Sikka Badal Gaya kahani by Krishna Sobti
सिक्का बदल गया : कृष्णा सोबती
‘सिक्का बदल गया’ कहानी कृष्णा सोबती द्वारा लिखित है, कृष्णा सोबती ने विभाजन से संबंधित कई कहानियां लिखी है जिनमें ‘सिक्का बदल गया’ कहानी सबसे महत्वपूर्ण है, लेखिका ने इस कहानी में संकेतों के माध्यम से विस्थापित व्यक्ति की पीड़ा को दिखाया है, सदियों से साथ रह रहे व्यक्तियों में विभाजन किस प्रकार से सांप्रदायिक भावनाएं भर देता है। सांप्रदायिक मनोवृति को सीधे नहीं उठाया गया है।
विभाजन के बाद दो नव स्वतंत्र राष्ट्र जब अस्तित्व में आ जाते हैं तो सर्व प्रमुख समस्या आबादी के अदला-बदली के रूप में सामने आती है। बाहुसंख्याक वर्ग का अल्पसंख्याक वर्ग के प्रति व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बचे हिंदूओं को कैम्प में पहुंचाने की प्रक्रिया को यह कहानी समेटे हुए है।
खद्दर की चादर ओढ़ शाहनी जब दरिया किनारे पहुंचती है तब सुबह हो रही थी, आसमान में लालिमा फैल गई थी, चनाब का पहानी आज भी पहली तरह ही ठंडा था और सामने कश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ पिघल रही थी, लहरें एक-दूसरे से टकरा रही थी, लेकिन दूर-दूर तक फैली रेत आज शाहनी को खामोश लग रही थी तथा रेत में अनगिनत पैरों के निशान थे। शाहनी को आज सब कुछ भयावह सा लग रहा था, इसी नदी के किनारे शाहनी आज से पचास वर्ष पूर्व दुल्हन बन कर आई थी, तब से वह इसी नदी में स्नान करती आ रही है, आज शाहनी के नहीं रहे और उनका एकमात्र बेटा भी न रहा, उस बड़ी सी हवेली में रह गई थी तो, बस आज भी शाहनी का दुनियादारी से मन नहीं भरा था, उस गाँव में शाहनी का सम्मान है। लेखिका ने नियमित दिनचर्या का वर्णन कर संकेत दिया है कि सब कुछ वैसा ही है, उसी तरह से कार्य हो रहे हैं जैसे पूर्व में होते थे, लेकिन शाहनी की नजर में सब परिवर्तित तथा उदास दिखाई दे रहा है। जिधर भी शाहनी नजर उठा कर देख रही थी उसे शाहनी की बरकत दिखाई दे रही थी। मीलों फैले खेत, नई-नई फसलों को देखकर शाहनी को अपनत्व का बोध हो रहा था, दूर-दूर तक फैली जमीनें तथा उन पर कुएँ, सब शाहनी की प्रगति को प्रदर्शित कर रहे थे। शाहनी कुएँ की ओर बढ़ कर शेरा को आवाज देती है, शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है, कैसे न पहचानता जब से उसकी माँ मर गई, तब से शाहनी का स्वर ही उसे पाल-पोस कर बड़ा किया। शेरा शाहनी की आवाज सुनकर गंडासे को छिपा देता है। विभाजन ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि आज वही शेरा शाहनी को मार डालने की योजना बनाता है तथा उसकी संपत्ति लूट लेना चाहता है। लेकिन शाहनी को देखकर उसकी हिम्मत टूट जाती है और वह याद करता है, किस प्रकार शाहनी ने उसकी माँ के पीछे उसे प्यार से पाला-पोसा है। शाहनी को इस योजना का अंदाजा हो जाता है और वह शेरा से पूछती है-
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-“मालूम होता है, “रात को कुल्लुवाल के लोग आए है यहां?” शाहनी ने गंभीर स्वर में कहा।
शेरा ने जहाँ रुककर घबराकर कहा “नहीं... शाहनी...” शेरा का उत्तर की अनसुनी कर शाहनी जरा चिंतित स्वर से बोली
“जो कुछ भी हो रहा है, अच्छी नहीं। शेरे, आज शाह जी होते तो शायद बीच-बचाव करते। पर..।“ शाहनी के मन में कुछ पिघल रहा था जो आँसुओं के रूप में निकल रहा था, पिछली स्मृतियाँ आज आँखों के सामने घूम गयीं।
शेरे के आँख में प्रतिहिंसा की आग उतर आई, शाह जी ने उसी के भाई बंधुओं से सूद लेकर ये कोठियां खड़ी की थी, तीस-चालीस कत्ल कर चुके शेरे को गंडासे की याद आई लेकिन शाहनी का चेहरा देखकर पिछली बातें उसे याद आने लगी- “वह सर्दियों की रातें, कभी-कभी शाह जी डांट खाकर वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी देखता था, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए, ‘शेरे, शेरे उठ पीले।“ शाहनी का झुर्री पड़ा मुसकुराता चेहरा देखकर शेरा सिहर गया और उसने दृढ़ निश्चय किया कि वह शाहनी को किसी भी हालत में बचाएगा लेकिन तभी उसे कल बनाए गए योजना की याद आई और उसके मन में एक बार फिर संपत्ति का लालच आ गया।
शेरा शाहनी के साथ उसके घर तक उसे छोड़ने जाता है, दूर आसमान में शाहनी को धुआँ दिखाई देता है, शेरा समझ जाता है कि योजना के अनुसार आज जलालपुर में आग लगा दी गई। शाहनी दिन-भर अपनी हवेली में निर्जीव सी पड़ी रही। शाम के समय अचानक रसूली की आवाज सुनकर वह चौंक उठी, रसूली ने उसे सूचना दी कि ट्रंकें उन जैसे लोगों को लेने के लिए आ गई।
शाहनी यह सुनकर जिंदा लाश बन गई। खबर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई, ऐसा कौन था जो आज उसके दरवाजे पर न आया हो। कभी किसी ने न सोचा था कि यह दिन भी देखने को मिलेंगे। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दे रही थी, शाहनी समझ गई कि अब जाने का वक्त आ गया है। शाहनी यंत्रवत् हो गई थी, हवेली की ड्योढ़ी लांधने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। सारा गाँव इकट्ठा है, जो कभी उसके इशारे पर नाचता था, असमियां है जिसे उसने कभी अपने नाते-रिश्तेदारों से कम नहीं समझा लेकिन यह लोग अब सिर्फ उसके लिए एक भीड़ मात्र थे, ये सब कुल्लुवाल के जाट थे, शाहनी पहले ही समझ चुकी थी कि अब वह अकेली है उसका कोई नहीं है। बेगू पटवारी तथा मसीत के मुल्ला इस्माइल शाहनी के पास आकर उसे सान्तवना दे रहे थे कि रब्ब को यही मंजूर था। शाहनी के जाने पर सभी दुःखी थे मगर क्या करते, मजबूर थे, सिक्का बदल चुका था।
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थानेदार अकड़कर शाहनी के सामने आये मगर उसे देखकर वही ठिठक गये; यह वही शाहनी थी जिसने उनकी मंगेतर को मुँह दिखाई में सोने के कर्णफूल दिये थे, मस्जिद बनवाने के लिए ३०० रुपये मांग करने पर शाहनी ने तुरंत उसे ३०० रुपये निकालकर दिये थे। उसने शाहनी से कहा कुछ सोना-चाँदी अपने पास रख लो यह सुनकर वह बोली सोना-चाँदी सब तुम लोगों के लिए है, मेरा सोना तो एक-एक जमीन में बिछा है। दाऊद खाँ लज्जित हो गया।
सांप्रदायिकता के वशीभूत होकर आज शाहनी को यहां से भेजा जा रहा है, अगर विभाजन जैसी विकट समस्या न उत्पन्न होती तो उसे अपना घर क्यों छोड़ कर जाना पड़ता। जहां उसने अपने जीवन के बहुमूल्य दिन गुजारे हैं। शेरा के शब्द ‘खाँ साहिब देर हो रही है’ को सुनकर शाहनी अचंभित रह जाती है कि आज उसे अपने ही घर में देर हो रही है। शाहनी के मन में विद्रोह की भावना जागृत हो जाती है, वह निश्चय करती है कि वह अपने बुजुर्गों के घर से रो कर नहीं बल्कि शान से निकलेगी। शाहनी ने धुंधली आंखों से हवेली की अंतिम बार देखा, थानेदार पटवारी बेगू, जैलदार सभी भारी मन से उसके पीछे-पीछे चल पड़े। थानेदार ने उसके सम्मान में ट्रक का दरवाजा आगे बढ़कर खोल दिया। सभी रो पड़े, शेरा ने आगे बढ़कर शाहनी के पैर छुए और कहा शाहनी कोई कुछ न कर सका, राज ही पलट गया। दाऊद खाँ ने शाहनी से कहा मन में मैल न रखना, वह अपनी मजबूरी उसके सामने प्रकट करता है। शाहनी ने शेरा को आशीष दिया “तैनू भाग लगे चन्ना” और ट्रक चल पड़ी।
शेरा के मन में सांप्रदायिक भावना प्रबंध नहीं थी, उसके मन में संपत्ति का लालच था। शाहनी ने कैंप में पहुंचकर कहा राज्य क्या बदलेगा, सिक्का क्या बदलेगा, सिक्का तो मैं ने वहीं छोड़ दिया। उसे वयोवृद्ध का मोह भंग हो चुका था। सारे संबंध निरर्थक हो चुके थे, मानवीय मूल्यों का विघटन हो गया था। विस्थापन की पीड़ा को इस कहानी में मुख्य रूप से दर्शाया गया है, वतन छूटने का दर्द शाहनी के वक्तव्य में साफ झलकता है। शेरा के द्वंद्व को लेखिका ने बखूबी दर्शाया है वह एक ओर शाहनी के उपकारों का याद करता है तो दूसरी ओर सांप्रदायिक चेतना के वशीभूत हो जाता है। विभाजन के बाद भी मानवीय संवेदनाएं पूर्ण रूप से मृत नहीं हुई थी जो गाँव के लोगों के अश्रु पूरित आंखों में दिखाई देता है।
डॉ. मुल्ला आदम अली
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