अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
महिला समाज की असली शिल्पकार होती है
"ठहरा हुआ पानी नहीं, वेगमयी प्रवाहित हूँ,
परिवर्तन की चुप्पी में, गूँज बनी समाहित हूँ,
आर्द्रता मिलते ही जरा सी, खिलखिल मैं जाती हूँ,
मुट्ठी भर आसमां पाते ही, अंतरिक्ष चूम आती हूँ।
(स्वरचित)
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2024 के उपलक्ष पर आज की नारी का यही उद्घोष है। प्रत्येक वर्ष 8 मार्च को मनाए जाने वाला यह दिवस विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्यार को प्रकट करता है तथा महिलाओं की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक उपलब्धियों को एक अलग पहचान देता है।
आखिर यह विशेष तिथि क्यों? कब हुआ था इसका प्रारंभ?..... 19 वीं सदी तक आते-आते नारी अपने अधिकारों के प्रति जागृत होने लगी थी। 1908 में 15000 स्त्रियों ने अपने लिए मताधिकार की माँग की। अच्छा वेतन पाने और काम के घंटों को कम करने के लिए प्रदर्शन किया। सर्वप्रथम यूनाइटेड स्टेट्स में 28 फरवरी 1909 को राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया।अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार सबसे पहले जर्मनी की क्लारा जेटकिन ने 1910 में रखा। क्लारा यूँ तो मार्क्सवादी चिंतक और कार्यकर्ता थीं मगर महिलाओं के अधिकारों के लिए भी वह लगातार सक्रिय रहीं। उन्होंने कहा कि दुनिया के हर देश की महिलाओं को अपने विचार रखने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाने की योजना बनानी चाहिए। उनके नेतृत्व में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें 17 देशों की 100 महिलाओं ने भाग लिया और इस प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति प्रकट की।
महिला दिवस 8 मार्च को मनाने के पीछे एक ओर रोचक घटना जुड़ी हुई है। 1917 की बोल्शेविक क्रांति के दौरान रूस की महिलाओं ने 'ब्रेड एवं पीस' की मांग की। महिलाओं की हड़ताल के कारण वहाँ के सम्राट निकोलस को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। इस घटना के फलस्वरूप वहाँ की अंतरिम सरकार ने स्थानीय महिलाओं को मतदान का अधिकार दे दिया। उस समय रूस में जूलियन कैलेंडर का प्रयोग होता था जिस दिन महिलाओं ने हड़ताल शुरू की थी वह 23 फरवरी था लेकिन ग्रेगेरियन कैलेंडर में वह दिन 8 मार्च था.... उसी के बाद से यह दिन मनाया जाने लगा।
मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करती जस्टिस शफीउल हसनैन ने इस अवसर पर यह बताया कि हम इस दिवस को खदीजा दिवस के रूप में देखते हैं। खदीजा पैगंबर मोहम्मद साहब की पहली पत्नी थीं और उन्होंने अपनी कार्यकुशलता से मर्दो के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। उन्होंने कहा कि 'महिला समाज की असली शिल्पकार होती है।'
परिवर्तन की इस बयार में बहुत कुछ बदल गया है। आज महिला पुरुष की एक साथी है जो बराबरी की मानसिक क्षमता के साथ प्रतिभावान भी है। आज वह पुरानी परंपराओं, रूढ़ियों, अंधविश्वासों के बंधन तोड़ने के लिए कटिबद्ध है। वह स्वयं को दोयम दर्जे के कटघरे से निकालकर पुरुष के समान समाज में स्वतंत्र विचरण करना चाहती है। यह प्रश्नाकुल है उन सभी परंपराओं के विरुद्ध जो सदियों से उसे पुरुष की अनुगामिनी मानती आई हैं।
अभी हाल ही में जापान में एक नया स्वर सुनाई दिया कि पत्नी ही क्यों पति भी बदले अपना नाम..... उपनाम जापान में लैंगिक असमानता के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। विकसित देशों में लैंगिक अंतर के आधार पर वेतन देने के मामले में जापान तीसरे नंबर पर आता है। प्रबंधकीय पदों पर केवल 4% महिलाएँ हैं। शादी से पहले लड़कियों को अपने पिता के उपनाम एवं शादी के बाद पति के उपनाम से जाना जाता है। जापान की महिलाएँ अब उस कानून के बदलाव की माँग कर रही हैं जो महिलाओं को अपना चुना हुआ नाम रखने की अनुमति नहीं देता। कानून के अनुसार शादी के बाद दंपति का सरनेम एक ही होना चाहिए। केवल 4% पुरुष ही अपनी पत्नी का सरनेम चुनते हैं लेकिन महिलाओं को अपना पुराना सरनेम लगाने की इजाजत नहीं है। पिछले साल एक सर्वेक्षण के अनुसार 42.5% लोगों ने कानून में बदलाव को स्वीकृति दी वहीं 29.3% प्रतिशत लोग इसके विरोध में है।
इसी तरह ब्रिटेन में 8500 लोगों पर हुए एक सर्वे के अनुसार 7% दंपति ही मिलजुल कर घर का काम करते हैं। समाज ने घर के काम को अवैतनिक मान लिया है साथ ही इसे महिलाओं की नैतिक व पारिवारिक जिम्मेदारी बना दिया है। यह वह अतिरिक्त काम है जो वह 'सेकंड शिफ्ट' के रूप में कर रही हैं।
सदियों से संघर्षरत नारी समाज की एक इकाई के रूप में अपनी पहचान की निर्मिति के लिए जिस अदम्य जिजीविषा एवं प्रबल इच्छाशक्ति का परिचय आज दे रही है वह उसकी बौद्धिक जागृति का परिचायक है जो उसने धर्म, आस्था, परंपरा, मूल्य एवं व्यवस्था के प्रति प्रकट किया है। वर्तमान समय में नारी पुरुष से प्रतिस्पर्धा ना करके केवल उसके समकक्ष एक मनुष्य होने के नाते प्राप्त होने वाले अधिकारों की मांग कर रही है। वह पुरुष के अस्तित्व को न नकार कर एक सहनागरिक के रूप में अपनी पहचान स्थापित करना चाहती है। इस तरह के कई उदाहरण आज हमारे समक्ष हैं जो उसके संघर्ष और जीत की कहानी कहते हैं --- जैसे हाजी दरगाह में महिलाओं को प्रवेश दिलाना, तीन तलाक से सम्बंधित कानून में परिवर्तन लाना तथा सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर आज भी वह लड़ रही है क्योंकि उसका मानना है कि ईश्वर की आराधना पर सबका बराबर का हक है। 'मी टू' कैंपेन के द्वारा उसने बड़े बड़े लोगों के चेहरे बेनकाब कर दिए हैं जो महिलाओं को अपनी संपत्ति समझते हैं..... लेकिन फिर भी अभी बहुत कुछ बाकी है जो बदलना है क्योंकि महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में कमी नहीं आ रही है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (2016) की रिपोर्ट के अनुसार 70% मामले अभी भी चुप्पी के तले दबे हैं। हर घंटे 38 महिलाएँ किसी न किसी अपराध की शिकार होती हैं...... उसमें अपहरण, बलात्कार, घरेलू हिंसा, साइबरक्राइम, कार्यालय में यौन शोषण आदि हैं।
महिला सशक्तिकरण की बात करें तो नारी अब डर के साँचे से निकलकर हौंसले के खाँचे में परिणत हो रही है ...जो क्षेत्र महिलाओं के लिए वर्जित माने जाते थे उसमें भी वह अपनी प्रतिभा सिद्ध कर रही है। रक्षा क्षेत्र में अभी हाल ही में मेजर जनरल माधुरी कनिटकर की लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर नियुक्ति इसका साक्ष्य है लेकिन पुरुष की मानसिकता अभी भी यह बदलाव स्वीकार नहीं कर पा रही है। खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों का पुरुष वर्ग..... इसका हालिया किस्सा है जो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि आर्मी की कमांड पोस्ट पर महिलाएँ नियुक्त नहीं की जा सकती क्योंकि सेना में पुरुष सैनिक अभी तक मानसिक रूप से महिलाओं से कमांड लेने में सहज नहीं है।
विश्व महिला दिवस मनाने की सार्थकता तभी होगी जब महिलाओं को मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से मुक्ति मिल जाएगी ....दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, महिला तस्करी, घरेलू हिंसा आदि पूर्णतः समाप्त हो जाएंगे। कानून की ढुलमुल प्रक्रिया में बदलाव आएगा। समाज के महत्वपूर्ण फैसलों में उसके नजरिए को महत्वपूर्ण समझा जाएगा। तात्पर्य यह है कि उन्हें भी पुरुष के समान एक इंसान समझा जाएगा जहाँ वह सिर उठाकर अपने महिला होने पर गर्व करें ना कि पश्चाताप कि... अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो.....