अंग्रेजों का भारत आगमन
British landed on India
मुस्लिम शासन काल से ही यूरोपीय लोगों का भारत आगमन प्रारंभ हुआ था। सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई। सन् 1757 मैं प्लासी का युद्ध हुआ और उनके ठीक सौ वर्ष बाद सन् 1857 में विधिवत भारत पर अंग्रेजों का शासन स्थापना हुआ। सन् 1857 के क्रांति युद्ध में हिंदू और मुसलमानों ने एक-दूसरे के कंधे मिलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। इसलिए अंग्रेजों ने बड़ी सतर्कता से मुसलमानों को हिंदूओं से अलग करने का प्रयास प्रारंभ से ही किया। उन्होंने सन् 1857 के बाद हिंदूओं को अधिक सुविधाएं, नौकरियां में अधिक स्थान आदि देकर मुसलमानों की तुलना में अपने अधिक निकट आने दिया। हिंदूओं की बढ़ती प्रतिष्ठा का परिणाम मुस्लिम मानस पर हुए बिना नहीं रहा। यहीं से सांप्रदायिक राजनीति का प्रारंभ हुआ। इसी समय कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई और इसके साथ ही अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार भी प्रारंभ हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में हिंदू मुसलमानों से बहुत आगे निकल गए। उनमें विदेशी शिक्षा के कारण जागरूकता बढ़ी और फलतः सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। प्रारंभ में कांग्रेस की ओर हिंदू ही अधिक आकृष्ट हुए। कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव को देखकर अंग्रेज शासक चौकन्ना हुए। उन्होंने अपने भेद नीति को संशोधित किया और हिंदूओं के स्थान पर मुसलमानों को निकट लाना शुरू किया। उस समय के बंगाल गवर्नर ब्लूम फील्ड फूलर ने एक स्थान पर लिखा है “भारत में उसकी (अंग्रेजी शासन की) दो पत्नियां हैं एक मुस्लिम और दूसरी हिंदू--- मुस्लिम अधिक प्यारी है।“1 साधारणतः उन्नीस सौ के आसपास अंग्रेजों ने अपनी इस भेद नीति पर अमल प्रारंभ किया और वह सन् 1947 तक जारी रही।
हिंदू मुस्लिम समुदाय में अलगाव का क्रम मुसलमानों के आगमन के साथ ही प्रारंभ हुआ। अंग्रेजों ने उसे निरंतर भड़काए रखा और देश विभाजन उसका अंत रहा। हिंदू मुसलमानों में अलगाव का कारण आर्थिक भी है। भले ही मुसलमानों का शासन प्रदीर्घ काल तक देश पर रहा लेकिन मुसलमानों की अपेक्षा हिंदू आर्थिक दृष्टि से अधिक संपन्न रहे है। जी.टी गैरेट लिखा है –“आधुनिक संदर्भों में हिंदू मुस्लिमों की शत्रुता का मूल संबंध धर्म, संप्रदाय अथवा धार्मिक विश्वासों के साथ कतई नहीं है। इस संपूर्ण शत्रुता के मूल केवल आर्थिक और सामाजिक स्थितियां है।“2 इस मत में पूर्ण सत्यता न होते हुए भी अन्य कारणों में यह एक प्रमुख कारण रहा है। उत्तरी भारत में अधिकांश व्यापार हिंदूओं के हाथों में था। वे साहूकारी करते थे। मुसलमान अधिकतर किसान थे अथवा छोटा-मोटा धंधा करने वाले या कारीगर थे। अंग्रेजों की आरंभिक नीति हिंदूओं को पुचकारने की और मुसलमानों को प्रताड़ित करने की रही। फलतः हिंदू शिक्षा के क्षेत्र में बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक मुसलमानों से खूब आगे निकल कर चले गए। व्यापार, उद्योग और प्रशासन के क्षेत्र में हिंदूओं का एक छत्र अमल रहा। बंगाल में तो अस्सी प्रतिशत व्यापार हिंदूओं के हाथों में था। उत्तरप्रदेश में मुसलमानों की संख्या अधिक थी। सामान्य हिंदू जनता किसान या मजदूर थी। इसी समय मुस्लिम जमींदारों के घरों में भी अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार और प्रसार प्रारंभ हुआ। मुसलमानों की यह शिक्षित पीढ़ी राजनीतिक दृष्टि से भी अधिक सजग हो गई। उन्हें हिंदूओं का व्यापार, उद्योग तथा प्रशासन में स्थित वर्चस्व खलने लगा और हिंदूओं की ओर ईर्ष्या से देखने लगे। इसी समय उन्हें अपने समाज की दरिद्रता भी खलने लगी। कांग्रेस की स्थापना के साथ ही पढ़ा-लिखा हिंदू समुदाय समाज हो गया। वह अपने अधिकारों की भी मांग करने लगा। प्रारंभ में हिंदू मुस्लिमों में आर्थिक और सामाजिक जो अंतर था वह अब राजनीतिक सुविधाएं, प्रतिष्ठा और अधिकारों की प्राप्ति में परिवर्तित होने लगा।
शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ दोनों धर्मों के लोगों में मध्यम वर्ग का जन्म हुआ। अंग्रेज प्रशासन में विशेषतः डाक तार विभाग, रेल, शिक्षा प्रशासन आदि में भारतीय लोगों को नौकरी मिलने लगी। फलतः नौकरी पेशा करने वाला एक नया मध्यवर्ग तैयार हुआ। इन नौकरियों में भी हिंदू ही अधिक संख्या में थे। मुसलमानों में ईर्ष्या भावना निर्माण होने का यह भी एक कारण रहा। आगे चलकर स्वाधीनता आंदोलन ने इस मध्यवर्ग में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। शिक्षित मुसलमानों ने इस स्थिति को पहचान कर अंग्रेजों का विश्वास संपादन करने का प्रयास आरंभ किया। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि अंग्रेजों से शत्रुता मोल लेना ठीक नहीं है। इसलिए वे अपनी वफादारी प्रमाणित करने का प्रयास में लगे रहे।
मुस्लिम समाज में राजकीय जागृति की लाने का प्रयास सर सैयद अहमद खां ने इसी समय शुरू किया। सर अहमद खाँ तो प्रारंभ में हिंदू-मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक थे। वे स्वयं को हिंदू कहते और दूसरों द्वारा हिंदू कहलवाकर लेने में स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते। लेकिन सन् 1885 के बाद उन्होंने सांप्रदायिकता का जहर फैलाना शुरू किया।
सन् 1888 में भारत ने गोरक्षा आंदोलन शुरू हुआ। वास्तव में यह एक धार्मिक आंदोलन था। हिंदी-उर्दू को हिंदू-मुसलमानों में बांटकर इन दो भाषाओं को भी सांप्रदायिक जामा पहनाया गया। इसका सीधा परिणाम हिंदू-मुस्लिम आपसी द्वेष में हुआ। अलगाव ने उग्र रूप धारण करने प्रारंभ किया। सर अहमद खाँ के प्रयत्नों के फलस्वरूप बड़ी संख्या में मुस्लिम सेना में भर्ती होने लगी। प्रशासन में भी स्थान मिलने लगा। कांग्रेस का आंदोलन भी फैलता जा रहा था। अंग्रेजों ने कांग्रेस की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए बंगाल का विभाजन किया। मुस्लिम बहुल जिले अलग निकालकर उनका अलग प्रांत बनाया गया। कर्जन द्वारा उठाया गया यह कदम अखंड भारत के विभाजन का पहला ठोस कदम कहा जा सकता है। लॉर्ड कर्जन ने स्वयं कहा था – “बंग-भंग का उद्देश्य मात्र प्रशासकीय नहीं है। मुसलमानों के हाथों एक संपूर्ण एवं स्वतंत्र प्रांत के अधिकार को बंग-भंग का मुख्य उद्देश्य रहा है।“3 इस तरह अंग्रेजों के आगमन के साथ हिंदू-मुस्लिम अलगाव शुरू हुआ और यह क्रम निरंतर बढ़ता चला गया तथा सन् 1947 तक आते-आते उसने अखंड हिंदुस्तान को विभाजित करके ही पूर्ण विराम लिया।
संदर्भ;
1. Ed. T.Watter – The Partition of India causes and Res., - P-18
2. वहीं – P -18
3. डॉ. सुभाष दुरुगकर – राही मासूम रज़ा का कथा साहित्य – पृ-79
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