आदिवासी समाज : लोकगीत परम्परा
पूनम सिंह
भारतीय समाज मे प्राचीन काल से ही लोकगीत की परंपरा चली आ रही है। आदिवासी जन अपनी मूल संस्कृति को अभी सुरक्षित रखे हैं। आदिवासियों में लोक संस्कृति की उत्कृष्ट एवं समृद्ध परंपरा मिलती है। हर समाज के अपने-अपने रीति रिवाज होते हैं। जहां शादी, विवाह, पर्व, त्यौहार, देवी-देवताओं खेतो में काम करते समय, खाना बनाते समय, अपने दुखों को भुलाने के लिए गीतों की एक परंपरा है। कहां जाता है कि जिस समाज में लोकगीत नहीं होते वहां पागलों की संख्या अधिक होती है। लोकगीत सुनने से हमारा मन मस्तिष्क स्वस्थ रहता है।यह एक वैज्ञानिक सत्य है। सदियों से दबे कुचले समाज ने खासकर महिलाओं ने अपने दुखों को कम करने के लिए लोकगीतों का सहारा लिया। लोकगीत किसी लेखक या काल विशेष की रचना नहीं थी। महिलाओं ने लोकगीत परंपरा को सुरक्षित रखा है। आज भी हम लोकगीत को किसी न किसी रूप में अपना रहे हैं।
लोकगीत शब्द लोग और गीत इन दो शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है सामान्यजन लोगो द्वारा भावों एवम संस्कृति की सामूहिक अभिव्यक्ति के लिए निर्माण होने वाले गीत को लोकगीत कहा जा सकता है। या विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले गीत लोकगीत कहलाते हैं। विभिन्न विद्वानों ने लोकगीत की परिभाषा दी है-- लोकगीत को सर्वप्रथम साहित्य में लाने वाले रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार- "ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार हैं, इनमें अलंकार नहीं केवल रस है। छंद नहीं केवल लय हैं। लालित्य नहीं केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्य के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे ही गान ग्राम गीत हैं।"1 देवेंद्र सत्यार्थी के अनुसार-"लोकगीत हृदय के खेत में उगते हैं।सुख के गीत उमंग के जार से जन्म लेते हैं और दुःख के गीतों को खौलते हुए लहू से पनपते हैं और आंसुओं के साथी बन जाते हैं।"2 इससे स्पष्ट होता है कि लोकगीत लोक जनमानस की उपज है।
आदिवासी लोग लोकगीत की जीवंतता को बरकरार रखे हुए हैं।आदिवासियों के गीतों तथा कथाओं के मूल में जल, जंगल, जमीन एवं प्रकृति ही रहे हैं। आदिवासी लोकगीत का साहित्य के साथ अन्योन्याश्रित संबंध है। 'पठार का कोहरा 'उपन्यास में आदिवासी अपने पर्व, त्योहार, धार्मिक अनुष्ठान, संस्कार आदि को बड़ी तन्मयता के साथ मनाते हैं।मुंडा आदिवासी में विवाह को एक मस्ती का संस्कार माना जाता है। रूदिया और परभू का विवाह ठीक किया जाता है। ढेर सारी आदिवासी लड़कियों में परभू ने रुदिया को पसंद किया था ।यह रुदिया के लिए खुशी की बात होती है। इससे पहले परभू ने रुदिया को भगा ले गया जिससे दोनों के विवाह को मान्यता मिली। मुंडा आदिवासियों में विवाह अपनी रूढ़ियों, मान्यताओं के आधार पर ही होता है। इस शादी के शुभ अवसर पर गीत गाया जाता है जिस में थोड़ी मस्ती,व्यंग्य, छेड़छाड़ होती है:
धौले धौले चावल, उजलो है भात,
बनड़ा ले ले कलम दवात
चलो जा पढ़णा कू,
बनड़ा हमने बुलायो एकला ।"3
जैसे बन्ना के गीतों को सुनकर ऐसा लगने लगता है जैसे गाढ़ी रात में किसी ने उल्लास का घोल घोल दिया हो।
'जंगल के फूल' उपन्यास में बस्तर के गोड़ आदिवासियों का वर्णन है।लोक गीत, लोक कथा, लोक नृत्य, त्योहार आदि के माध्यम से इनकी संस्कृति देखने को मिलती है। लोकगीतों के माध्यम से गोड़ आदिवासियों का उल्लास प्रकट होता है।इस उपन्यास के आरंभ में ही गोड़ आदिवासियों का लोकगीत लेखक ने प्रस्तुत किया है:
धन रे अंगरिजवा sss
तोरी अक्कल मारी रे
रे रे रेलों रे रेलों रे
अधरे ,चलाय रिलगारी, हो
रिलगारी,रे ए ए ए ।"4
गोड़ आदिवासियों में 'घोटुल गीत' का अपना एक विशेष महत्व होता है जिसमे गोड़ पुरुष और महिलाएं मिलकर गीत गाते हैं। भारतीय संस्कृति में अतिथि को भगवान का दर्जा दिया गया है। आदिवासी भी अतिथि का बड़े मनोयोग से सेवा सत्कार करते हैं। 'जंगल के फूल'उपन्यास में एक अंग्रेज अफसर आता है जिसके स्वागत में गोंड आदिवासियों के द्वारा गीत प्रस्तुत किया जाता है--
तैना नामुर ना मुर रे ना रे ना ना
तभी नाक, जोड़ा डोंगा, हामी ना कुंदे खड़क सरकार चो
रैयत के दंड पडली दरभा ठाना चो सड़क
हो तै ना ना मुरडड।"5
इनके गीत भी बड़े मार्मिक होते हैं। यह लोग गीत,संगीत एवं नृत्य के माध्यम से अपने दुख-दर्द, मानसिक परेशानी को भुला देते हैं। गोंड जनजाति में प्रचलित लोक गीत से भी इनके आर्थिक दुख को समझा जा सकता है---
जयत के गुनहरी, बादल के भौड़
पक गए तो किसान, नांतर गोड़ के गोड़।"6
शादी विवाह के शुभ अवसर पर भी गोंडोंके यहां गीत, नृत्य पर होता है। गोंड आदिवासी साल भर में अनेक त्यौहार मनाते रहते हैं।इन त्योहारों पर उनसे संबंधित गीत भी गाए जाते हैं। कृषि गीत,घोटुल गीत, घोटुल से विदाई गीत, विवाह गीत, शिकार गीत, मृत्यु गीत आदि । गोड़ों का शिकार गीत प्रस्तुत है:
चीखल मारी करिया मामा
कारीगिर कारीगिर शिकारी शिकारी।"7
इसी तरह गोड़ जनजाति में घोटुल विदाई गीत है:
नियारा मनदाना लीनी रोय हेलो
लोनी गापुर हिंदु रोय हेलो।"8
इसका अर्थ है कि यह तुम्हारा घर था। तुम्हारी बातें कितनी मजेदार होती थीं। विदाई गीत बड़ा ही मार्मिक होता है।शादी के बाद लड़की अपने माँ बाप के घर से पति के घर जाती है तो सहेलियों, रिश्तेदारों को बड़ा दुःख होता है। यही दुःख गीतों में हमे देखने को मिलता है।
गोड़ आदिवासियों मे अगर किसी की मृत्यु हो जाती है तो उस समय औरतें मृत्यु गीत गाती हैं। गोड़ों में यह प्रथा प्रचलित है:
चोले दादरी रो ले, अइ अइ अइ।
ओरे बीरू राजाल रे ए ए ए।"9
अन्य आदिवासियों की तरह उरांव आदिवासी भी बड़े उत्सव प्रेमी होते हैं। साल भर समस्त पर्व, उत्सव को पूरी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। यह लोग नृत्य के बहुत बड़े शौकीन होते हैं।इनके यहां कोई भी उत्सव शादी, विवाह, पर्व, त्यौहार बिना गीत नृत्य के संपन्न नहीं होता।उरांव आदिवासी नृत्य के साथ- साथ गीत के भी बड़े शौकीन होते हैं। पर्व, त्यौहार, शादी, विवाह में तो नाच गाना होता ही है, किंतु यह लोग खेतों में काम करते समय भी पूरी तन्मयता के साथ गीत गाते हैं। धान रोपने के समय उरांव औरतें रोपनी का गीत गाते हुए काम करती हैं।काम के बाद घर लौटते समय अगर कोई छूट जाए तो लोग सवाली गीत गाकर पता लगाते हैं:
अनि गुड़ी चोना निङ
तरदी योता योता पतर योता योता
योना निङ। अर्थात चलो सहेली जाएं, दीपक देखते हुए, प्रकाश देखते हुए चलें।
तरदी जो मोलिवकि खोड़ झुंङ
जो हरिकोये अनि गुडी एङ
नानिङ अनिंपउ राजी"अर्थात दीपक भी बुझ गया है, रास्ता भी भूल गए, चलो सहेली लौटे अपने देश। कुछ ही देर में सामने से आते हुए दूसरे दल ने गीत से ही उत्तर दिया-- बिजली जो लवकेनत, गोड झुङ जो योजत
अनि गुड़ी चोनातिङ अनियअ राजी।"10 अर्थात बिजली भी चमक रही है, रास्ता भी दिख रहा है, चलो सहेली चलें अपने देश।"
बुंदेलखंड की आदिवासी कबूतरा जाति में भी विभिन्न पर्व मनाए जाते हैं इनके त्यौहार में लोग समूहों में नृत्य करते हैं। एक पुरुष ढोल बजाता है तथा अन्य पुरुष स्त्रियां उसके चारों ओर घेरा बनाकर नाचते हैं तथा ढोल की लय पर गीत गाते हैं। जैसे:
मोरी चंदा चकोर काजल लगा के आ गई भोर ही भोर
मोरी चंदा चकोर,छतिया पै तोता, करिहा पै मोर
मोरी चंदा चकोर, चोली में नेबुआ घघरा घूमे।"11
यह गीत होली, दीवाली, शादी-विवाह तथा अन्य तीज त्यौहार पर भी गाया जाता है।
नृत्य और गीत आदिवासी संस्कृति की पहचान है। 'ग्लोबल गांव के देवता' उपन्यास में असुर जाति के परिवार में भाभी देवर के रिश्ते का वर्णन किया गया है। जिसमें भाभी देवर को खाना खिलाते समय गीत गुनगुना कर सुनाया करती है:
काहे रे देवरा मन तोरा कुम्हले
काहे रे मन सूखी गेला रे
भूखे रे देवता मन तोरा कुम्हले
पियासे मन सूखी गेला रे।"12
'जय बिरसा' खण्डकाव्य भारत के स्वतंत्रता संग्राम के आदिवासी महानायक बिरसा मुंडा पर आधारित है। बिरसा को आदिवासी मनुष्य नहीं देवता मानते थे। उसकी मृत्यु पर वे लोग मुंडारी भाषा में गीत के मंत्रोच्चार करते हैं:
हे आते डिसूम सिरजाओ
नि आलिया आना सि
आलम आन दुलिया
आमा रेगे भरोसा विश्वास मेना।"13
अर्थात हे पृथ्वी माता हमारी प्रार्थना व्यर्थ मत जाने दो,तुम पर हमारा पूर्ण विश्वास है। जैसे उन्हें लगता है कि बिरसा कह रहे हैं:
शीघ्र लौटकर आऊंगा मैं
जीवन है विश्वासों में।"14
मड़िया जनजाति में भी गीत गाने की परंपरा देखने को मिलती है।' जंगल की पुत्री' तेलुगू उपन्यास में 'वोट्टगट्ट' गांव में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ था।वहां बैठक समाप्त होने के बाद गाने का कार्यक्रम रखा गया जिसमें मड़िया जनजाति की औरतों ने मार्मिक अभिव्यक्ति के गीत गाए। वह गीत इस प्रकार का है:
रिरिलियों रिलो- रिलो कोनिले
रिरिलियों रिलो - कोनिले
जंपर पोलो रिलो-रिलो (चोली पहनना निषेध है)
नँगा तस्कोम ईंतो रिलो (पुरुष कहते हैं नँगा रखेंगे)।"15
इस गीत के माध्यम से महिलाओं ने अपने दिल के दुःख दर्द को उजागर किया है। इस गाने को गाने वाली सभी किशोरी युवतियां ही हैं।
अनन्तः कहा जा सकता है कि प्रकृति पुत्र आदिवासी लोग आज भी अपनी संस्कृति को किसी न किसी रूप में जीवंत रखे हुए हैं। आदिवासियों की ही देन है जो हम गर्व से अपनी संस्कृति पर नाज करते हैं।
सन्दर्भ सूची:
1 रामनरेश त्रिपाठी - कविता कौमुदी भाग 5 पृ. 1-2
2 देवेंद्र सत्यार्थी- धरती गाती है पृ .107
3राकेश कुमार सिंह - पठार का कोहरा पृ.210
4 राजेंद्र अवस्थी -जंगल के फूल पृ.13-14
5 वही पृ 11
6 राजेन्द्र अवस्थी -- सूरज किरण की छांव पृ 30
7 राजेन्द्र अवस्थी -- जंगल के फूल पृ 123
8 वही पृ 192
9 वही पृ 136
10 मनमोहन पाठक-- गगन घटा गहरानी पृ 2-3
11 मैत्रेयी पुष्पा -- अल्मा कबूतरी पृ 42
12रणेंद्र- ग्लोबल गाँव के देवता पृ 27
13 जियालाल आर्य -जय बिरसा
14 वही पृ 29
15 वनजा -- जंगल की पुत्री पृ 84
पूनम सिंह
शोध छात्रा (हिंदी जेआरएफ)
सरदार पटेल विश्वविद्यालय वल्लभ विद्यानगर आणंद गुजरात
पता- जमुआ, देवघाट, कोरांव,
प्रयागराज (इलाहाबाद), उत्तर प्रदेश 212306
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