चारा काटने की मशीन : उपेंद्रनाथ अश्क
उपेंद्रनाथ अश्क की कहानी ‘चारा काटने की मशीन’ कथाकार ने विभाजन के समय लूटपाट, हिंसा को चारा काटने वाली मशीन की प्रतीकात्मक प्रयुक्ति द्वारा व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। दंगों के दौरान अमृतसर में सरदार लहन सिंह पत्नी के उकसावे पर में आकर अपना घर छोड़कर भाग गए मुसलमान के घर पर कब्जा करने जाता है। वह अभी ठीक से कब्जा कर भी नहीं पाता है कि, उससे बलशाली एक थानेदार आकर मकान को उससे हथिया लेता है। स्पष्ट है कि थानेदार उसका सहधर्मी है, लेकिन अपनी ताकत के बल पर उसे बेघर कर देता है। दरअसल सांप्रदायिक उन्माद में सांप्रदायिक शक्तियां भावना रहित होकर यंत्र में तब्दील हो गई थी। जैसे चारा काटने वाली मशीन अपनी तीखे छुरे से चरी को बिना पहचाने एक रस काटती रहती है वैसे ही यह शक्तियां संवेदना रहित होकर हिंसा में लिप्त हो गई थी।“ दर्शक कृत ’अतीत’ कहानी के केंद्र में लूटपाट और मारकाट की स्थूल घटनाओं के रूप में ग्रहण किया है।
न चाहते के बावजूद एक तरफ के लोगों की पीड़ा को मातृभूमि छोड़कर दूसरी तरफ जा रहे थे। सुखद भविष्य की कल्पना तो पलायन के संदर्भ में महती भूमिका निभा ही रही थी, भविष्य में सामाजिक असंतुलन का भय भी पलायन के लिए विवश कर रहा था। पाकिस्तान ना जाने के लिए वीर जी द्वारा रोकने पर रला खाँ कहता है, “रहना तो चाहता हूं बेटा। अपना वतन छोड़ने को किस का जी चाहता है, लेकिन नूरी का क्या करूं? कहां करूंगा इसका निकाह? नजर आता है कोई लड़का?” रला खाँ का यह दर्द मुस्लिम समाज (Muslim community) की पलायन की पीड़ाजन्य विवशता में उनकी सामाजिक विडंबना की भूमिका को स्पष्ट कर देता है।
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