समाज परिवर्तन में दलित साहित्य और साहित्यकारों का योगदान

Dr. Mulla Adam Ali
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समाज परिवर्तन में दलित साहित्य और साहित्यकारों का योगदान

साहित्य और समाज एक दूसरे का अभिन्न अंग हैं। साहित्य समाज की गतिविधियों का दस्तावेज है। साहित्य के माध्यम से ही समाज के सम्पूर्ण जीवन को समझा जा सकता है। कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। समाज का प्रतिबिंब साहित्य रूपी दर्पण में देखा जा सकता है।

 साहित्य समाज की चेतना में साँस लेता है। वह समाज का परिधान है जो जनता के दैनंदिन जीवन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण के ताने बाने से बुना हुआ है। उसमें इस मानव जाति की आत्मा का स्पंदन ध्वनित होता है। साहित्य जीवन की व्याख्या करता है। इसी कारण उसमें जीवन देने की शक्ति का उदय होता है। साहित्य मानव अनुभूतियों, भावनाओं और कलाओं का साकार रूप है।

 साहित्य और समाज का गहरा संबंध है। वे एक दूसरे पर निर्भर है। साहित्य का समाज के बिना कोई महत्व नहीं है और समाज का साहित्य के बिना। साहित्यकार समाज के बाह्य और आंतरिक दोनों घटकों को उद्घाटित करता है। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। इसी कारण साहित्यकार समाज में घटित आम जनता के सुख-दुख को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करते हैं। मूलतः साहित्य का उद्देश्य लोक-कल्याण से सम्बंधित विचारों को प्रकट करना है।

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साहित्य और समाज: साहित्य और समाज एक दूसरे के अभिन्न अंग है। अतः दोनों का अटूट संबंध है। साहित्यकार समाज की एक इकाई है और समाज ही उसकी भरण-पोषण एवं संरक्षण करता है। उसकी शिक्षा का, संस्कार का, ज्ञानार्जन के लिए आवश्यक सुविधाओं का प्रबंध भी समाज ही करता है। इसलिए ज्ञानार्जन की विभिन्न प्रक्रियाएं भी सामाजिक जीवन का ही एक हिस्सा होती है। साहित्यकार अपने सामाजिक अभावों, प्रभावों, त्रुटियों, अक्षमताओं को ही नहीं समाज में होने वाली उथल-पुथल, विविध तरह के आंदोलन एवं क्रांतियों से भी अछूता नहीं रह पाता। यहीं नहीं, जहाँ एक ओर वह समाज की मानसिक बुभुक्षा की तृप्ति के लिए अपने साहित्य के रूप में उसे पोषक मानसिक आहार प्रदान करता है। वहाँ दूसरी ओर उसके अभावों, त्रुटियों, अक्षमताओं के निराकरण का प्रयत्न भी करता है। दुष्ट वृत्तियों के दिखाई देने पर उसकी कारुणिक निर्ममता एवं कठोरता पर वह व्यंग कसता है, उसके दुःख, दैन्य, उसके वैषम्य, उसके अत्याचार, भ्रष्टाचार के निराकरण के लिए बेचैनी अनुभव करता हुआ संसार का आहवान करता है। यही कारण है कि अनेक व्यक्तिगत विशिष्टताओं के होते हुए भी किसी युग के साहित्यकारों की रचनाओं में पर्याप्त समानता दिखाई देती है।

 दलित साहित्य: आज के साहित्य में दलित एवं पिछड़े हुए समाज पर अधिक लेखन किया जा रहा है। शोषण चाहे मानसिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक इसके विरूद्ध विद्रोह तो होगा जरूर है। भारत में प्राचीन काल से ही सामान्य लोगों का और दलितों का शोषण हो रहा है। उसके परिणाम स्वरूप साहित्यकारों ने दलित के विद्रोह को अपने साहित्य में स्थान दिया। सबसे पहले मराठी में दलित साहित्य को महत्व दिया गया। १९८० के बाद में और भी सही रूप में दलित जीवन पर साहित्य लिखा जा रहा है।

 हिंदी साहित्य के इतिहास में दलित साहित्य की अपनी विशिष्ट पहचान है। भारतीय साहित्य में इस साहित्य ने अपनी समस्याओं के साथ दस्तक दी है। भारतीय समाज परिवर्तन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजर रहा है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक परिवर्तनों को लंबे समय तक भारतीय समाज ने अपने ऊपर झेला है। आज व्यवस्था परिवर्तन का युग चल रहा है। दलित साहित्य समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने में लगा है। यह सर्वमान्य सत्य है कि जिस कौम और समाज का अपना साहित्य है उस समाज और कौम का अपना सम्मान है, उसकी पहचान है। भारतीय समाज जीवन का दलित एक महत्वपूर्ण अंग है। दलित साहित्य इसलिए दलित वर्ग के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दलितों के गौरवपूर्ण इतिहास को बताता है। राष्ट्र निर्माण में दलितों के योगदान का सही लेखजोखा दलित साहित्य से ही प्राप्त होता है। राष्ट्रीय एकता को प्रदर्शित करने वाला साहित्य दलित साहित्य है। यह समाज में व्याप्त गलत धारणाओं को जड़ से समाप्त करके भ्रातृभाव का संदेश देता है।

 आज हिंदी साहित्य में जो दलित साहित्य लिखा जा रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा स्वयं दलितों द्वारा रचित है। हिंदी में जिन दलित लेखकों ने अपनी पहचान बनायी है उनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. धर्मवीर, जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, श्योराजसिंह बेचैन, सूरजपाल चौहान, कँवल भारती, डॉ.एन. सिंह, सोहनपाल सुमनाक्षर, कुसुम वियोगी, माता प्रसाद, मेहावाला, सत्यप्रकाश आदि प्रमुख हैं। इनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि का कार्य कविता, कहानी, आलोचना तथा आत्मकथा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपनी कहानियों में एक तरफ जहाँ ज्ञान और सत्ता के प्रति ब्राह्मणवाद और सामंतवाद पर आक्रमण करते हुए दलितों के शोषण, दमन और तिरस्कार का मार्मिक चित्रण किया है तो दूसरी तरफ कविताओं में वर्ण और जाति व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते हुए परंपरागत मायाजाल को तोड़ने की कोशिश की है।

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दलित आत्मकथाएँ: सामान्यतः आत्मकथा किसी व्यक्ति विशेष की स्वयं के द्वारा लिखी गई जीवन-गाथा होती है। आत्मकथा का अर्थ है, जो जीवन जिया है, भोगा है और देखा है, अपितु जो जीवन यादों में समाया हुआ हो वह भी आत्मकथा है। लेकिन दलित आत्मकथाएँ आत्मकथाओं की इन मान्य परिभाषाओं से अलग है। दलित आत्मकथा किसी भी दलित द्वारा लिखी गयी आत्मकथा सिर्फ उसकी जीवन गाथा नहीं होती, बल्कि उसके समाज की जीवन-गाथा भी होती है और लेखक की आत्माभिव्यक्ति भी होती है। उसके जीवन का दुःख-दर्द, अपमान, उपेक्षा, आत्मसंघर्ष उसकी जाती एवं समाज का भी स्वर देता है। दलित आत्मकथाएँ व्यवहार परिवर्तन की माँग करती है।

 हिंदी दलित साहित्य में आत्मकथा लेखन परंपरा में पहली आत्मकथा “मैं भंगी हूँ” है। भगवानदास ने ‘मैं भंगी हूँ’ नाम से एक भंग दलित समाज की आत्मकथा लिखी थी। भगवानदास की आत्मकथा ‘मैं भंगी हूँ’ के काफी बाद मोहनदास नैमिशराय ने आत्मकथा “अपने-अपने पिंजरे’ लिखी। इस आत्मकथा में मेरठ की चमार बस्ती के जीवन और परिवेश को उजागर किया गया है।

 १९९७ में प्रकाशित ओमप्रकाश वाल्मीकि की बहुचर्चित आत्मकथा “जूठन” है। ‘जूठन’ के माध्यम से लेखक ने भारतीय समाज, संस्कृति, धर्म और इतिहास में पवित्र तथा उत्कृष्ट समझे जाने वाले तीन प्रतीकों क्रमशः शिक्षण, संस्थान, गुरु यानी शिक्षक एवं प्रेम पर कड़ा प्रहार किया है, तथा यह दिखाने की कोशिश की है कि दलित समाज को अपने व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक विकास की प्रक्रिया में इन तीनों प्रतीकों की नकारात्मक भूमिकाओं का सामना करना पड़ता है।“१ ‘जूठन’ दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का दस्तावेज है।“२

१९९९ में प्रकाशित कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा “दोहरा अभिशाप” है। “भारतीय समाज व्यवस्था में दलित होना एक अभिशाप से कम नहीं है, साथ ही पुरुषप्रधान समाज में दलित होकर एक नारी होना तो दोहरा अभिशाप है। हिंदी दलित साहित्य में इस दोहरा अभिशाप की पीड़ा को शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया है- कौशल्या बैसंत्री ने अपने आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में।३

 श्यौराज सिंह बेचैन “मेरा बचपन मेरे कंधों पर”, डॉ.डी.डी.आर. जाटव “मेरा सफर मेरी मंजिल”, नाथूराम सागर “मुझे चोर कहां”(१९९६), अमर सिंह चौहान “गुलामी में जकड़े हम”, माता प्रसाद की “झोंपड़ी से राजभवन”, सूरजपाल चौहान “तिरस्कार” (२००२), रूपनारायण सोनकर “नागफनी” (२००७), तुलसीराम “मुर्दहिया” आदि प्रमुख आत्मकथाएँ है।

दलित उपन्यास: हिंदी दलित साहित्य की परंपरा में दलित उपन्यासों का क्षेत्र बहुत बड़ा दिखाई नहीं देता फिर भी कुछ ऐसे उपन्यासकार सामने आये है, जिन्होंने न केवल उपन्यास लिखे बल्कि दलित साहित्य को एक नयी दिशा प्रदान कर रहे है और यह उपन्यासकार इस विधा के लेखन में निरंतर प्रयासरत है।

 हिंदी के दलित उपन्यासकारों के प्रमुख उपन्यास- डी.पी. वरुण का उपन्यास “अमर ज्योति”(१९८२), जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास “छप्पर”(१९९४), प्रेम कपाड़िया का उपन्यास “मिट्टी की सौगंध”(१९९५), सत्यप्रकाश का उपन्यास “जस-तस भई सबेर”(१९९८), मोहनदास नैमिशराय का उपन्यास “मुक्ति पर्व”(१९९९), “वीरांगन झलकारी बाई”(२००३), “आज बाजार बंद हैं”(२००४), “महानायक बाबा साहब अंबेडकर”(२०१२) आदि प्रमुख उपन्यास हैं।

दलित कहानियाँ: हिंदी दलित कहानी लेखन का आरंभ प्रायः आठवें दशक से माना जा सकता है। यह सत्य है कि हिंदी कहानी साहित्य की परंपरा में दलित चेतना की अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से आठवें दशक महत्वपूर्ण है। इन कहानियों में विवशता, निरंतर संघर्ष करते रहने की अनिवार्यता और अपने मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए सजगता दिखाई देती हैं।“४ हिंदी कहानी विधा में क्रांति करने वाले कहानीकारों की कहानियाँ इस प्रकार है-

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1. ओमप्रकाश वाल्मीकि- “अंधेरी बस्ती”, “कुचक्र”, “अधड़”, “बिरह की बहू”, “मैं ब्राह्मण नहीं हूं”, “अम्मा”, “सलाम”, “बहुरूपिये”, “घुस पैठिये”, “पच्चीस चौका डेढ़ सौ”, “शवयात्रा”, “प्रमोशन”, “गोहत्या”, “कहाँ जाय सतीश” आदि प्रमुख है।

2. मोहनदास नैमिशराय- “आवाजें” (कहानी संग्रह), “सबसे बड़ा सुख हारे लोग”, “अपना गाँव”, “कर्ज”, “घायल शहर की एक बस्ती” आदि।

3. जयप्रकाश कर्दन: “चमार”, “तलाश मजदूर मूवमेंट”, खाता”, “साग”, “नोबारा” आदि।

4. रत्न कुमार सांभरिया- “क्षितिज”, “बाँग तथा लघु कथाएँ” आदि।

5. सूरजपाल चौहान- “हैरी कब आयेगा” (कहानी संग्रह), “टिल्लू का पोता”, “साजिश”, “घाटे का सौदा”, “परिवर्तन की बात”, “बदलू” आदि।

6. श्यौराज सिंह बेचैन- “रावण शोध-प्रबंध”, “होनहार बच्चे”, “कहानी हंस की”, “अस्थियों के अक्षर”, “संदेश” आदि।

7. डॉ.एन.सिंह- “संपादित कहानी संग्रह यातना की परछाइयाँ”, “काले हाशिये पर”(कहानी) आदि।

8. दयानन्द बटरोही- “सुरंग”, “कफन खोर”, “यातनाओं के जंगल” आदि।

9. अजय नावरिया- “पठकथा”।

10. डॉ. कालीचरण स्नेही- “संपादित कहानी संग्रह दलित दुनिया”, कहानियाँ- “सूर्यबली की साली”, “द्रोणाचार्य के वंशज”, “हीरामन पासी” आदि।

11. रमणिका गुप्ता- “कहानी संग्रह बहू जूठाई”, “दाग दिया सच”, “संपादित कहानी संग्रह दूसरी दुनिया का यथार्थ”, “दलित कहानी संचयन” आदि।

12. कुसुम वियोगी- “कहानी चार इंच की कलम”, “संपादित कहानी-संग्रह-समकालीन दलित कहानियाँ”, चर्चित दलित कहानियाँ”, “दलित महिला कथाकारों की चर्चित कहानियाँ” आदि।

13. सुशील टाकभौरे- “टूटता बहम”, “सिलिया”, अनुभूति के घेरे”, “छौआ” आदि।

इन सभी कथाकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से दलित जीवन के भोगे हुए यथार्थ के चित्रण द्वारा दलित जीवन की व्यथा और सामंती, आतंक और मनुवादी व्यवस्था के विरुद्ध तीव्र आक्रोश और विरोध के साथ ही भारतीय समाज में फैली जाति वादी गतिविधियों का पर्दाफाश किया है।

निष्कर्ष: दलित साहित्य दलितोत्थान की महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साहित्यकारों ने आत्मकथा, उपन्यास, नाटक, कविता, कहानियाँ, एकांकी, निबंध, पत्रकारिता, आलोचना, जीवनी जैसे सभी विधाओं में दलित साहित्य लेखन समृद्ध कर रहा है। दलित साहित्य दासता, दुराचार, असमानता, अन्याय, शोषण के विरुद्ध दलित जनमानस में वैचारिक क्रांति का निर्माण करता है। दलितों को स्वतंत्रता, समता व बंधुता के मानवीय मौलिक अधिकारों का ज्ञान करता है, साथ ही उसकी प्राप्ति के लिए संघर्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।

संदर्भ:

i. डॉ.हरिनारायण ठाकुर- दलित साहित्य का समाजशास्त्र – पृ-४४९

ii. रामपाल गंगवार, नीलम सिंह- दलित विमर्श हिंदी दलित लेखन- पृ-११९

iii. दिलीप मेहरा- हिंदी कथा साहित्य में दलित विमर्श- पृ-३७६

iv. दिलीप मेहरा- हिंदी कथा साहित्य में दलित विमर्श- पृ-५६

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* दलित साहित्य और राष्ट्रीयता : डॉ. जयप्रकाश कर्दम - Dalit literature and nationality - भाग-1

* दलित साहित्य और राष्ट्रीयता : डॉ. जयप्रकाश कर्दम - Dalit literature and nationality - भाग-2

दलित साहित्य में महिला लेखन : डॉ. सुशीला टाकभौरे  Women Writing in Dalit Literature - Dalit।Sahitya

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