कुर्ती वाली नई मां का आविष्कार हो गया। यहां तो साक्षात् जननी ही आविष्कार के रूप में अवतरित हो गई।" अमेरिकी समाज में बराबरी दिखाने के लिए उसको छुपाना जरूरी है जो पांच मीटर की साड़ी और किचन के सारे कामों में जैविक रूप से फुल्ली ऑटोमेटिक और मानसिक रूप से वात्सल्यभरी जीवट का इजहार करती हुई भी वैसी सामने न दिखने के लिए अभिशप्त है। उत्तर आधुनिक रंगीन जीवन के आगे भारतीय मां बाप के परिदृश्य आदिम से हैं। अमेरिकी सभ्यता के आगे लाज भरे, इन जैविक और सांस्कृतिक गुणों पर बेहद घना पर्दा डालकर ही उत्तर आधुनिकता का दंभ अमेरिकी जीवन से बराबरी कर पाता है। इस पर भी गर्व यह कि चाहे सूखे पत्ते बुहारने में पड़ें या घास काटनी पड़े, मगर बेटा अमेरिका में है, यही फ़क्र की बात है।
व्यंग्य के रचाव में कसावट तो है ही मगर अलग-अलग अक्सों को इस तरह साधा गया है कि अमेरिकी जीवन की सारी चकाचौंध के भीतर कसकती भारतीय आत्मा रह रह कर अपनी पुकार मचा जाती है। अमेरिकी जीवन शैली का चित्र इतनी झलकियां दे जाता है, जो आज के बाजारवाद की रंगीनियां हैं, और इनके साथ बहता वह इंडिया है जो इंजीनियर, डॉक्टर, नर्स, कंपाउंडर, ज्वैलर, छोटे छोटे कारोबारियों का है। अमेरिकी जीवन को साधते हुए भी 'लॉट ऑफ फन' के लिए थियेटर, रेस्तरां, डिस्को, बैलेबैंड पार्टी, पब, सेल, फनफेयर तक ले जाते हैं। पर असल में यह भारतीय मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं और आंतरिक संस्कारों पर उत्तर आधुनिकता की चीजों को खरीद कर उनके फोटो से इंडिया के रिश्तो में इठलाता अमेरिकी इंडिया है। इमीग्रेशन और कस्टम काउंटर पर स्वाभिमान और आत्मसम्मान को हलकान कराता इंडिया। नातों रिश्तोंऔर पाबंदियों से आजाद, टोका टोकी की दुनिया से दूर, स्वच्छंदता में जीताअमेरिकी इंडिया, रिश्तों-नातों के फेवीकोल से दूर, बचपन की भारतीय मानसिकता के मूल्यों से पिंड छुड़ाता वह अमेरिकी इंडिया, जो रंगीनियों को स्वर्णिम भक्ति का प्रसाद मान बैठा है। अपनी मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षाओं में और भारतीय रिश्तो में अपने सुपर मानसिकता के दिखावे से लबरेज।
इतनी सारी दृश्यावलियों को दो इंडिया में समानांतर परोसता यह व्यंग्य आत्मा और शरीर की तरह आंतर स्पर्श और बाहरी रंगीनियों को एक साथ परोस देता है। यही पैराडॉक्स बिना ताना मारे भी व्यंग्य की मार करता रहता है। शब्दावली का माकूल चयन, जो अमेरिकी सभ्यता के रंगीन बाजार और बाजारवादी भौतिकता के मूल्यों को व्यंग्यात्मक लहजा देते हैं।भक्तियुग वाली पदावली का प्रयोग बेहद मारक है और रंजक भी।उस भारतीय मानसिकता को जतलाता है, जो मूल्यों की आध्यात्मिक भक्ति को डॉलर से उपजी रंगीनियों की भक्ति में सान देता है -"तुम तो अखंड भारत से खंड खंड उम्मीदों की चिंदियां बटोरने यहां आए हो तो क्या होगा उन चिंदियों का? सब तहस-नहस करके रख देगा आत्मसम्मान का बिगड़ैल जिद्दी बच्चा। इस बच्चे को हड़का फटकार कर भगा दो तो मौज ही मौज है यहां। "अंग्रेजी शब्दावली के साथ मार करती है यह चिंदियों वाली आंचलिक भाषा कितनी सहजता से मार करती है कि देशी आत्मा के सारे रसायन और अमेरिकी रंगीनियों में जीने की महत्वाकांक्षा टकराते ही नहीं है, बल्कि रंगीनियों में विलीन हो जाते हैं।
सूक्ति वाक्य की तरह छोटे-छोटे तीर कितनी गहरी मार करते हैं- "हमारी जूठन तुम्हारे लिए प्रसाद है। "यूज एंड थ्रो की भौतिक संस्कृति में मूल्यों की थाती भी फेंकने योग्य है, क्योंकि "तुम अपना बहुत कुछ गवांकर यहां डॉलर ही कमाने आए हो।"
इस व्यंंग्य का न कोई फॉर्मेट है, न शिल्प का सायास प्रयास ;जो दो तरह के जीवन का, बाजारवाद की रंगीनियों में भारतीयों की महत्वाकांक्षा का, मशीनी सभ्यता और उसके प्रदर्शन में बदलती सांस्कृतिक आत्मा का, सेल की खरीदी में बचतों से डॉलर बटोर कर अपने देश में उच्चता का दिखावा करती मानसिकता का, इमीग्रेशन की घटनाओं में शर्मसार होती आत्मा का ,अमेरिकी धरती पर स्वच्छंद बच्चों की बिरादरी का, टोका- टोकी के दृश्यों में अपने ही बच्चों द्वारा माता-पिता की पुलिस शिकायतों का। और ये दो सभ्यताएं इस व्यंंग्य में इतनी सहज समानांतरता से चलती हैं कि व्यंंग्य खुदबखुद चला आता है। अलबत्ता चिकौटी के कई वाक्य इस प्रवाह में अपनी चुभचुभी दिखा जाते हैं -"झेंपोगे तो बटोर चुके डॉलर ।झेंप, आत्मसम्मान और स्वाभिमान जैसे शब्द हिंदुस्तानी शब्दकोशों में ही ठीक रहते हैं। "दो तरह के शब्दकोश इस व्यंग्य को बुनते हैं, सभ्यता और संस्कृति के अंतर की तरह। कहीं आंचलिक होकर भी। पर वाक्यों का प्रवाह, परिदृश्यों का सिलसिला इतना स्पपर्शिल है, विजुअल है कि बिना सेतुबंध के भी पाठक इन दो समांतर संस्कृतियों को ठीक से पकड़कर व्यंंग्य के पार आ जाता है।
अलबत्ता आज के परिदृश्य में बदलाव है और यह व्यंग्य कुछ बरस पुरानी इतिहासवत्ता का यथार्थ है। प्रवासी साहित्य में आंगन के पार द्वार की दुनिया में जो भारत बसा है, उसकी छवि काफी कुछ वैसी है। बदलाव भी खूब आए हैं। अमेरिकी भारतीय गणराज्यों के रिश्तो में जो अंतर आया है वह अमेरिकी इंडिया और भारतीय इंडिया के जीवन प्रवाह में भी। जो वजूद अब कायम हुआ है, उससे अंतर आया है। पर इसमें पिछले समय की समाजशास्त्रीय इतिहासबद्धता के साथ जो यथार्थ बुनावट उसके लक्षण आज भी इस व्यंंग्य को मारक और प्रासंगिक बनाते हैं। इसके शिल्प में विवरण और वर्णन के थेगले नहीं है, न ही निबंधात्मकता था। बल्कि दृश्यात्मकता से, दृश्यों के पट -परिवर्तन से ,दो सभ्यताओं की समांतर झलकियों से ,दो तरह की भाषाओं के शब्दविन्यासो से, अंतरंग और बहिरंग जीवन से, डॉलर पा जाने और डॉलर पाने की मनोवैज्ञानिक -आर्थिक मानसिकताओं के की मार से यह व्यंग्य एकरसता को फटकने नहीं देता। पूरी तरह एक विषय से संकेंद्रित रहकर भी इतने रंग छिटकाता है, जैसे रोशनी की लड़ियां झिलमिलाती हैं रंग बदल बदल कर। नाट्य, संस्मरण, रेखाचित्र जैसी विधाओं के हल्के से संक्रमण इस व्यंंग्य को संप्रेषणीय बना देते हैं ।
और अंतिम बात इस व्यंग्य के शीर्षक की पैरोडी-वक्रोक्ति की। पैरोडी को भी कितनी गंभीर व्यंग्यात्मक दी जा सकती है और उसका संचार समूची रचना की अंतर्ध्वनि बन सकता है, यह बुनावट का कौशल है। भक्तिमय पद 'तुम चंदन हम पानी'- में जो तुम और हम में घुलनशीलता है, भक्ति का जो लेप है, ईश्वरीय सत्ता के साथ जीव की एकाकारता की आकांक्षा है, वह 'प्रभुजी तुम डॉलर हम पानी' मैं अमेरिकी धरती पर आई है। डॉलर और पानी की एकाकारता स्वर्णिम भौतिक रंगीनी और पानी की क्षुद्रता में हमारे मनोसंसार को ध्वनित करती है। चंदन के साथ पानी जिस घुलनशील एकाकारता का भक्तिमय मनोसंसार बनाता है, वही डॉलर और पानी में सर्वोच्चता और क्षुद्रता का दुराव है। इसी क्षुद्रता को हम 'तुम चंदन हम पानी 'के विपर्यय में, उलट अंदाज में, हीनता बोध में पाकर कसक का अनुभव करते हैं। यही तो व्यंग्य की छलांग है, परिहासजनित बौद्धिकता है, व्यंग्य के देशी रूपों को समर्थ वक्रोक्ति में ढाल देने का कौशल है।
(स्रवंति (मासिक पत्रिका) अक्टूबर-2021 में प्रकाशित लेख)
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