जैन दर्शन का अप्रतिम स्तोत्र
भक्तामर- अंतस्तल का स्पर्श
जैन दर्शन के अप्रतिम स्तोत्र आचार्य मानतुंग की अमर कृति "भक्तामर" पर आचार्य महाप्रज्ञ की विलक्षण व्याख्या है - भक्तामर के अंतस्तल का स्पर्श । यह व्याख्या जितनी ललित है, उतनी ही तलस्पर्शी भी। जितनी तर्कमय है, उतनी ही श्रद्धा जागृति का अनुष्ठान भी। जितनी जैनतत्वदर्शिनी है, उतनी ही सर्वजैनमत समावेशी। जितनी ज्ञान- बोधिनी है, उतनी ही भक्तिमोहिनी। जितनी रागद्वेषनाशिनी है, उतनी ही वीतरागता की अर्थप्रकाशिनी। भाष्य की सार्थकता तभी सिद्ध होती है, जब भाष्यकर्ता मूल से तन्मय हो जाए और बुद्धि-हृदय के सामंजस्य से उसके विमर्श को यथासंभव सामान्य पाठक - श्रावक की भूमि पर लेकर आए। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस तलस्पर्शी व्याख्या को आज के विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, सभी प्रकार के दर्शनों, तार्किक -भाविक शैलियों से जोड़ते हुए भक्तामर को युगीन परिप्रेक्ष्य में प्रकाशित किया है।
भक्तामर एक स्तोत्र की तरह है, जिसके प्रति एक चमत्कारिक धारणा भी सामान्य जन में है। यही कि आचार्य मानतुंग ने सातवीं सदी में हर्षवर्धन के काल में इसकी रचना तब की थी, जब वे कैद में थे। और इसकी रचना से उनकी सारी बेड़ियाँ खुल गयीं। वे आजाद हो गए। भौतिक रूप से देखा जाए तो अंडमान- निकोबार की जेलों में कालापानी की सजा काटते हुए हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने क्या इसी प्रकार के मंत्रों की युगीन व्याख्या नहीं की थी? तिलक ने गीता की टीका लिखी। और अन्य अनेक टीकाएँ भी जेलों में लिखी गयीं। जेलों के अंधेरे में यह उज्ज्वल प्रकाश था, जो आजादी की लड़ाई में अंग्रेजो के खिलाफ हमारी सांस्कृतिक आत्मा का संकल्पित प्रकाश बना। कोई कितना ही मजबूत हो जाए, भीतर के सांस्कृतिक प्रकाश के बिना मन का संकल्प मजबूत नहीं होता। क्या भारत की पराधीनता की बेड़ियाँ नहीं टूटीं ? नया सवेरा नहीं आया? आचार्य मानतुंग केवल भौतिक बेड़ियों से मुक्त नहीं हुए, बल्कि रागद्वेष के सारे मनोभावों से परे होकर भगवान ऋषभ की वंदना से वीतराग होते चले गए। बेड़ियाँ भी खुलीं और भीतर के बंधन भी। ऋषभ के स्तवन से वे उसी प्रकाश से तन्मय हो गये।
आचार्य महाप्रज्ञ ने चवाँलीस छंदों के निहितार्थ को भी चमत्कार की बजाए साधक के पुरुषार्थ और जैन दर्शन की अंतर्धारा से जोड़ा है ।लक्ष्मी को वही प्राप्त कर सकता है, जिसने भक्तिपूर्वक ऋषभ के गुणों की माला का गुंफन किया है, उसी को धारण किया है। इन गुणों के कारण ही ऋषभ मनोज्ञ हैं, श्रद्धेय हैं, वीतरागमय हैं, आनंदमूर्ति हैं भक्तों को समान रूप से आसन देने वाले हैं। यों भी श्रद्धेय रूप से नहीं होते उन गुणों और कर्मों के कारण होते हैं ; जिनकी समाज में प्रतिष्ठा है। उन गुणों से होते हैं, जो सर्वातिशय हैं, जनकल्याणकारी हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्रद्धा के संबंध में सही कहा है कि प्रेम में तो दृष्टि प्रेमी पर अटक जाती है, श्रद्धा पहले गुणों को परखती है, फिर व्यक्ति को। वृषभ का अतिशय व्यक्तित्व इस भक्ति का आधार है, जो ज्ञानयुक्त है और ज्ञानोत्तर भी। देखा जाए तो भगवान ऋषभ युग केआधार हैं। यौगलिक से नई मानव सभ्यता के आविष्कारक हैं। कृषि, व्यवसाय, रक्षा, शिल्प, राजनीति, समाज -व्यवस्था के प्रवर्तक हैं। श्रीमद्भागवत में भी उनका उल्लेख है, विशेषतः "आत्मविद्या विशारदाः" के रूप में। यह आत्मकर्तृत्व का दर्शन ही जैन विद्या का विलक्षण दर्शन है। और उसी की आंतरिक समझ आचार्य मानतुंग को उच्च तुंग यानी शिखर सम्मान देती है। लगभग तेरह शताब्दियों से यह मंत्र सभी जैन संप्रदायों में समान रूप से वंदनीय है।
महाप्रज्ञ जी की खासियत यह है कि इसके निहितार्थ को भीतर के प्रयोजन को कई दिशाओं से व्याख्यायित करते हैं। इसीलिए गीता और भागवत जैसे ग्रंथों को, विज्ञानपरक आधुनिक तथ्यों को, मनोग्रंथियों के विश्लेषक मनोविज्ञान को, सामान्यजन में पैठ बनाने वाले दृष्टांतों, सहज तर्कों और जैनतत्वविद्या से सर्व समावेशी बना देते हैं। इसीलिए उन्होंने आचार्य मानतुंग की अपनी बालबुद्धि का एहसास और भगवान ऋषभ की स्तुतिक्षमता के अंतर्द्वंद्व को व्याख्यायित किया है। जब वे शांतरागरुचि वाले वीतराग ऋषभ के चरणों से प्रकाशित गुणों को समझते हैं, तो उन्हें इसी आत्मग्रंथि का समाधान मिल जाता है। यही कि ऋषभ का आभामंडल ही ऐसा है, जो सूर्य की किरण की तरह रात्रि के अंधकार को सहज ही प्रकाश में उजला देता है। समाधान यह भी कि किस देवता या ग्रह - नक्षत्र के पास वह शक्ति है, जो उनके व्यक्तित्व को पूर्ण प्रकाशित कर सके। इसलिए ज्ञान -भक्ति -श्रद्धा से इस महान संकल्प को मंत्रबद्ध करने की शक्ति से संकल्पित हो जाते हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ इस साधना के आधार को भी साफ करते हैं। एक तो यह कि बुद्धि होनी चाहिए, मगर बुद्धि से बुद्धि की, तर्क से तर्क की टकराहट से बात नहीं बनती। बुद्धि का शीर्ष जब गुणप्रकाशक वीतराग के चरणों में प्रणिपात करता है; भक्ति से, श्रद्धा से तो श्रावक में उन गुणों का संक्रमण होने लगता है। उसके भीतर भी भावों के रसायन बदलते हैं। इसी को गुण- संक्रमण या परिणमन सिद्धांत कहते हैं। आराध्य और आराधक, भगवान और भक्त के बीच तन्मयता का यही आधार है। इससे ज्ञान-दर्शन -चारित्र्य और उनकी बोधियों का लाभ मिलता है। अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होता है। मिथ्या दृष्टि का नाश होता है। अनाचरण की समाप्ति होती है । ध्यान और स्तवन से भगवान के गुणानुवाद की प्रतिध्वनि होती है । एक अच्छा सा दृष्टान्त भक्तामर में निहित है -सूरज लाखों मील दूर हो धरती से, मगर एक किरण ही कमल को प्रफुल्ल कर देती है सरोवर में।
मंदिर में मूर्ति हो भगवान ऋषभ की या अमूर्तिक संप्रदायों में शब्द- मूर्ति हो, ऋषभ का सौंदर्य अप्रतिम है। चुंबक की तरह खींचता है। पर यह सौंदर्य जो शरीर का है, वह भीतर की वीतरागताता, शांति, निर्मलता, कैवल्य का आभामंडल है।यह आभामंडल सात्विक गुणों से उजला है। सूर्य चंद्र आदि की तरह उदय -अस्त से प्रभावित नहीं है। ज्ञान -दर्शन -चारित्र्य से संपुष्ट है। ममत्व के विसर्जन से त्यागमय है। शाश्वत दीपक है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय आदि कर्मों से निरावृत्त है। चारों प्रकार के घात कर्मों से अप्रभावित है। इसीलिए राहु आदि ग्रहों के पाप भाव का इन पर असर नहीं होता। पाप, रस, स्पर्श, गंध, मोह से परे है। सचमुच में ऋषभ का यह रूप नित्योदयी अमरज्योति है। भक्त में भी वही अंतर्धारा बह जाए, यह उसके भक्ति स्तवन की सिद्धि है।
आचार्य मानतुंग ने अपने समय में प्रचलित भक्तिमार्गों, दर्शनों की चर्चा की है। और उनका खंडन करने के बजाए, जिस ऋषभ -प्रस्थान को स्वीकार किया है वह भी उनका सतर्क चयन है। वे इस मार्ग की विलक्षणता का तर्क देते हैं। पर अन्य मार्गों का निषेध नहीं करते। आत्मा की बात करने वाला सांख्य आदि दर्शन है। मसलन, आत्मा अकर्ता है फलभोक्ता नहीं। याकि, आत्मा सर्वव्यापी है। याकि सब की आत्मा समान है। या आत्मा अंगुष्ठ प्रमाण है। जैन दर्शन मेंआत्मविद्या के प्रतिष्ठाता ऋषभ के आत्मकर्तृत्वाद को अपनी पहचान बनाते हैं। सारे सुख -दुख आत्मकृत हैं। वे एकांतिक रूप से यह नहीं कहते कि आत्मा नित्य है या अनित्य है। अनेकांत की दृष्टि से कहते हैं कि आत्मा का अस्तित्व सर्वकालिक है, इसलिए नित्य है। मगर पर्याय परिवर्तन होता है, इसलिए अनित्य। यह भी कि मुक्ति की अवस्था में भगवान में आत्मा विलीन नहीं होती, बल्कि उस आत्मा को ऋषभ अपने सामान बना देते हैं। आत्मा की स्वतंत्रता जैन दर्शन की अवधारणा है।
बात ज्ञान की होती है तो भगवान ऋषभ को बुद्धि से पहचानने की कोशिश। मगर भक्ति के बिना बुद्धि केवल तार्किक। भक्ति भी अपने चरम क्षणों में संवेगमय होती है। संवेग की अवस्था में बुद्धि तत्व गौण हो जाता है। आम्रमंजरी को देखकर कोयल का मीठा कंठ मचल जाता है। ऋषभ के विराट बिंब की समझ के कारण यह स्तुतिगान आचार्य के कंठ में फूट पड़ता है। कालिदास ने पार्वती के सौंदर्य की उपमा कंचन -पद्म से की है। क्या सोने का कमल किसी सरोवर में खिला है? कवि की यही विलक्षणता है। सोने में भी कमल की गंध और कमल में भी सोने जैसी चमक। ऐसे ही भगवान ऋषभ के आंतरिक और बाह्य सौंदर्य का विराट बिंब आचार्य ने इन छंदों में रचा है। वे आदित्य वर्ण हैं, यानी बालसूर्य की तरह दोष रहित। वे अव्यय हैं। विभुता से सर्वव्यापी हैं। गुणों से अचिंत्य और असंख्य हैं। समाज व्यवस्था के नियामक हैं। ज्ञान -दर्शन के अनंत शक्तिरूप हैं। काम- भाव का क्षय करने वाले आनंदकेतु हैं। योगियों में आदिनाथ हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने अन्य प्रचलित साधना पद्धतियों की शब्दावली का उपयोग करते हुए जैन दर्शन के निहितार्थ को प्रकट किया है। मसलन यज्ञ अर्थात् ऋषियों द्वारा प्रशस्त मार्ग। अग्नि याने तप की ज्योति। ईंधन याने कर्म। शांति- पाठ याने संयम।
ऋषभ के बाह्य सौंदर्य के प्रतीकों के अर्थ भी बहुत स्पष्ट हैं । चाहे मूर्तिपूजक हों या अमूर्तिपूजक। जब प्रतीकों के अर्थ समझते हैं तो भीतर में प्रवेश हो जाता है। इसीलिए इस स्तोत्र को केवल सांगीतिक उच्चारण से नहीं समझा जा सकता। अर्थ का ज्ञान चाहिए और अर्थ समझने पर ऋषभ से तादात्म्य भी होना चाहिए। इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ ने वैष्णव संप्रदाय के पुष्टिमार्ग की सायुज्य भक्ति का उल्लेख किया है। इस तरह वे सारे दर्शनों के प्रति एक उदार चिंतन दृष्टि रखते हैं। और मूल भाव को अनेकांत से सामने लाते हैं। वीतराग ऋषभ के बाह्य सौंदर्य में तीन अतिशय हैं - अशोक सिंहासन और चामर। आठ प्रतिहार होते हैं तीर्थंकरों के आसन के - अशोक, दिव्यपुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि, देवदुंदुभि, सिंहासन, भामंडल और आतपत्र ।अशोक तो रागभाव के नाश का सूचक है। सिंहासन स्वर्ण किरणों से उज्ज्वल उदयाचल का शिखर और चामर श्वेत चाँदनी। अशोक का रंग नीला, सिंहासन का अरुण और चामर का श्वेत। ये तीनों लेश्याओं से संबंधित हैं। नीला रंग शामक है, शांतिप्रद। अरुण रंग के ध्यान से बाल सूर्य रंग से कुंद पुष्प या श्वेत जलधारा की तरह ऋषभ के ध्यान का। इन गुणों के ध्यान से हमारे भीतर भी रूपांतरण होने लगता है। मैत्री की धारा, निश्चय की दृष्टि, मोह का क्षीणता, शुक्ल लेश्या का ध्यान और आत्मा में संवर-जागृति । यही जागृति अभय देती है। भीतर में भाव का प्रकंपन होता है। भक्त भावाविष्ट होते हैं और सांसारिक डर समाप्त होते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ सधी हुई बात कहते हैं कि इस ध्यान अवस्था में हम भक्त बनकर नहीं, स्वयं आदिनाथ बनकर भक्तामर का स्तवन करें। यही सूक्ष्म जगत में रूपांतरण है। यही परिणमन सिद्धांत है।
देखा जाए तो ऋषभ प्रभु के बाह्य सौंदर्य का प्रतीकार्थ कितना गहरा है। और वह भी भीतर के आभामंडल से रचा हुआ। इस आभामंडल के बिंब में आचार्य महाप्रज्ञ ने जैनतत्वविद्या और मुक्ति मार्ग की ऐसी व्याख्या की है जो महज कर्मकांड को भी दर्शन से जोड़ती है। ज्ञान को भक्ति की धारा से नहलाती है। कर्म बंधनों से मुक्ति की राह दिखाती है। यह मंत्र शक्ति अहंकार नहीं देती। न ही दूसरे का अनिष्ट करने की आक्रामकता। यह तो अहिंसा की राह है। युद्ध और विनाश की नहीं। पर यह मंत्र स्तोत्र रक्षा कवच तो बनता ही है, जो थोपे गए युद्ध में आक्रांता को सफल नहीं होने देता। यहाँ "तं मानतुंगमलशा समुपैति लक्ष्मीः" का अर्थ धन-संपत्ति की प्राप्ति या भौतिक मुख से धन लक्ष्मी की प्राप्ति से नहीं है। यह तो भीतर के साम्य- योग की प्रफुल्लता है। शांतरागरुचि का निष्कलुष सौंदर्य है। संतुष्टि की परम तृप्ति है। भावना की निर्मलता है। अभय की सृष्टि है। ध्यान का उच्चासन है। वीतरागता का मार्ग है।
भक्तामर की सबसे बड़ी विशेषता उसके शब्द चयन में संगीत की लय है। इस लय में स्तवन भी है और ज्ञान-भक्ति-संवेग की राह भी। एक लयात्मक प्रतिध्वनि गूँजती है। अर्थ फूटने लगते हैं, तो मन कमल की तरह खिल जाता है। यही मृग, कोकिल, आम्रमंजरन, सूर्य, चंद्र, कमलदल, मुक्ताफल, किरण, सागर, बादल, उदयाचल, निर्झर, ग्रह-गण, सिंह- सिंहिनी, दावानल, नाग, हाथी, मत्स्य जैसे अनेक वानस्पतिक- जैविक उपमानों से न केवल उपमाएँ दी गयी हैं, बल्कि उनका भाव बोधपरक है, तादात्म्य साधक है। वे केवल अलंकार का सौंदर्य नहीं, बल्कि ऋषभ और मानतुंग जैसे भक्तों में गुणों के संक्रमण की अंतर्क्रिया के संवाहक हैं। कई बार तो इनके अर्थ सौंदर्य में अटककर भक्त अलग तरह की भाव शांति से प्रफुल्ल हो जाता है। इस भाव सौंदर्य में डूब कर भक्त उलझन से निकलता ही नहीं है बल्कि मनोबल से ऊर्जस्वित हो जाता है।
यों तो चवाँलीस (अन्य परंपरा में अड़तालीस) छंदों का पाठ बहुत समय नहीं लेता। पर संगीत ही ध्यानस्थ कर देता है। आचार्य महाप्रज्ञ की इन व्याख्याओं में उनका उदात्त व्यक्तित्व और सभी ज्ञानधाराओं से सहकार के साथ अपने चिंतन की स्पष्टता प्रभावित करने वाले कारक हैं। भक्तियुक्त चैतन्य से की गयी व्याख्या उनके ही गीत का स्मरण करवाती है -'चैत्य पुरुष जग जाए।' निश्चय ही यह पुस्तक सुविचारित, ऐतिहासिक शास्त्र परंपराऔरसमकालीन ज्ञान से पुष्ट एक भक्त के मानस की आलोक धारा का शुक्ल पक्ष है।
ये भी पढ़े;
* आचार्य महाश्रमण : सहज जीवन की भावभूमि
* कोरोना भयावहता में महावीर की प्रासंगिकता
* अटल बिहारी वाजपेयी : कविता की कोख से जन्मे राजनीति के शिखर-पुरुष