भाषा और लिपि दोनों एक दूसरे से गहरा संबंध रखती हैं। लिपि के बिना भाषाएँ जीवित हो सकती हैं। किंतु भाषा के बिना लिपि की सार्थकता समाप्त हो जाती है। भाषा और लिपि के संदर्भ में दो और सत्य महत्वपूर्ण हैं। पहला सत्य लिपि भाषा को शाश्रत बना डालती है। दूसरा लिपि की उत्पत्ति भाषा के बाद ही होती है। इस के दो महत्वपूर्ण प्रमाण प्राप्त होते हैं कि आज भी लिपिहीन भाषाएँ हैं। इस के साथ साथ किसी लिपि में लिखित प्राचीन ग्रंथ प्राचीन भाषाओं के नमूने प्राप्त करने के लिए एक मात्र साधन रह गए हैं। इस के अतिरिक्त भाषा से प्रयोजन शिक्षित और अशिक्षित दोनों प्राप्त कर सकते हैं। किंतु लिपि से प्रयोजन सिर्फ शिक्षित लोगों को ही प्राप्त होता है। असल में शिक्षित और अशिक्षितों को अलगानेवाला प्रमुख तत्व लिपि ही है। शिक्षा के आरंभ में भी पहले भाषा सिखायी जाती है। उस के बाद ही लिपि सिखायी जाती है। मातृभाषा से अलग भाषाओं को ही उन की लिपि समेत एक साथ सिखायी जाती है। द्वितीय भाषा और विदेशी भाषाओं को सीखने लिए भी दोनों को एक साथ सीखने की जरूरत होती है।
एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है। वैसे ही एक लिपि में कई भाषाएँ लिखी जा सकती हैं। प्रयोजन की दृष्टि से प्रत्येक भाषा के लिखित रूप और व्यावहारिक रूप दो अलग होते हैं। व्यावहारिक भाषा से प्रयोजन पानेवाले अशिक्षित लोग कभी उसे लिखने की कोशिश नहीं करते हैं। वैसे ही लिखित भाषा से प्रयोजन पानेवाले लोग उसे सदा लिखकर ही प्रयोजन प्राप्त करते हैं। भाषा और लिपियों का इतिहास यह भी स्पष्ट करता है कि एक भाषा के लिए समय समय पर विभिन्न लिपियों का प्रयोग भी किया गया है। वैसे ही एक लिपि में समय समय पर विविध भाषाएँ लिपिबद्ध की गयी हैं।
भाषा और लिपि के संबंध को सुदृढ बनानेवाला प्रमुख तत्व अनुकूलता है। एक लिपि सारी भाषाओं को लिपिवद्ध करने के लिए अनुकूल नहीं होती है। वैसे ही एक भाषा सारी लिपियों में लिपिबद्ध नहीं की जा सकती है। यह अनुकूलता लिपि की और भाषा की विशेषताओं पर निर्भर होती है। उदाहरण के लिए विकसित आधुनिक लिपियों के दो मुख्य प्रकार माने जाते हैं।
१. ध्वनिमूलक लिपि २. अक्षरमूलक लिपि। ध्वनिमूलक लिपि वह है यह जो भाषा के उच्चरित सारी ध्वनियों को लिपिबद्ध करने के लिए आवश्यक ध्वनि चिह्नों को स्वतंत्र रूप से रखती हो। अक्षर मूलक लिपि वह है जो भाषा के उच्चरित अक्षरों को ही लिपिबद्ध करने के लिए आवश्यक अक्षर चिह्नों को स्वतंत्र रूप से रखती हो। लिपियों के इन दोनों प्रकारों में एक प्रमुख अंतर यह है कि अक्षरमूलक लिपि के अनुकूल भाषाओं को ध्वनिमूलक लिपियों के द्वारा लिपिबद्ध किया जा सकता है। किंतु ध्वनिमूलक भाषाओं अक्षरमूलक लिपियों में लिपिबद्ध करना असंभव है। उदाहरण के लिए अक्षरमूलक भारतीय भाषाओं को ध्वनिमूलक लिपि रोमन (अंग्रेजी लिपि) लिपि में आसानी से लिखी जा सकती हैं। वहीं ध्वनिमूलक भाषा अंग्रेजी को भारतीय लिपियों में लिखना कठिन है। क्यों कि अंग्रेजी भाषा को प्रत्येक ध्वनि का महत्व रखनेवाली रोमन लिपि में ही ठीक ढंग से लिखा जा सकता है। अतः लिपि और भाषा का संबंध मुख्यतया दोनों के बीच की अनुकूलता पर निर्भर होती है।
हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के बीच ऐसी अनुकूलता है क्या? काफी लंबे समय से हिंदी भाषा देव नागरी लिपि में लिखी जा रही है। क्या उच्चरित हिंदी भाषा उस के लिखित रूप से निकट है? हिंदी भाषा के लिखित रूप को पूर्ण रूप से देवनागरी लिपि लिपिबद्ध कर पा रही है? ये कुछ प्रश्न हैं जिन के तार्किक समाधान ढूँढना आवश्यक है। देवनागरी लिपि भारत की प्राचीन लिपियों में एक है। वैसे खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियाँ भी भारत की प्राचीनतम लिपियाँ मानी जाती हैं। भारत में लिपियों का इतिहास भी काफी प्राचीन है। भारत के विभिन्न प्रदेशों में खुदवाई के समय प्राप्त सरस्वती की मूर्तियाँ इस के साक्ष्य प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। सरस्वती मूर्ति के एक हाथ में स्थित पुस्तक यह स्पष्ट करती है कि भारत में लिखने की परंपरा काफी प्राचीन है। खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियों के प्राचीन नमूने प्राप्त हुए हैं। खासकर ब्राह्मी लिपि भारतीय भाषाओं के लिए विकसित लिपि हैं । सारी भारतीय भाषाएँ ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती थी। इस के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। इस का मुख्य कारण ब्राह्मी लिपि के मूल चिह्न और मात्राएँ भारतीय भाषाओं को लिपिबद्ध करने की अनुकूलता रखना ही है।
देवनागरी लिपि काफी प्राचीन काल से भारतीय भाषाओं के लिए प्रयुक्त हो रही है। वैदिक संस्कृत, संस्कृत भाषाओं के साथ साथ उन से संबंध रखनेवाली अपभ्रंश भाषाएँ, प्राकृत भाषाएँ, आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में मराठी और हिंदी जैसी भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जा रही हैं। देवनागरी लिपि मूलतः प्राचीन नागरी लिपि से विकसित है। प्राचीन नागरी की दक्षिणी शाखा से आज दक्षिण में प्रचलित तेलुगु, कन्नड, तमिल, मलयालम लिपियों का विकास हुआ है। वैसे ही उत्तरी शाखा से उत्तर भारत की भाषाओं के लिए अनुकूल देवनागरी के साथ साथ गुजराती, राजस्थानी, उरिया, असमी आदि लिपियों का विकास हुआ है। विद्वानों का विचार है कि देव नागरी का इतिहास लगभग ईसा पूर्व 3 हजार सालों से भी पुराना है।
हिंदी भाषा को लिपिबद्ध करने के लिए देवनागरी लिपि की पात्रता :
काफी प्राचीन काल से ही हिंदी के लिए देवनागरी लिपि प्रयुक्त हो रही है। खासकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के रूप में विकसित हिंदी के लिए देवनागरी लिपि प्रयुक्त हो रही है। भारतीय संविधान में भारत की राज भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार करने के साथ साथ उसे लिपिबद्ध करने के लिए देवनागरी लिपि को ही स्वीकार कर लिया गया है। तब से हिंदी और देवनागरी लिपि का और विकास हुआ है।
हिंदी भाषा के लिए देवनागरी लिपि की अनुकूलता की विशेषताएँ :
1. हिंदी उच्चरित भाषा में जितने सारे अक्षर हैं उतने अक्षर चिह्न देवनागरी लिपि में हैं। जिस रूप में हिंदी भाषा उच्चरित होती है उसी रूप में लिखने की व्यवस्था है।
2. हिंदी उच्चारण में तथा देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध करने में सामंजस्य को देखा जा सकता है। यानी जिस रूप में हिंदी भाषा उच्चरित की जाती है। देवनागरी में उसी रूप में लिखने की क्षमता
3. वर ध्वनियों के जितने सारे रूप हिंदी भाषा में हैं तथा व्यंजन ध्वनियों के जितने सारे रूप हिंदी भाषा में हैं उन सभी को लिखने के लिए देवनागरी लिपि में चिह्न हैं । हिंदी में तीन प्रकार की स्वर ध्वनियाँ हैं।
1. मूलस्वर ध्वनियाँ 2. दीर्घ स्वर ध्वनियाँ 3. संधि के कारण बनी स्वर ध्वनियाँ , जिन्हें संयुक्त स्वर ध्वनियाँ भी कहा जाता है। दो स्वर ध्वनियों के मेल से बनी स्वर ध्वनियों को संधि स्वर या संयुक्त स्वर कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए ए - ऐ , ओ - औ ऐसी ही ध्वनियाँ हैं। यानी
हिंदी की मूल स्वर ध्वनियाँ - अ , इ , उ , ऋ
हिंदी की दीर्घ स्वर ध्वनियाँ - आ , ई , ऊ
हिंदी की संयुक्त स्वर ध्वनियाँ - ऐ , औ
स्पष्ट है कि हिंदी भाषा की इन स्वर ध्वनियों के लिए देवनागरी लिपि में अलग अलग ध्वनि चिह्न प्राप्त होते हैं।
4. हिंदी भाषा की अनुस्वार ध्वनियाँ, अर्धानुनासिक और विसर्ग रूप हैं उन्हें लिपिबद्ध करने केलिए देवनागरी में लिपि चिह्न हैं। हिंदी में स्वर ध्वनियों के साथ साथ अनुस्वर ध्वनियाँ, अर्धानुनासिक और विसर्ग ध्वनियों की अभिव्यक्ति के लिए अलग अलग ध्वनि चिह्न देव नागरी लिपि में हैं। हिंदी में ये चार हैं। इन चारों में दो संस्कृत से आगत हैं । वे विसर्ग , पूर्णानुस्वर हैं। एक हिंदी में विकसित अर्धानुस्वर है । चौथा अंग्रेजी से आगत ध्वनि के हिंदी में बनाया गया एक और ध्वनि चिह्न है । वे इस प्रकार हैं विसर्ग ( : ), अनुस्वार ( -ं ), अर्धानुस्वार ( - ) और ( - )
इन स्वर ध्वनियों की मात्राएँ व्यंजन ध्वनियों के साथ मिल कर व्यक्त करने के लिए भी देवनागरी लिपि में अलग अलग ध्वनि चिह्न हैं।
स्वर: अ आ इ ई ऐ उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
5. देवनागरी लिपि की सब से बडी विशेषता है कि उस में स्वर और व्यंजन ध्वनियों के योग से पूर्ण अक्षरों का होना। देवनागरी लिपि अक्षरमूलक लिपि होने के कारण यह संभव हो सका है । देवनागरी लिपि के अक्षर चिह्न में स्वर और व्यंजन दोनों ध्वनियाँ मिली रहती हैं। उदाहरण के लिए 'क' ध्वनि चिह्न में 'अ' ध्वनि और हलंत के साथ 'क' ध्वनि दोनों होती हैं। दोनों मिलकर ही अक्षर 'क' बनती हैं। इस रूप में देवनागरी की सारी की सारी व्यंजन ध्वनियाँ अपने संयुक्त रूप में ही लिखी जाती हैं। उन को निम्न चिह्नों के साथ अंकित किया जाता है।
क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह
हिंदी भाषा की इन व्यंजन ध्वनियों के साथ एक और विशेषता है कि खडी पाई का प्रयोग। यानी ' ॉ ' चिह्न है। खडी पाई के आधार पर इन ध्वनि चिह्नों को चार प्रकारों में रखा जाता है। मोटा वर्गीकरण तो खडी पाई सहित और खडी पाई रहित ध्वनि चिह्न हैं। फिर खडी पाई सहित चिह्नों में अक्षर के बीचों में अंकित होनेवाले, अक्षर के अंत में अंकित होनेवाले तथा अक्षर के अंत में अलग से लिखे जानेवाला चिह्न है। जैसे -
खड़ी पाई रहित: ङ छ ट ठ द र ह
खडी पाई वाले वर्ग में अक्षर के बीच में खडी पाई का होना: क फ
अक्षर के अंत में अक्षर के साथ मिले हुए चिह्न:
ख घ झ ञ
त थ ध न
प भ म य ल
व ष स
अक्षर के अंत में अलग से लिखी जानेवाली खडी पाई: ग ण श
6. विशिष्ट संयुक्त व्यंजन त्रज्ञ, क्ष आदि के उच्चारण अनुकूल लिपिबद्ध करने की व्यवस्था देवनागरी में होना हिंदी भाषा के लिए अत्यंत अनुकूल तत्व है। इन तीनों में दो दो ध्वनियाँ मिली हुई हैं। लेखन इन का मिला कर किया जाता है। जैसे ' त्र ' में ' त ' और ' र ', ज्ञ में ' ग ' और ' य ', क्ष में ' क ' और ' ष ' मिले हुए हैं ।
7. हिंदी भाषा में दो व्यंजन ध्वनियों को मिला कर उच्चारण करने की परंपरा है। उच्चारण दो व्यंजन ध्वनियों का एक साथ होने पर उन को उसी रूप में लिखे जाने की व्यवस्था भी लिपि में होनी चाहिए । देवनागरी लिपि में ऐसी व्यवस्था होने केकारण देवनागरी लिपि हिंदी भाषा की इस विशेषता के लिए अत्यंत अनुकूल पडती है। किंतु इस के लेखन के लिए देवनागरी लिपि में एकरूपता नहीं है।
देवनागरी लिपि में अंतर्राष्ट्रीय संख्याओं को जोड़ कर उन को हिंदी भाषा के लिए स्वीकार कर लिए गए हैं। देवनागरी लिपि में सुधार और परिवर्तन समय समय पर होते रहे हैं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय और अन्य सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के सुझावों के आधार पर हिंदी भाषा के लिए निम्न देव नागरी लिपि के चिह्न प्रयोग में है।
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ अं अः अँ अँ
क ख ग घ ङ क ख ग
च छ ज झ ञ ज़
ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़)
त थ द ध न
प फ ब भ म (फ़)
य र ल व (ळ)
श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ
इन देवनागरी लिपि के चिह्नों के साथ हिंदी भाषा अत्यंत समृद्ध और सफल भाषा के रूप में विकसित हुई है।
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