वह पहला पत्थर मंदिर का
- क्रांति कनाटे
माखनलाल चतुर्वेदी के व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों पर हम जब भी विविध कोणों से विचार करते हैं तो तीव्रता से यह अनुभूत होता है कि प्रसंगवश उल्लेख भले ही उनकी लेखनी के किसी एक आयाम तक सीमित रखना हो परंतु प्रकारांतर से उसका संबंध चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व के दूसरे आयामों से हो ही जाता है क्योंकि किसी भी बहुविध लेखक के भीतर कोई ऐसा ‘वाटर टाइट’ या ‘एअर टाइट’ कम्पार्टमेंट नहीं होता कि हम निश्चिंतता से कह सकें कि ये हैं ‘प्रभा’ और ‘कर्मवीर’ के संपादक हैं जो ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ के नाटककर से भिन्न हैं या कि ये हैं एक ओजस्वी वक्ता माखनलाल चतुर्वेदी जो ‘गंगा की बिदा’ के कवि नहीं हैं। ‘पुष्प की अभिलाषा’ का कवि उसी सहजता से ‘पर्वत की अभिलाषा’ भी कहता है; ‘सुन-सुनकर जग की कही और अनकही, मैं बेच रही दही’ के माध्यम से राजमार्ग छोड़कर पगडंडी गहने वाली की व्यथा को स्वर देने वाला कवि ‘अंगुलियाँ आज क्षितिज छू लेंगीं’ की तान भी छेड़ देता है और यही वह व्यक्ति है जो ‘कर्मवीर’ के संपादक के नाते 1920 से ’59 तक निरंतर समयानुसार राष्ट्रीय चेतना का शंखनाद भी करता है।
विदेश में पत्रकारों को कभी ‘वॉच डॉग’ कहा जाता रहा, अब वहाँ भी नारद को पत्रकारिता का ‘इतिहास पुरुष’ माना जा रहा है। इस तथ्य को सौ वर्ष पूर्व चतुर्वेदी जी ने पहचाना और नाटक ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ (1914-15) लिखा जिसमें नायक नारद विश्वयात्री हैं जो अपनी दूरदृष्टि से हर दुर्घटना स्थल पर पहले ही से पहुँच जाते हैं। यह नाटक भी तो उनकी सामयिक चिंता और राष्ट्रीय चेतना का परिचायक है और प्रामाणिक पत्रकारिता का एक अनुकरणीय उदाहरण भी।
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संपूर्ण रूप से जब हम उनके विशाल व्यक्तित्व और बहुमुखी सृजन पर विचार करते हैं तो लगता है आजीवन उनकी शिराओं में राष्ट्रभक्ति का ओज और कवि हृदय की तरलता प्रवाहित होती रही तभी तो अपने आरंभिक काल में भारतीय सामाजिक-राजनैतिक पत्रकारिता को तथा हिंदी साहित्य को माखनलाल जी के रूप में एक ऐसा विरल व्यक्ति मिला जिसने स्वतंत्रता के आंदोलन में सशस्त्र क्रांतिकारी की भूमिका भी निभाई और जो गांधी जी तथा विनोबा भावे के कार्य में भी सहभागी होता रहा। आज जब उनके अवसान के पूरे पाँच दशक पश्चात तथा ‘प्रभा’ के प्रकाशन के 105 वर्ष पश्चात हम माखनलाल जी के व्यक्तित्व तथा सृजन विचार करते हैं तो इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि आज एक बहुत बड़ा उच्चशिक्षा प्राप्त भारतीय युवावर्ग विदेशों में ‘साइबर कुली’ के नाम से जाना जाता है, आज आमेरिका में काले-गोरों के बीच भारतीयो का एक वर्ग है जिसे ‘व्हीट’ कहा जाता है और तब याद आते हैं माखनलाल चतुर्वेदी जो 1915 में ‘भारत की शिक्षा का प्रश्न’ में कह रहे थे- “यह कैसी शिक्षा है जो हमारे बच्चों की शक्ति रेखागणित और बीजगणित (इसे आज के संदर्भ में आईटी इंजीनियरिंग कहा जाए) के पढ़ने में खर्च करती है किन्तु उन्हें बनाती है बीस रुपए महीने पर बिकने वाला नक़ल-नवीस” (इसे आज के संदर्भ में पचास लाख के पेकेज वाला ‘साइबर कुली’ समझा जाए) बुनियादी तथ्य या कि तत्त्व कहाँ बदले हैं?
माखनलाल जी के हर अग्रलेख/लेख का तेवर और उसकी भाषा विषय के अनुरूप हुआ करती थी। सीधे-सीधे मुद्दों पर आकर अपनी बात साहस और स्पष्टता से कहनेवाले ये वे ही माखनलाल चतुर्वेदी हैं जो ‘प्रभा’ (29 नवंबर 1913) में शालीनता की सीमा में रह ऐसा व्यंग्य भी कर सकते थे-“स्वामी तुम्हारी आज्ञाओं के पालन के समय नाश होने तक भी हमारी ओर कृपा-सूर्य की एक भी किरण भेजने की दया न करो। हमें सहायक नहीं चाहिए, हमें खरीदी हुई धार्मिकता और माँगी हुई नपुंसक पवित्रता नहीं चाहिए, तेजरूप, आजानुबाहु, हमें सहायता न दीजिए, हमें सहारा न दीजिए, हम पर कृपा भी न कीजिए, हमें धर्म के पालन की बस शक्ति दीजिए।” परतंत्र भारत में लिखी ये पंक्तियाँ स्वतंत्र भारत के सत्ताधीशों पर भी क्या खरी नहीं उतरतीं ? देश स्वतंत्र हुआ और धर्म की परिभाषा ऐसी रूपांतरित हुई या कि विकृत हुई कि अपने धर्म की बात करनेवाले हम तत्काल ‘सांप्रदायिक’ हो जाते हैं।
‘प्रभा’ से आरंभ हुआ संपादन ‘प्रताप’ और ‘राष्ट्रीय वीणा’ के रास्ते ‘कर्मवीर’ (1920) तक पहुँचा और सही मायने में हिंदी में त्रिमुखी राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक पत्रकारिता के एक नए युग की अथश्री हुई, शुभारंभ हुआ। हम यहाँ पंडित माधवराव सप्रे का भी पुण्य स्मरण करते हैं जिन्हें माखनलाल जी अपना गुरु मानते थे तथा जो पेंड्रा रोड जैसे छोटे-से स्थान से ‘छतीसगढ़ मित्र’ (1900-1903) को निकालने का साहस कर चुके थे। ‘कर्मवीर’ की कीमत हुआ करती थी एक आना और पृष्ठ संख्या हुआ करती थी बारह, कॉलम 5, यह तो था उसका भौतिक स्वरूप परंतु अलौकिक थे वे अग्रलेख जो माखनलाल जी की लेखनी से निकलते और भारतीय जन-मानस को झिंझोड़ कर रख देते और आज भी जिनकी प्रासंगिकता बनी हुई है।
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“देश में दलों का ज़ोर है, दलों के द्वारा देश की भारी सेवा हुई है,....(पर) हम अपनी जनता के संपूर्ण स्वरूप के उपासक होंगे और अपना यह विश्वास दृढ़ रखेंगे कि कोई मनुष्य या समय ही नहीं, प्रत्येक मनुष्य और समूह मातृसेवा का समान अधिकारी है... उसमें छत्र धारण किए हुए और चँवर से शोभित सिर की वही कीमत होगी जो कृशकाय लकड़ी के भार से दबे हुए सिर की होगी....हम प्रशंसा और चाटुकारिता का हलाहल न पीते हुए ....वह कहने के लिए विवश रहेंगे जिसे हम सच मानते हों।” जबलपुर से 17 जनवरी 1920 को निकले ‘कर्मवीर’ के प्रथम अंक में प्रकाशित इन पंक्तियों को पुनर्जीवित करने का यह समय है, , मात्र ये ही नहीं इसके बाद भी माखनलाल जी ने अपने अग्रलेखों के माध्यम से निरंतर जो लोगों की सोई आत्मा में प्राण फूँकने का कार्य किया, उसका पुन: स्मरण आवश्यक है।
अपने आरंभ से ही ‘कर्मवीर’ भारतीय समाज और जन-मानस से जुड़े हर पक्ष के प्रति सजग था, माखनलाल जी की चतुर्दिक दृष्टि से कोई समस्या छुपी न रहती जिसका एक ज्वलंत उदाहरण है ‘कर्मवीर’ के संपादकीय में उन्होंने उठाया रतौना (सागर) के कसाईखाने में प्रतिदिन कत्ल होने वाले ढाई हज़ार पशुओं का मामला। 17 जुलाई ’20 के अपने अग्रलेख में माखनलाल जी ने इसका विरोध किया, देखते ही देखते यह एक राष्ट्रीय मुद्दा बना और 18 सितंबर को तो अंग्रेज़ सरकार को यह कसाईखाना बंद करना पड़ा। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में यह वह घटना है जिसके लिए ‘पंजाब केसरी’ लाला राजपतराय ने कहा था- “चतुर्वेदी जी ने और कार्य न करके यही कार्य किया होता तो भी वह राष्ट्रहित के लिए पर्याप्त था।” इसी के परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज सामाजिक मुद्दों को लेकर हमने निकाले ‘केंडल मार्च’ और राष्ट्रव्यापी हड़ताल या बंद कितने खोखले प्रतीत होते हैं। यह माखनलाल जी की निर्भीकता थी उनका आत्मबल था, नैतिक साहस था, राष्ट्र को समर्पित उनका कण-कण था जो उनसे कहलवा रहा था, “हम फक्कड़ सपनों के स्वर्ग लुटाने निकले हैं इस दुनिया में, किसी की फर्माइश के जूते बनाने वाले चर्मकार नहीं हैं हम।” लोकसभा-विधान सभा के टिकिट पाने के लिए जो गोटियाँ रखी जाती रही है वही खेल अब साहित्यिक अखाड़े में हो रहा है, पुरस्कार पाने और पाठ्यक्रम में आने के लिए लेखक जो राजनैतिक बिसात बिछाते हैं उनसे भला कौन अनभिज्ञ है!
मनुष्य-मनुष्य के बीच झगड़े का एक कारण अपने-अपने श्रेष्ठत्व को सिद्ध करने का है, मानव जब तक स्वकेंद्रित होगा समाज का कल्याण न कर सकेगा। इसे माखनलाल जी ने भारतीय अवधारणा के साथ कितने सहज रूप में यूँ प्रस्तुत किया, “जब तक मनुष्य समाज की कोई श्रेणी अपने सुख के साथ-साथ अन्य श्रेणियों के सुख का विचार रखती है, तब तक मानव समाज का संसार यंत्र किसी तरह की अड़चन के उपस्थित हुए बिना चलता रहता है परंतु जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के सुख की परवाह नहीं करता, जब तक एक श्रेणी दूसरी श्रेणी के दुखदर्द को नहीं समझती तब तक ‘अस्तित्व का झगड़ा’ चलता है। इसी झगड़े में से साम्यवाद का उदय हुआ है।” व्यक्ति और समूह दोनों के उत्तरदायित्व को परिभाषित करती ये पंक्तियाँ है ‘कर्मवीर’ के 22 मई 1920 के अग्रलेख से। स्थितियाँ सौ वर्ष बाद भी वैसी की वैसी ही बनी हुई हैं।
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माखनलाल जी की लेखनी ने ‘प्रभा और ‘कर्मवीर’ का संपादन करते हुए हर उस विषय को पारस स्पर्श किया जो हमारे राष्ट्रीय स्पंदन से जुड़ा था जो हमारी भारतीयता का एक अभिन्न अंग था। उन्होंने भारतीय विधवाओं की शिक्षा पर भी बल दिया और अपने अधिकार पर बलिदान देने वाली आंग्ल महिलाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की। उन्होंने उस भारतीय मुहम्मद शाह ‘विद्दुला’ को प्रकाश में लाया जिसने उस समय संस्कृत साहित्य में एम.ए. किया था। काश! आज भी कर्ज़ तले दबा आत्महत्या को बाध्य होता किसान, अपनी मेहनत से उगाई सब्जियाँ सड़कों पर फेंकता किसान, हजारों लिटर दूध राजमार्गों पर बहाता किसान और उसे आंदोलन के लिए बरगलाता विपक्ष एक बार समझ जाता जो माखनलाल जी ने 25 सितंबर 1926 को अपने संपादकीय में कहा था, “उसे नहीं मालूम धनिक तब तक जिंदा है, राज्य तब तक कायम है, ये सारी कौंसिलें तब तक हैं जब तक वह अनाज उपजाता है और मालगुजारी देता है।किसान में अज्ञान ने उसे अपनी ताकत से अनभिज्ञ रखा है, वह नहीं जानता जिस दिन वह इस अज्ञान से इंकार कर उठेगा उस दिन ज्ञान के ठेकेदार स्कूल फिसल पड़ेंगे, कॉलेज नष्ट हो जाएँगे और जिस दिन उसका खून चूसने के लिए न होगा, उस दिन यह उजाला, यह चहल-पहल यह कोलाहल न होगा, फौज, पुलिस, वजीर और वाइसराय सब कुछ किसान की गाढ़ी कमाई का खेल है।
सोलह वर्ष की आयु में वाराणसी में गंगा को साक्षी रख सखाराम गणेश देउसकर से जिस किशोर माखनलाल ने क्रांति की दीक्षा पाकर भेंटस्वरूप पिस्तौल॰ गीता तथा ‘वंदे मातरम’ की एक प्रति पाई थी उसका मान उन्होंने आजीवन रखा। यह अलग बात कि हाथ के पिस्तौल की ताकत लेखनी के शब्दों में आ गई और उनके अग्रलेख अन्याय के विरुद्ध अपनी लड़ाई लड़ते रहे। उस समय पर एक दृष्टि डालें तो लगता है माखनलाल जी अकेले ही थे जो पत्रकार और साहित्यकार की भूमिका में तो अग्रणी थे ही परंतु एक स्वतंत्रता सेनानी के नाते सश्रम कारावास का दंड भी भुगतते रहे। अज्ञेय कहते थे ‘ दु:ख जिन्हें तोड़ता नहीं उन्हें माँजता है’। किसी भी परिस्थिति में विचलित न होकर अपने अंतस की पीड़ा को स्वयं तक सीमित रख, लेखनी के इस अपराजेय योद्धा की कोई पंक्ति मात्र पंक्ति भर नहीं है वह आने वाली पीढ़ियों को अपने अस्तित्व और गौरव का बोध कराते ‘दीपस्तंभ’ की तरह है। कैसी विडम्बना है कि स्वतन्त्रता के पूर्व तीन दशक से भी अधिक और स्वतंत्रता के बाद भी पूरे एक तप बिना किसी लाग-लपेट के सम्पूर्णत: राष्ट्र को समर्पित पत्रिकाता के इस तेजपुंज को राज्यसभा की मनोनीत सदस्यता नहीं मिली और ‘पद्मभूषण’ मिला भी तो 75 वर्ष की आयु में 1963 में तब जब माखनलाल जी अस्वस्थ थे। 30 जनवरी ’68 को माखनलाल जी ने इस दुनिया को भौतिक रूप से अलबिदा कहा पर एक वैचारिक थाती छोड़ गए हमारे लिए। ‘कृष्णमय राम’ के भक्त माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा दी गई जीवन की यह परिभाषा निश्चित ही हमारा मार्ग प्रशस्त करेगी- “जीवन को हम एक रामायण मान लें। रामायण जीवन के प्रारंभ का मनोरम बाल काण्ड ही नहीं किन्तु करुण रस से ओतप्रोत अरण्य काण्ड भी है और धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्ज्वलित लंका कांड भी।”
यह प्रसंग संभवत: आपको ‘आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट’ लगे किन्तु उल्लेख किए बिना नहीं रह सकती क्योंकि निमाड़ माखनलाल जी की कर्मभूमि रही है तो मेरी जन्मभूमि। इस नाते उनके प्रति गौरव और अभिमान की मेरी भावना कुछ अधिक स्नेहादर सिक्त है। माखनलाल जी के एक भाषण से संबंधित संस्मरण शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ के शब्दों में तब का, जब वे काशी में विद्यार्जन कर रहे थे, “हम एम. ए. के छात्र यह देखकर विस्मित और अवाक रह गए कि काशी के दिग्गज पंडितों की भूमि में निमाड़ का एक जलस्रोत सबकी हँसी उड़ाकर चला गया।” माखनलाल जी सच ही तो कहते थे – मैं पहला पत्थर मंदिर का/ अंजाना पथ जान रहा हूँ/ गढ़ूँ नींव में, अपने कंधों/ पर मंदिर अनुमान रहा हूँ।” माखनलाल जी ने जलाई राष्ट्रीयता की ज्योति को हमारा नमन है।
संदर्भ ग्रंथ: ‘माखनलाल चतुर्वेदी’, ‘यात्रा पुरुष’(श्रीकांत जोशी), ‘माखनलाल व्यक्ति और काव्य’ (डॉ. रामखिलावन त्रिपाठी), माखनलाल चतुर्वेदी (ऋषिजैमिनी कौशिक ‘बरुआ’)
क्रांति कनाटे
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