आज पहले राष्ट्रीय-कवि
पं. रामनरेश त्रिपाठी की जयन्ती
बन्धु कुशावर्ती
हिन्दी के पहले राष्ट्रीय-कवि पं.रामनरेश त्रिपाठी की आज जन्म-तिथि है! त्रिपाठीजी की जन्मतिथि कोई ४मार्च,सन् १८८१ बताता है तो कोई ४मार्च, १८९१ तो कोई १८९०! एक हिन्दी साहित्यकार की इस तरह से भिन्न-भिन्न जन्म-तिथि के खुलासे का खेल हिन्दी में ही हो सकता है और किसी को शर्म भी नहीं आती! यह तब है, जब अब से ३३वर्ष पहले त्रिपाठीजी की जन्मशती भी हिन्दी-जगत मना चुका है! बहरहाल, पं.रामनरेश त्रिपाठी का जन्म ४ मार्च, १८८९ को जौनपुर स्थित कोइरीपुर गाँव में हुआ था। यहीं एक ज़रूरी बात का उल्लेख भी प्रासंगिक है और वह यह कि आजा़दी के बाद हुए राज्यों व जिलों के नये परिसीमन में कोइरीपुर सुलतानपुर जिले में शामिल कर दिया गया। अतएव कालान्तर में त्रिपाठीजी का जन्म-ग्राम व उनकी जन्म-तिथि, दोनों ही सुलतानपुर से जुड़ गये!
दूसरी ज़रूरी बात यह कि १९३० के आसपास ही पण्डित रामनरेश त्रिपाठी का स्थायी-निवास सुलतानपुर शहर के रुद्रनगर मुहल्ले में हो गया तो उनका मेल-जोल,संवाद-सम्पर्क भी यहाँ के बडे़ साहित्यिक व साहितेतर-वर्ग से हो गया। इस तरह से फिर पं.रामनरेश त्रिपाठीजी व उनके परिवार का स्थायी-निवास सुलतानपुर ही हो गया!
पं.रामनरेश त्रिपाठी प्रारम्भ से ही कुशाग्र-बुद्धि के विद्यार्थी थे,पर आर्थिक-रूप से उनका परिवार कमजो़र था,अतः गाँव के पास के मिडिल स्कूल से ८वाँ पास करके आगे की पढ़ाई के लिये जिला जौनपुर के मुख्यालय जाने पर भी वे अपनी पढा़ई जारी नहीं कर पाये क्योंकि;ग़रीबी की वजह से उनके पिता ने आगे पढा़ने में स्पष्टतःअपनी असमर्थता जता दी थी। इस कारण पिता से उनकी अनबन हो गयी तो उनसे सख़्त नाराज होकर वह अपने चाचा के पास कलकत्ते चले गये और चाचा की ही मार्फत एक सेठ के यहाँ रोज अख़बार-पत्रिका पढ़कर सुनाने का काम करने लगे।
परन्तु एक दिन सुबह वह कुछ जल्दी ही सेठ की दूकान पर पहुँचे तो देखा कि सेठ की गद्दी पर नोटों की कुछ गड्डी पडी़ है। सफाई वाला दूसरे कमरे में सफाई कर रहा है। उन्हें ज़रूरी लगा कि वे इन रुपयों को सहेजकर रख लेते हैं अभी घर से भोजन करके कुछ समय बाद जब आयेंगे तो सारी रकम सेठ के हवाले कर देंगे,अन्यथा न जाने किसके हाथ यह लग जाय! तब सेठ का बहुत नुकसान हो जायेगा!
उधर रामनरेश त्रिपाठी घर गये और इधर सेठ दूकान पर आये तो पाया कि कल शाम वह जल्दी में नोटों की जो गड्डियाँ छोड़कर चले गये थे,वह तो नदारद हैं! अब तक जो लोग दुकान में आये थे,उन सभी ने नोटों की गड्डियों के बारे में पूरे तोर पर से अनभिज्ञता जता दी! इस कारण से परेशान सेठ अपनी गद्दी वाली बैठक में बेहद बदहवास-से टहल रहे थे कि रामनरेश आकर हिफाजत से सहेजी हुई नोटों की गड्डियाँ उन्हें सौंपते हुए बोले,'आप देख और गिन लीजिये।यहाँ पर मैं जितनी व जैसी असुरक्षित पड़ी रक़म पाकर आज सुबह ले गया था,वह सब ज्यों की त्यों ही आपके हवाले कर रहा हूँ। इसे कोई भी देखता और उठा ले जाता,इसीलिये किसी से कोई भी चर्चा किये बिना इसे मैं अपने साथ ले गया था।'
बदहवास सेठ ने गिनकर देखा। कल शाम जल्दी में छूट गयी रक़म की गड्डियाँ ज्यों की त्यों हैं। सेठ ने गड्डी में से कुछ रकम निकाली और रामनरेश के हाथ में रखते हुए बोले,'पण्डित! ये रक़म किसी और के हाथ लगती,तब तो मैं बरबाद ही हो गया था। इसलिये तुम्हारी ईमानदारी पर मैं खुशी से यह इनाम दे रहा हूँ।'
परन्तु रामनरेश त्रिपाठी ने सेठ से रकम न लेते हुए दो-टूक कहा,'आपकी अमानत आपके हवाले करना मेरा जिम्मा था। उसके लिये इनाम-इकराम मैं बिल्कुल ही नहीं लूँगा!हाँ,आप फिर ऐसी लापरवाही आगे मत कीजियेगा,वर्ना रक़म तो किसी के हाथ लगेगी,लेकिन शक के घेरे में कई लोग आने से बदनीयती के घेरे में बने रहेंगे!
रामनरेश त्रिपाठी के इस आचरण से प्रसन्न सेठ ने तब उन की तनख्वाह बढ़ दी किन्तु;त्रिपाठीजी को कलकत्ता का पानी रास नहीं आ रहा था। पेट की बीमारी से मरणासन्न पाकर उनके एक शुभेच्छु ने उन्हें राजस्थान के एक सेठ का पता दिया और कहा बगै़र देर किये वहीं जाइये।
यह रामदयाल सेठ थे,जिन्होंन पथ्यपूर्ण खान-पान से त्रिपाठीजी को पूरी तरह चंगा कर दिया था। इन सेठजी के आग्रह पर त्रिपाठीजी वहीं रुककर फिर उनके बच्चों के शिक्षक हो गये और उनके पुस्तकालय से खूब स्वाध्याय भी किया और उस पुस्तकालय का संवर्द्धन भी किया! यहीं से पं.रामनरेश त्रिपाठी का लेखन भी गतिशील हुआ। यह १९१०-'१२ की बात है। 'हे प्रभो!आनन्ददाता!! ज्ञान हमका दीजिये।' यह प्रार्थना राजस्थान के उन्हीं सेठजी के बच्चों के लिये रोज के शिक्षारम्भ से पहले पाठ स्वरूप त्रिपाठीजी ने लिखी थी,पर कालान्तर में तो यह भारत भर के विद्यालयों के लिये अनिवार्य प्रार्थना बन गयी।आज भी अधिसंख्य विद्यालयों में यह प्रार्थना प्रचलित है!
पं.रामनरेश त्रिपाठी,मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी की तरह देश में राष्ट्रीयता व स्वदेश की स्वतन्त्रता का शंखनाद करने वाले कवियों-साहित्यकारों में अग्रणी नाम तो थे ही,देश की आजा़दी के लिये गान्धी के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने वालों में भी रहे हैं।१९१५ में होमरूल आन्दोलन में रामनरेश त्रिपाठी पहली बार जेल गये और इसके बाद गान्धीजी के आह्वान पर २बार और भी जेल गये। इसमें एक बार वह नेहरूजी के साथ लखनऊ जेल में रहे। १९२०-'२१ के असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तारी हुई तो आगरा जेल में रखे गये।
अब तक कवि और लेखक के रूप में तो आपकी प्रसिद्धि व्याप्त हो ही गयी थी,१९१७ में गान्धीजी ने त्रिपाठीजी व ४ अन्य लोगों को दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के काम से भी भेज दिया था!आगे आगरा जेल में रहते हुए त्रिपाठी जी ने महत्त्वपूर्ण कविता "अन्वेषण" लिखी।३२ पंक्तियों की उनकी यह कविता छायावाद की बहुचर्चित कविताओं में है।उसकी प्रमाणिक २ पंक्तियाँ यह है:
मैं ढूँढ़ता तुझे था,जब कुंज और वन में,
तू ढूँढ़ता मुझे था,तब दीन के वतन में!
कम ही लोगोंको पता है कि यह उर्दू के छन्द की कविता है और आगरा जेल में इस कविता को त्रिपाठीजी ने पर्शियन (यानी उर्दू में फारसी) लिपि में लिखा था। परन्तु हिन्दी में पाठक ने और मंच से स्वयं त्रिपाठीजी व इस, कविता को पसन्द करने वालों ने भी इसे इतना पढाई और इतने मन से पढ़ा कि यह हिन्दी हो गयी और कभी किसी को लगा ही नहीं कि यह मूलतः उर्दू-छन्द की कविता है!
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