🚺सामाजिक खुशहाली की कसौटी है स्त्री की दशा
किसी भी समाज की सबसे लघु संस्था परिवार होती है और परिवार बनता है स्त्री – पुरुष के समान रूप से साथ चलने से। समाज का खुशहाल होना निर्भर करता है परिवार जैसी संस्था की खुशहाली पर। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सर्वे वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स 2021 में भारत 149 देशों में 139 वें स्थान पर रहा है। शीर्ष पर फिनलैंड रहा। ये आंकड़े बताते हैं कि भारत खुशहाली में कितना पीछे है। इस खुशहाली के कम होने के पीछे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कई कारण हो सकते हैं। सुखी समाज प्रत्येक देश की उन्नति का पर्याय है जहां स्त्री पुरुष का जीवन ही इतना असमानता से भरा हो वहां भला उन्नति कैसे हो? परिवार में यदि स्त्री के अस्तित्व को दबा दिया जाए उसके अधिकारों से वंचित रखा जाए तो भला हम कैसे खुशहाल समाज का स्वप्न देखें? किसी भी समाज में असमानता तब पैदा होती है जब हम दूसरे के अधिकारों का हनन करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते। जैसा कि परंपरा से स्त्रियों के साथ होता आया है। पुरुषसत्तात्मक सोच ने स्त्रियों को उनके अधिकारों से वंचित किया है।
आज जब हम नारी की बात करते हैं तो हमारे मस्तिष्क पर दो ही छवि बनती है पहली नारी शक्ति का प्रतीक है। दूसरी वह शोषित पीड़ित है। नारी शोषण के विरुद्ध और उसके अधिकारों के लिए काफी लंबे समय से आंदोलन चलाए गए और अब तक लगातार विभिन्न रूपों में चलाएं जा रहे हैं। परंतु क्या स्त्री संतुष्ट हो पाई? क्या स्त्री को उसका अधिकार मिल सका ? क्या स्त्री की स्थिति सुधरी है? संभवत: इन प्रश्नों का उत्तर संतोषजनक नहीं होगा। मुट्ठी भर नारियों के जागरुक हो जाने भर से हम संसार की आधी आबादी के साथ न्याय नहीं कर सकेंगे। कोई भी परिवर्तन तब होता है जब समाज का हर तबका हर संस्था परिवर्तन लाने का प्रयास निष्ठा के साथ संगठित होकर करते हैं। भारत का स्वतंत्र होना भी इस निष्ठा का उदाहरण है। आज हम स्वतंत्र देश के नागरिक हैं इसका कारण है निष्ठा से अपने उद्देश्य के लिए समाज का संगठित होकर किया गया प्रयास। नारियों को उनके अधिकार दिलाने उनको सच्चे अर्थों में बराबर मानने का प्रयास अभी भी समाज में निष्ठा और सभी वर्गों द्वारा समान रूप से नहीं किया गया है।
‘‘पुरुषों के समकक्ष स्त्रियों की राजनीतिक सामाजिक और शैक्षणिक समानता का आंदोलन, जिसे कुछ वर्ष पहले तक ‘नारीवाद’ कहा जाता था। अंग्रेजी में इसके लिए Feminism शब्द प्रचलित है। इस दृष्टि से इसके लिए ‘नारीवाद’ नाम ही ज्यादा सार्थक। यह आंदोलन मुख्यत: ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में शुरू हुआ। इसकी जड़े 18 वीं सदी के मानवतावाद और औद्योगिक क्रांति में थी। नारियां पहले पुरुषों के मुकाबले शारीरिक और बौद्धिक रूप से हीनतर समझी जाती थी। कानून और धर्मशास्त्र दोनों ही उनकी पराधीनता की व्यवस्था दे रखी थी। नारियां अपने नाम से कोई संपत्ति नहीं रख सकती थी, व्यवसाय नहीं कर सकती थी, न ही वह अपने बच्चों पर अथवा यहां तक कि स्वयं अपने ऊपर कोई अधिकार जता सकती थीं।’’ (2 – हिंदी आलोचना की परिभाषिक शब्दावली)
नारीवाद का नाम सुनते ही ऐसी भ्रांति होती है कि यह पुरुष विरोधी विचार है। परंतु सही अर्थों में नारीवाद नारी के अधिकारों की मांग करना है ना कि पुरुष का विरोध। स्त्री पुरुष के समान हर क्षेत्र में बराबर भागीदारी निभाती आई है घर , खेत, जंगल, कारखानों में काम करना, बड़े – बड़े सरकारी पद, खेल, पर्वतारोहण, कला, शिक्षा, तकनीक, अंतरिक्ष। स्त्री ने अपनी योग्यता का लोहा पूरे विश्व में मनवाया है। स्त्री की योग्यता को कम आंकना उसके व्यवहार को अनुशासित करना पुरुषसत्ता की शुरुआती सोच है। इसी मानसिकता के फलस्वरूप नारी के प्रति समाज का दृष्टिकोण धीरे-धीरे अनगिनत नियमों और रूढ़ियों को जन्म देता चला गया है । पुरुष वादी सोच ने स्त्री को अनुशासित करने का प्रयास लंबे समय से किया है। स्त्रियों द्वारा आवाज ना उठाया जाना भी पुरुषवादी मानसिकता को बढ़ावा देता रहा है। नारियों को दबाने में स्वयं नारियों ने भी हिस्सा लिया है। हमारे भारतीय रीति रिवाज इसका एक उदाहरण है। दहेज प्रथा, पुत्र के जन्म पर कुआं पूजन, पुत्र प्राप्ति के गीत हमारी लोक संस्कृति में बिखरे पड़े हैं। पुत्री को घर की इज्जत मानना उसके जन्म के साथ ही नियम अनुशासन की एक लंबी सूची बांध दी जाती है। लड़कियों को शिक्षा से वंचित किया जाना आदि अनेक उदाहरण हैं।
परंपरा से नारी को माना गया कि अब उसका अस्तित्व पुरुष पर ही निर्भर है जैसे उसकी अपनी कोई पहचान है ही नहीं। घरेलू हिंसा भेदभाव, सती प्रथा, बेमेल विवाह, असमान वेतन, संपत्ति पर अधिकार न मिलना, शिक्षा के अधिकार से वंचित करना, यौनिकता पर अधिकार, ऐसी मानसिकता ने नारी के अस्तित्व को दबा दिया और यह व्यवस्था बन गई। पुरुषसत्तात्मकता की जड़े इतनी गहरी है कि आज तक समाज इस जहर से उबर नहीं पाया है। गाँव, कस्बे, शहर, राज्य, देश हर स्थान पर इसका प्रभाव अपने – अपने रूपों में मिल जाएगा। घर से लेकर कार्य स्थलों तक नारी लगातार अपनी पहचान को ढूंढने की कोशिश करती आई है। अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई परीक्षाओं को देती आई है।
भारतीय धर्म दर्शन के अनुसार ईश्वर की संकल्पना अर्धनारीश्वर रूप में है ईश्वर भी न तो पूर्णता पुरुष है और ना ही पूर्णता नारी अर्थात हमारा भारतीय समाज नारी और नर का संगठित रूप है। मेरा मानना यह बिल्कुल नहीं है कि स्त्री और पुरुष में श्रेष्ठ कौन है। दरअसल यह प्रश्न ही गलत है। नर नारी बौद्धिक और सामाजिक सरोकारों के दृष्टिकोण से बराबर हैं। जिनका अस्तित्व ही एक दूसरे से है भला उनकी तुलना कैसी?
आज परिस्थितियां यह हो गई हैं कि स्त्री पुरुष की प्राकृतिक संस्था टूटती जा रही है। घर – घर तलाक, दहेज के लिए प्रताड़ना, हिंसा, बलात्कार, अस्तित्व का संकट, रोजगार की समस्या, अकेलापन, संत्रास, अवसाद, आत्महत्या, माता – पिता के विखंडन से बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव जैसी समाज और देश को खोखला करने वाली चिंता जनक समस्या बढ़ती जा रही हैं।
‘‘महात्मा गांधी का कहना था कि अपने कर्तव्यों को पूरा करना ही सच्चे अर्थों में अपने अधिकारों को जीना है।’’(1 – मेरे सपनों का भारत) स्त्री और पुरुष अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करें और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें तो दोनों में से किसी को भी अपने अधिकार से वंचित नहीं होना पड़ेगा। स्त्री पुरुष एक दूसरे को समझें एक दूसरे की आवश्यकताओं और भावनाओं को जगह दें। भारतीय मूल्य इतने महान हैं की पश्चिम इन्हें अपना रहा है। हम भारतीय इनसे दूर होते जा रहे हैं। ये कैसी विडंबना है?
इतिहास साक्षी है जब – जब स्त्री और पुरुष समान रूप से कदम से कदम मिला कर चलते हैं तो कठिन से कठिन समस्या का भी समाधान मिल जाता है। हमारा साहित्य ऐसे उदाहरणों की याद दिलाता रहा है। हमें स्वयं इस गंभीरता को समझना होगा। जैसा कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। स्त्री का उन्नत होना पुरुष का उन्नत होना है। किसी भी प्रबुद्ध समाज की पहचान उस समाज में स्त्रियों की दशा के आंकलन से ज्ञात होती है।
सहायक ग्रंथ:
1 मेरे सपनों का भारत – महात्मा गांधी (राजपाल एण्ड संज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली 110006) 2010
2 हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली (स्त्री विमर्श ) – डॉ. अमरनाथ (राजकमल प्रकाशन, प्रा. लि.1–बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली–110002) 2018