नई दुनिया में प्रकाशित रचना |
बात सपनों, फलसफों और राजनीति के आदर्शों तक सटी नहीं रहती। महत्वाकांक्षा के परिंदे चोंच मारे बगैर नहीं रहते। कठफोड़वा तो मजबूत डाली को ही छेद देता है। अपनी डाली के फलने-फूलने के आसार न हो तो नयी डाल पर सपनों की उड़ान। चिपके रहो तो पंख ही कुंद।अपने हिसाब से अपना एलजेब्रा और अपनी केमेस्ट्री।आखिर क्या रखा है खिताबविहीन समर्पण में। शीर्ष- पायदानविहीन प्रतिष्ठा में। तालीविहीन भाषण में। मुकुटविहीन सत्ता में। मौसम भांपो और नये झुंड से गठजोड़ा बांधो।
छलांग की सफलता किसे नहीं भाती। ऐसे में तो गढ्ढों-गड्ढ़ों के बीच की छपाक् संस्कृति ही खुशनसीब है। इस गड्ढे में पानी कम हुआ, तो दूसरे गड्ढे में नया बैनर लगाकर छलांग भर ली। टर्राना तो जबानी अंदाज है। बस नया शब्दकोश डाउनलोड कर दिया। कभी पुराने भी स्कोप की तलाश करते हैं। कुएँ से आकाश को निहारना बेहद मुश्किल। भाग्य ही उन्हें धूप दिखा जाए। गड्ढों का अपना सौभाग्य! छत पर ही आकाश | बस पुराना झाड़-फूंक कर दो। पुराने को डिलीट कर दो। नये गड्ढे की नयी इबारत। नये संगी साथी| नये गठबंधन | लोकतंत्र की यही खासियत है। अभिव्यक्ति की आजादी। वजूद के अवसरिया तेवर ! अपनी ही पहचान को नयी रंगत देने की आजादी।
ऐसा नहीं कि हर कोई कवच में अटे ही पसंद करता हो। कइयों ने कवच चीर दिये। पहचान बनी। लोक प्रतिमा भी। क्रांति-प्रतिमा भी। ये लोकतंत्र की चुनावी तारीखों कायल न थे। पर सच्चा लोकतंत्र कुर्सी- दिखेता होता है।अक्ल की तीरंदाजी यह कि जनहितैषी आंदोलन कोई करे| कवच को कोई तोड़े। मगर उसी मंच से अपनी कुर्सी की व्यूह रचना कोई कर लें जाए। चित्र उनका, आँगन अपना। बने रहें आंदोलनकारी दार्शनिक विचार- पुरुष| पर कुर्सी का अपना कौशल । दर्शन और सत्ता का अजब मेल। दर्शन को खोकर सत्ता पाने अजब खेल।
छलांग लगाने का मौसमी हवा-
बोध न हो तो आदमी वहीं धरा रह जाता है। गढ्ढ़े में पानी कम रह जाए। हवाओं के अंदाज तूफानी हों | समन्दर उछाले मारने लगे। धर्मामीटर -बेरोमीटर तरह हिचकोले नापने का डेमोक्रेटिक -मीटर तो जरूरी है। यारी- दोस्ती की गलबहियाँ चाहिए ही। जो यह गुनगुनाता रहेगा-" बीते हुए लम्हों की कसक याद तो होगी" तो वह सरपट दौड़ नहीं पाएगा, लोकतंत्र के एक्सप्रेस- वे पर।पर लम्हों की कसक में भी उजाले का रोशनदान हैं- "अभी अलविदा मत कहो दोस्तों। जाने कहाँ फिर मुलाकात हो "। घर-वापसी उसी पार्टी में करनी पड़ जाए तो?सत्ता के खिड़की-दरवाजे इतने हैं कि गाँठों के बावजूद कब गठबंधन हो जाए |
वजूद की तलाश लोकतांत्रिक अस्मिता है। यह पछतावा ही नाकामी है कि आज इस चोटी पर । कल उस चोटी पर ! आखिर तलहटी के बजाय शिखर की तलाश ,अवसर और मौसम की तीरंदाजी है।लोग पता नहीं क्यों उपमाएँ देते फिरते हैं। मेंढ़कों की छलांग। गिरगिटिया रंग। बहुरूपिया।बिचारे नये नये ओमीक्रोन, डेल्टाक्रोन भी लपेटे में। मगर हिन्दी में तो कुर्सी-क्रोन का मुकाबला नहीं। शालीनता का नया नाम, कुर्सी-क्रोन के डेमोक्रेटिक वेरिएंट्स।और आदमी का वजूद है कि गड्ढों में छलांग लगाता रहे। रंगों के दुपट्टों में खिलता रहे। पिछले गड्ढों में रहने के लोकतांत्रिक अफसाने जुटाता रहे। इतिहास को भुलाता रहे। पुराने रंगों को पोतकर नये रंगों को आजमाता रहे। न चेहरे पर शिकन, न कुर्सी की खिसकन।
पर सत्यानाश हो इस टेक्नॉलॉजी का। भाषणों -मुलाकातों के, कसमें-वादों के सारे पुराने-नये विडियो-ऑडियो में कैद। और लोग भी कितने फुर्सत में। इस वजूद की पुरानी आत्मा के विडियो- ऑडियो चलाते रहते हैं।नये झंडे- डंडे में पुराने ऑडियो-वीडियो चिड़चिड़ाते हैं। विपक्षी फब्तियां गिलबिला कर देती हैं। पर गरियाती आवाज नयी फूंकफांक में जवाबी तीर दनादन कर देती है। नये अवसर और नये नारों में पुराने रंग सुखाती आत्मा नये अवसर के गीत में चहकना चाहती है।इनके शिकवे गीले होते हैं।और पछतावे निहायत सूखे। नये वजूद को गढ़ते हुए।
बी. एल. आच्छा
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