ख्यातनाम लेखक आदरणीय अशोक श्रीवास्तव जी सर इलाहाबाद प्रयागराज से आते है। आप पिछले कई वर्षो से लेखन क्षेत्र में सक्रिय हैं और आपकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। आप के द्वारा लिखित अब तक की प्रकाशित पुस्तकें - एकल काव्य संग्रह, - अंतर्नाद, (छंदबध) "सुरबाला।
प्रकाशनाधीन - "तरंगीनी, सोंधी महक,
साँझा संकलन में भी प्रकाशित पुस्तकें पाठकों के दिल में अपना स्थान बना चुकी है। उदहारणत: - "अभिव्यंजना, अभिनव हस्ताक्षर, ओस के मोती, काव्य अक्षत, हमारी शान तिरंगा हैं। अभिनव अभिव्यंजना।
अशोक श्रीवास्तव 'कुमुद' लेखक |
यह जगत प्रेम ही आधारा... प्रेम को संस्कृत के परम शब्द से लिया गया है परम का अर्थ होता है सकारात्मक भाव की चरम सीमा को पार करना। महाकवि कालिदास के अनुसार यह आत्मा से आत्मा का जुड़ाव है जब आत्मा परमात्मा के साथ मिलती है प्रेम चरम सीमा लाँघ जाती है। कुछ ऐसा ही भाव लिए आदरणीय अशोक जी सर का ये मुक्तक संग्रह हैं। जिसमें इहलोक के प्रेम समर्पण के साथ अंततः प्रमात्मा में रम जाने की चर्चा हैं। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना सुरबाला नारी जाति का प्रतिमान है। ईश्वर ने अपने उत्कृष्टतम रचना सुरबाला को गढ़ कर पृथ्वी पर भेज दिया और वो जवां दिलों की धड़कन बन धड़कने लगती है । कवि के शब्दों में
"भाव मन से गढ़ गढ़ कर तन मन
ईश्वर ने ढाला/ नख शिख रूप निखारा मोहक/ अनुपम बाला रच डाला।
मोहिनी, स्वप्न सुंदरी हर इंसान का ख़्वाब बन जाती है।
"जवां दिलो की हसरत बनकर / तन सोये पर मनवा जागे/ उड़ते अरमां सपनों में/ हर सपनों की थाह यही बस/ मंज़िल दिल की सुरबाला। "प्रेम को प्रतिपादित करने का कोई ओर छोर नहीं। इसकी गहनता को समझ पाना नामुमकिन है। इसे अनुभूत किया जा सकता हैं। प्रेम संसार के कण-कण में विद्यमान हैं। हमारे जीवन में रस ना होता यदि प्रेम ना होता। प्रेम की राह चलते नायिका का जीवन साथी कैसा हो ...
उसकी एक बानगी -
"तलवारों के तीखे पथ पर/ निर्विकार सा चले पथिक/ प्रेम बटोहि को मंज़िल पर/
कमजोरों के हक के खातिर लड़ जाए सम्राटो से वरन करे सुरबाला।
आदरणीय अशोक श्रीवास्तव जी सर का ये दो सौ मुक्तकों का संग्रह बड़े ही मनोयोग से रचा हुआ हैं। ऐसा नहीं था कि अगर कुछ मुक्तक इन में छूट भी जाते तो इस संग्रह की पूर्णता महसूस ना होती। एक एक प्रसंग से प्रतीत होता हैं मानो लेखक ने उसे जिया हैं।
प्रेम की चाहत में सुरबाला का मन भी किस प्रकार हिलोरे खाता हैं उसकी भाव सरीखी ये पंक्तियाँ -
"ऊँचा नीचा ताल तलैया/ सबको वो फांदा करती/ मदन हिलोरे तरुण उमंगे/ उड़े गगन मन सुरबाला
इस काव्य में स्त्री मन की कोमलता, सुंदरता, सरलचित्त प्रेम, समर्पण, करुणा, और त्याग की प्रकाष्ठा को महसूस कर सकते हैं।
सुरबाला के उद्वेलित हृदय को जब पिया का संग साथ हुआ उसकी भावनाएं इन पंक्तियों में नजर आती हैं
"घटे कभी ना प्रेम परस्पर/ पल पल बढ़ता ही जाए/ रति अनंग सी प्रेम कहानी/ संग पिया जब सुरबाला।"
भावों में समरसता है, मनोहारी हैं, छंदो में सहज लय और गति हैं। पढ़ते वक्त ऐसा महसूस होता हैं की भावों कि अतिरेक उत्कंठा ना जाहिर करते हुए धैर्य पूर्वक पूरी संजीदगी से डुबकर लिखी गई हैं।
कर्म की भूमि पर अगर प्रेम है तो विरह भी है। पति का प्रदेश जाना उसकी विरहाग्नि को लेखक मन लिखता हैं -
"जाए रहे परदेस पिया जब विहल् मन तड़पे बाला/ शबनम जैसे गिरते आंसू/रुक रुक रोये सुरबाला/ गुजर बसर कर लेंगे/ जाओ ना परदेस पिया/
किंतु समय के आगे किसका वश... साजन का परदेस जाना यदि सुरबाला के लिए तकलीफदेह हैं तो साजन के लिए भी उतना ही कष्टदायक हैं।
उधर नायक की विकलता को कवि लिखते हैं। "थम सा गया समय का पहिया/ पल पल लगे युगों वाला/ समय शूल सा लगता पल पल संग नहीं जब सुरबाला"
बाला से दूरियां, उसके विरह में मन की अकुलाहट को भुलाने की तड़प में उसके साथी उसे हाला ग्रहण करने का उपाय बताते हैं " आग्रह करे सखा चखने का/ दवा समझ पीयूष हाला/ सुख चैन नींद आ जाायेगी/ अधर लगे हाला प्याला
किंतु यहाँ प्रियतम का प्रियतमा के लिए प्रेम की गहराई और समर्पण भाव से मन व्याकुल हो उठता हैं।
"मीत प्रीत में सबकुछ छोड़ा/ प्याला पकड़े अब कैसे/ असमंजस में फँसा हुआ मन/ तड़पत साजन बिन बाला।
प्रतीत होता है कवि ने सुरबाला की आंतरिक स्थिति उसकी संवेदना की गहराई में उतर कर महसूस कर लिखा है। उधर प्रेम की आस लगाए नितांत विरह में
सुरबाला का मन भटकने लगता है। उसे प्रतीत होता है जैसे साजन "दूर हवाओं की सन सन में लगा पुकारा दिलवाला/ दूर धुंध में अभासित हो/ चला आ रहा मतवाला"
लेखन की सीमा का कोई अंत नहीं। भावपूर्ण रचनाएं पाठक के मन को सम्मोहित करती है।
प्रेम में व्यथित मन अपने मन की किसे कहे पिया के इंतज़ार में सुरबाला का उदासीन मन श्रृंगार तजने लगता हैं। ऐसे में उसका एकाकी मन स्वयं से वार्ता करता है।
"धूमिल यादें खड़ी सामने/ कुछ मासूम लिए/जब जब सूझे हल ना इनका/ राह देखती सुरबाला।"
प्रेम में उलाहना नहीं, विद्रोह नही है। प्रेम में श्रद्धा है विश्वास है, साधना है, समर्पण हैं तो वैराग्य भी है ।
साजन का इंतजार करते बाला की उम्र बीत गई । विधि का लिखा टल नहीं पाया "पथ देखती थक गई अँखियाँ/ दर्श सजन ना हुआ बाला/ उमर बीत गई इंतज़ार में/ विधि लिखि गया गया नही टाला विरह में तड़पती बाला "
सहज ही बाला को संसार से विरक्ति होने लगती है और उसका झुकाव ईश्वरीय प्रेम की ओर होने लगता है। उसकी शिकायत साजन से नही बल्कि भ्रामक संसार से होता है। उसके प्रेम की प्रकाष्ठा व एकनिष्ठ समर्पण भाव की बानगी -
जग के रिश्ते भूल भुलैया/ समझ रहा मन सुरबाला/ राह मिले ना पल पल भटके/ चैन नहीं पाए बाला"
मोह टूटता जीव जगत से/ प्रभु से मन जुड़ता जाए/
शाश्वत सुख की अनुभूति की ओर अग्रसर करती इस काव्य संग्रह का एक एक छंद बेहद मर्मस्पर्शी है। पाठक पढ़ते वक़्त इससे जुड़ाव महसूस करेंगे। बहुत ही संजीदगी से लिखी ये भावप्रवण रचनाएँ आँखें भी नम कर जाती हैं। एक बार पाठक इस पुस्तक को उठा ले तो पूरा पढ़कर ही दम ले। अलंकृत भाषा शैली, भाव सौंदर्य व बोध सौंदर्य भी मैं कहूँगी श्लाघनीय हैं। भाषाई अलंकरण से समृद्ध हैं।
प्रेम के अद्भुत रंगो में समाई ये पुस्तक पठनीय व संग्रहनीय हैं। पुस्तक की भूमिका आदरणीय - लाल देवेंद्र यादव जी द्वारा की गई हैं। जो स्वयं एक जाने माने स्थापित लेखक व नव किरण प्रकाशन के संपादक भी हैं और इस पुस्तक "सुरबाला" का प्रकाशन भी यही से हुआ हैं पुस्तक के कागजों की गुणवत्ता बढ़िया हैं। खूबसूरत आवरण चित्र : संदीप राशिनकर जी का हैं। (इंदौर)
आदरणीय अशोक श्रीवास्तव जी सर को कई ख्यातनाम मंचों से भी सम्मानित किया गया हैं। जिनमें साहित्य संगम संस्थान दिल्ली, सच की दस्तक पत्रिका द्वारा सम्मानित, प्रयागराज द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान से सम्मानित। इत्यादि....
मैं आदरणीय अशोक श्रीवास्तव जी सर को इस अद्भुत काव्य संग्रह की सफलता हेतु अनेकानेक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ देती हूँ।
पूनम सिंह दिल्ली |
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