भारतीय राजनीति में गांधीजी का आगमन
(Emergence of Gandhiji In Indian Politics)
निस्संदेह गांधीजी भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया है। गांधीजी को चर्चिल ने ‘अधनंगा फकीर’ कह कर संबोधित किया उस फ़क़ीर का भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। सन् 1920 तक भारतीय नेता संवैधानिक तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील थे। परंतु गाँधी के आगमन से संवैधानिक तरीकों को छोड़ दिया गया। गोखले अथवा रानाडे की उदारतावादी नीति को अपेक्षा कर दिया और असहाकार और जन आंदोलन को शुरू किया गया।
सन् 1920 को नागपुर के अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन में गांधीजी को अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति किया गया। अधिवेशन में उन्होंने असहयोग आंदोलन की भूमिका रखी जिससे जिन्ना जैसे कट्टर राष्ट्रीय मुसलमान चिढ़ गए। जिन्ना ने पत्रकारों से कहा था कि –“देखो युवक मुझे इस प्रकार के छद्म धार्मिक व्यवहार से चिढ़ है। यूँ राजनीति को छद्म धार्मिक दृष्टि से देखना ही गलत है। आज मैं गांधी और उसकी कांग्रेस से विदाई ले रहा हूं। भीड़ को मोहित करके, उससे बलबूते पर टिकी राजनीति पर मेरा विश्वास नहीं है। अंततः राजनीति सज्जनों का खेल है।“1 इस समय जिन्ना को ऐसा महसूस हुआ कि गाँधीजी के नेतृत्व में देश प्रतिक्रियावादी बन रहा है। सन् 1919 में भी जिन्ना गाँधी से चिढ़ गए थे, जब गाँधी के नेतृत्व में देश में ख़िलाफ़त आंदोलन चल रहा था।
वस्तुतः जिन्ना गांधीजी को एक हिंदू नेता समझने लगे थे। गांधी जी की हिंदू मुस्लिम समस्या को हृदय परिवर्तन के आध्यात्मिक सिद्धांत द्वारा सुलझाने की बात भी जिन्ना के समझ में नहीं आयी। जिन्ना को यह समस्या मात्र आध्यात्मिक नहीं लगती थी, इस समस्या के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि ऐसे अनेक पहलू थे जिन्हें आध्यात्मिक तरीके से सुलझाने की बात जिन्ना को अत्यंत अव्यावहारिक प्रतीत होती थी। इसके अतिरिक्त गांधीजी की हिंदुत्ववादी- भजन, कीर्तन, आश्रम आदि बातें भी उन्हें अच्छी नहीं लगती थी।
सन् 1920 से 1927 तक भारत के विभिन्न प्रदेशों में जो सांप्रदायिक तनावपूर्ण वातावरण था, उसका समाधान ढूंढने के लिए संवैधानिक सुधारों एवं अधिकारों की मांग के लिए सर्वपक्षीय बैठक बुलवाई गई। सायमन कमीशन के आगमन पर सन् 1928 में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक संवैधानिक कार्यक्रम की रिपोर्ट तैयार की गई। जिसमें सन् 1916 के लखनऊ समझौते को त्यागने की बात कही गई थी। इस रिपोर्ट के कारण जिन्ना और भी भड़क उठे। वे निराश भी हो गए थे और इंग्लैंड चले गए।
सन् 1931 में लियाकत अली ने जिन्ना को फिर से आग्रहपूर्वक भारत लाया। हिंदू मुस्लिम एकता के स्थान पर अब वे पूर्ण रूप से अलगाव की राजनीति के कट्टर समर्थक बन गए थे। उन्होंने “द्वीराष्ट्र सिद्धांत” का तर्क संगत समर्थन तथा प्रचार और प्रसार शुरू किया। इसके द्वारा वह सारे मुस्लिम समुदाय का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया और कुछ ही दिनों में वे मुसलमानों के अग्रगण्य नेता बन गए।
संदर्भ;
1. दुर्गा दास – इण्डिया : फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एण्ड आफ्टर – पृ-76
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