अद्भुत हैं रस गंगाधर और गंगा लहरी
गंगालहरी और कवि पद्माकर
शिवचरण चौहान
यदि कवि जगन्नाथदास की गंगा स्तुति रस गंगाधर के श्लोक आज तक गूंजते हैं तो पद्माकर की गंगा लहरी को कौन भूल सकता है। दोनों राजाओं और मुगल दरबार के कवि और ठाठ भी राजसी।
पद्माकर का असली नाम प्यारेलाल भट्ट था। वह आंध्र के तैलंग ब्राह्मण थे। उनके पिता दक्षिण भारत से आकर सागर में बस गए थे और मध्य प्रदेश के सागर में उनका जन्म हुआ। किंतु रामचंद्र शुक्ल ने पद्माकर को बांदा का निवासी माना है। बांदा दरबार के कवि थे पद्माकर। पद्माकर का जन्म 1753 में हुआ था और 80 वर्ष की उम्र के बाद 1833 में कानपुर में उनका निधन हुआ। पद्माकर रीतिकाल के रस सिद्ध कवि थे। मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश और राजस्थान के अनेक राज दरबारों में उनकी पहुंच थी। उन्हें हाथी, सोना चांदी और कई गांव की जागीर मिली थी वह राजाओं की तरह रहते थे और राजाओं की आर्थिक मदद भी किया करते थे। तमाम सुंदरिया उनके आगे पीछे घुमा करती थीं।
पद्माकर बुढ़ापे में कुष्ठ रोग से पीड़ित हुए तो गंगा की याद आई। वह पैदल चलकर कानपुर के गंगा तट पर पहुंचे। कहते हैं रास्ते में उन्होंने गंगा लहरी की रचना की। पद्माकर तैलंग ब्राह्मण थे।
अपनी अनुपम काव्य प्रतिभा के बलवपर इन्हें अनेक राज दरबारों में प्रतिष्ठित पद प्राप्त होते रहे।
पद्माकर जब कुष्ठ रोग से ग्रसित हो गए तो ग्वालियर-नरेश दौलतराव
सिन्धिया ने अत्यन्त सम्मानपूर्वक इन्हें अपने नगर में रखा । कुष्ठ रोग-निवारण हेतु अनेक उपचार किये गये, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। अन्ततः गंगा के भक्त कवि पद्माकर ने अपना शेष जीवन गंगा तट पर ही व्यतीत
करने का निश्चय किया। इसके लिये इन्होंने कानपुर का गंगा तट का चयन किया। कहा जाता है कि जब ये कानपुर के समीप गंगा की शरण में जा रहे थे तो रास्ते में अपने रोग को सम्बोधित करके कविता में कह रहे थे-
जैसे मोकों कई क हत डरात हुतो
ऐसो अब लोकों हाल कई हरिहीं।
पद्माकर उमेडि करि तोसों भुजदंड ठोकि लरिहौं।
चलो चल, चलो चल, नेकु नाहि बिचलू होई बीच ही को बीच नीच तो कुटुंब को कचरि हौं।
एरे दगादार मेरे पालक अपार तोहि।गंगा की कछारन में पछार छार करिहौं।
ऐसा बताया जाता है कि उसी समय से पद्माकर की स्थिति सुधरने लगी और कुछ समय बाद गंगा जल के सेवन से पद्माकर का कुष्ठ रोग ठीक हो गया।
इस घटनासे गंगाके प्रति पद्माकर की आस्था गंगा में और दृढ़ हो गयी। पद्माकर कानपुर में ही रहने लगे और फिर 80 वर्ष की आयु में सन 18 33 में कानपुर में ही पद्माकर की मृत्यु हो गई। पद्माकर के अनेक रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हुई उनमें गंगा लहरी भी प्रमुख है।
पंडितराज जगन्नाथ दास शाहजहां के दरबार के दरबारी कवि बताए जाते हैं। शाहजहां ने उन्हें दक्षिण से बुलाकर दारा शिकोह को संस्कृत सिखाने के लिए रखा था। जगन्नाथ दास भी तैलंग भट्ट ब्राह्मण थे।
जगन्नाथ दास ने मुगल दरबार के बहुत से विद्वानों को हरा दिया था। मुगल दरबार से उन्हें बहुत संपत्ति मिली थी और राजसी जीवन व्यतीत करते थे। शाहजहां ने प्रसन्न होकर अपने दरबार की एक सुंदर कन्या लवंगी उन्हें उपहार स्वरूप दी थी। औरंगजेब ने जब दारा शिकोह की हत्या करवा दी तो पंडित राज जगन्नाथ काशी वाराणसी में आकर रहने लगे थे। एक मुस्लिम कन्या के साथ शादी करने के कारण बनारस के ब्राह्मणों ने पंडितराज जगन्नाथ को जाति से निकाल दिया था। संस्कृत भाषा की एक विद्वान अप्पय दीक्षित महाराज सहित अनेक ब्राह्मण पंडितराज जगन्नाथ से बहुत जलते थे। एक दिन पंडित राज जगन्नाथ रोज-रोज की खिच खिच से खूब कर लवंगी के साथ गंगा तट पर गए। लवंगी ने कहा था पंडित राज आपको काशी में अपनी योग्यता सिद्ध करनी पड़ेगी। जिस समय जगन्नाथ गंगा तट पर गया गंगा 52 सीढ़ियां नीचे बह रही थी
वह अपने को पवित्र सिद्ध करने के लिए गंगा की स्तुति में श्लोक सुनाने लगे। श्लोक इततने मार्मिक थे की गंगा जी की धारा सीढ़ियों की तरफ बढ़ने लगी। पंडितराज जगन्नाथ ने 52 श्लोक सुनाए। 52 वा श्लोक पूरा होते ही गंगा जी की धारा ने पंडितराज जगन्नाथ और लवंगी को अपनी गोद में समाहित कर लिया। काशी के पंडित यह चमत्कार देखकर अचंभित रह गए और पंडितराज जगन्नाथ को ब्राह्मण स्वीकार कर लिया। किंतु पण्डितराज जगन्नाथ और लवंगी तो सदा सदा के लिए गंगा में विलीन हो गए थे।
आज भी ब्राह्मण और विद्वान पंडितराज जगन्नाथ द्वारा रचित रस गंगाधर के श्लोकों से गंगा जी की पूजा अर्चना और आरती करते हैं।
गंगा की महिमा निराली है। आदि शंकराचार्य की गंगा स्तवन के अतिरिक्त संस्कृत और हिंदी के अनेक कवियों ने गंगा पर कविताएं गीत छंद लिखे हैं।
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