बनाम दबी कुचली कश्मीरी किताबें
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
'THE KASHMIR FILES' आज की बहुचर्चित सिनेमा। हाँ, बिलकुल सही बात है कि कई-कई साल बाद या फिर अगर यह भी कहा जाए कि पहली बार किसी भारतीय सिनेमा में बिना तथाकथित हिन्दू-मुस्लिम प्रेम प्रसंग, धर्म निरपेक्षता का चोला बगैर जो 19 जनवरी, 1990 की रात को हुआ उसे दिखाया गया है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। परन्तु जिस प्रकार से बार -बार यह प्रचार किया जा रहा है कि THE KASHMIR FILES के माध्यम से ही पहली बार कश्मीर का सच सबके सामने आया है यह कहना सरासर गलत है। अपमान है उन कश्मीरी लेखक-लेखिकाओं का उन बुद्धिजीवियों का जिन्होंने लगातार एक टेंट से दूसरे टेंट में शरणार्थियों का जीवन जीते हुए भी अपनी लेखनी को रुकने नहीं दिया। लगातार प्रयास किया कि कश्मीरी सच सम्पूर्ण विश्व और शेष भारत तक पहुँचे। सन् 2003 जब एम. फील. का शोधकार्य करने के लिए विषय चुनना था तब डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी ने चद्रकांता जी द्वारा लिखित 'कथा सतीसर' को पढ़ने के लिए दिया। वे मेरे गाइड नहीं थे। मेरे गाइड थे डॉ. एस. वी. एस. एस. नारायण राजू। शर्मा जी और नारायण राजू बिना किसी प्रकार के मिथ्या अहंकार के दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद केंद्र में किस प्रकार से नवीन विषयों पर शोध कार्य हो सकता है यही प्रयास करते थे यह कानों सुनी बात नहीं मेरा अपना अनुभव है। खैर, बात करते हैं 'कथा सतीसर' की। शर्मा जी ने दो टुक शब्दों में कहा 'लिखना तब जब तुम्हे इस किताब के हर पन्ने में फैले दर्द का अनुभव हो और अगर दर्द अनुभव न करो तो हमें निःसंकोच कहना विषय बदल दिया जायेगा'।
तेलंगाना में बैठे बिना कश्मीर को देखे मैंने कश्मीरियों के दर्द को महसूस किया था आज भी कर सकती हूँ। श्रेय जाता है कश्मीरी लेखिका चंद्रकांता को। पल्ल्वी जोशी, अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती आदि नायक नायिकाओं ने बखूबी अपना काम किया है पर मेहनताना भी तो लिया है उस लेखिका का क्या जो दिल्ली के एक शरणार्थी शिविर में बैठकर 'सलाखों के पीछे', पोशनुल की वापसी, कोठे पर कागा, काली बर्फ आदि रचनाओं को लिखती रही बार -बार उन शरणार्थी शिविरों की परेशानियों को बताना चाहा पर THE KASHMIR FILES की तरह उनकी किताबों को रॉयल्टी के रूप में करोड़ो नहीं मिला। ये एक ही किताब नहीं पृथ्वीनाथ मधुप की लिखित पुस्तक, कश्मीरियत: संस्कृति के ताने बाने, कश्मीर का भविष्य, सम्पादक - राजकिशोर, भूतपूर्व राज्यपाल जगमोहन जी की पुस्तक, कश्मीर समस्या और विश्लेषण आदि अनेकों ऐसी किताबें हैं जो कहीं किसी कक्षा में नहीं पढ़ाई जाती। हास्यास्पद बात है उच्च शिक्षा के स्तर पर भी इन किताबों या इन जैसी दूसरी किताबों को पढ़ाया नहीं जाता। क्या यह भारतीय शिक्षा तंत्र की हार नहीं? जहाँ सिनेमा सिर्फ एक खंड को लेकर मशहूर हो जाता है और पूरा का पूरा इतिहास झूठी कहानियों के नीचे दब जाता है। हाँ, 1990 में कश्मीर में भीषण नरसंहार हुआ था। पर क्या ये पहली बार हुआ था? नहीं। बाहरी आक्रमणकारियों में पहला नाम आता है सिकंदर बुतशिकन का। अफगानी शासन काल में कश्मीरी पंडितों ने जितना अत्याचार सहा शायद ही विश्व के किसी भी प्रान्त के लोगों ने वैसा अत्याचार सहा होगा। अफगान शासक करीमदाद खान कश्मीरी भट्टों को उपलों के धुएँ में दम घुटाकर 'ज़रे दुधाह' यानि टैक्स वसूल करता था। बात केवल कश्मीरी पंडितों की करना वही आधा सच ही बताना है। भारत के इतिहास में ही नहीं वरन् विश्व के किसी भी देश के इतिहास में हमें सम्पूर्ण जनता को पैसे द्वारा बाकयदा खरीदने और बेचने की कहानी केवल कश्मीर के इतिहास में देखने को मिलती है।
9 March, 1946 की यह घटना है जिसकी विस्तारित जानकारी 'कथा सतीसर' नामक उपन्यास में मिल जाएगी। जो आज के जमाने की तथाकथित सत्यानवेशी सिनेमा 'THE KASHMIR FILES' में आप देख नहीं सके हैं। पर सवाल यहाँ यह भी है कि कश्मीर पर फ़िल्म बनाकर क्या होगा? धारा 370 हट चूका है, सयाने कहते हैं कश्मीर अब पहले जैसा नहीं रहा विकास के पथ पर है, टी. वी. चैनल आतंकी घटनाओं का समाचार सुनाते हैं, तिरंगे में लिपटे शहीदों के शव दिखाते हैं इन सबके बीच असली मुद्दा कश्मीरी घर वापसी कब कर सकेंगे ये तो दब ही जाता है। जबकि असली मुद्दा यही है बाकी तो सब लोग लुभावन नारे हैं। कश्मीर तथा कश्मीरियों की समस्या पर बहुत बातें हो गई समाधान क्या है? यह सारा विवाद निरर्थक एवं अप्रासंगिक है कि कश्मीर नीति सख्त हो या नरम या कि राष्ट्रवादी आकांक्षाओं पर आधारित हो या नैतिक नज़रिये पर। कश्मीर पर कोई भी नीति जनता की राजनैतिक एवं मनोवैज्ञानिक लालसाओं को महत्व दिए वगैर सफल नहीं हो सकती।