कहानी लपटें : चित्रा मुदगल
Laptein Story by Chitra Mudgal
लपेटें : चित्रा मुदगल
चित्रा मुदगल की कहानी ‘लपेटें’ है। ‘सांप्रदायिकता दंगों में अक्सर बहुतों के पूरे कौटुंबयजन समाप्त हो जाते है। पुरखों को कोई पानी देने वाला भी नहीं बचता।‘ परंतु कुछ जीवित है; यही आश्चर्य है। मुंबई के अंधेरी इलाके में रहनेवाले पति-पत्नी और उनकी जुड़वा लड़कियाँ और तीसरी कक्षा का सामान्य विद्यार्थी मनुवा यानी राजकिशोर यादव भी उसी प्रकार जिन्दा है। दहशत के माहौल में दंगाइयों, सांप्रदायिक किस्म के राजनेताओं से समझौता कर वे जीते है। कहानी में लोक-सेवा पार्टी हिन्दुत्व का समर्थन करती है, हिंसा को आश्रय देती है, केंद्र की राजनीति को राज्य में लागू करने पर आमादा है। इसके नेता कहते है, “हमारी जात-बिरादरी के लोग अपनी ही जगह बेरोजगार हो कुली, कुबड़ी, क्लर्क बने इनकी चाकरी पर मजबूर हैं... क्यों? यह सब केंद्र की राजनीति है, हमारे लोगों को मजबूर और अशक्त बनाये रखने की। लेकिन अब हम उन्हें सावधान करना चाहते हैं कि अब हमारी जगह ओर हमारी राजनीति चलेगी, उनकी नहीं। हम नपुंसक नहीं हैं। अपने हितों को अब और तिरस्कृत होता नहीं देख सकते। अपनी जात-बिरादरी के लोगों की हित-चिंतन की खातिर, उनके अधिकारों के संरक्षण की खातिर हमने अपनी पार्टी गठित की है, लोक-सेना...!” अमची मुंबई अमचे माणस’ यही लोक-सेना का आह्वान है।“
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लोक-सेना पार्टी वाले सभी घरों से पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करते हैं परंतु एक हिंदी-भाषी पति-पत्नी के घर छोड़ते है। वे दोनों चिंतित हो जाते है। सहमें स्वर में पत्नी पति से शिकायत करती है। चंदा देने का आग्रह भी वह उन्हें करती है। क्षुब्ध स्वर में पति इस पार्टी की असलियत को सामने लाता है,”पारसाल हुए दंगों को भूल गयी? भूल गयी इनका दोमुंहा चरित्र। अपने धरम के लोगों को सांप्रदायिक ताकतों के क़ातिलाना हमलों से बचाने की आड़ में इनकी पार्टी में शामिल गुंडों ने उन्हीं पर नहीं, हम लोगों पर भी खुन्नस नहीं उतारी। नहीं लूट ली दुकानें? नहीं फूँके तबेले?”
कहानी इस जगह भाषिक सांप्रदायिकता को व्यक्त करती है। लोक-सेना पार्टी ने हिंदू-मुस्लिम दंगों की आड़ लेकर कई उत्तरप्रदेशियों, बिहारियों को, उनकी दुकानों को लूटा। रघुनंदन यादव उर्फ दूध वाले भैया वितृष्णा में अपनी पत्नी को फटकारते, जातीय, भाषिक संघर्ष को सामने लाते हैं और साथ ही लोक-सेना पार्टी के नेताओं की पोल भी खोलते हैं! “औरत जात! अखबार पड़े तो जाने इनकी पोल-पट्टी! इनके छद्दम! विधानसभा में उत्तर भारतीय विधायकों ने इनके जुल्मों के खिलाफ हंगामा खड़ा कर दिया तो अपनी जाति के उद्धारक नेताजी भारी-भरकम शब्दों में अपनी गुंडों की वकालत करने पर उतर आये कि आत्मरक्षा के लिए किए गए प्रतिवाद स्वरूप संभव है कि संयोगवश तबेले, दुकानों ही न फूँके होते- घर भी फूँके गए होते। विधायकों ने तर्क दिया कि संयोग एक खास वर्ग जाति के लोगों के साथ ही क्यों घटा तो पलटकर उन्होंने उत्तर भारतीय विधायकों को फटकारा कि वे तिल का ताड़ बना कर जातीय सांप्रदायिकता की आंच पर अपनी रोटी सेंकने की कोशिश कर रहे हैं।“ पति अपनी पत्नी को कहता है- “अपने निर्णय पर एक बार फिर से विचार कर लो, नेताजी को खोली में आमंत्रित करने का मतलब समझती हो ना। और चंदे की रकम आएगी कहां से।“ पत्नी अपने आप को रोक नहीं पाती। भावावेश में काम्पति वह कहती है, “जान है तो जहान, पैसों का क्या : कमा लेंगे। बाल-बच्चों की जान कमा सकते हो? बोलो... बाबू के डॉक्टरी के दाखिले के लिए जो... हजार रुपए जुगाड़ कर बैंक में डालने के लिए रखवा गए थे तुम... रोक लिए थे हमने? चंदे में वही दे दो!” पत्नी के मन में उनके प्रति भय है, अपने बच्चे के लिए चिंता मनुवा यानी राजकिशोर यादव को किस प्रकार इन्हीं लोगों ने आग की लपटों में झोंका था--- वह पति को बताती है। दूधवाले भैया सारी बात समझ जाते हैं। पर्टीवाले को चंदा देने घर बुलाने जाते है। सामान्य आदमी विवशता, पीड़ा को सहकार अपने आपको, परिवार को बचाने के लिए अपने ही सिद्धांतों से समझौता कर लेता है और आक्रामक पार्टी के सामने घुटने टेक देता है। प्रस्तुत कहानी 1993 के बाद मुंबई-विस्फोट में ‘लोक-पार्टी’ द्वारा की जाने वाली हिंसा तथा उसके प्रभाव को व्यक्त करती है। उनके नेताओं को बेनकाब करती है। ये ‘लोक-पार्टी’ कौन है इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है।
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