Ashok Srivastav 'Kumud' Poetry
🚶दो कदम बढ़ा ✊
सच सुनने में डर लगता है
सच कहने में डर लगता है
अंधों की इस नगरी में अब
आंखों को भी डर लगता है
गूंगी कायर जनता के संग
अंधी बहरी सरकारें हैं
पंगु बनी व्यवस्था में
शोषित समाज की आहें है
अंधों को दृश्य दिखाई दे
वो आंख कहां से मैं लाऊं
गूंगों की आह सुनाई दे
वो कान कहां से मैं लाऊं
दिल में तूफान उठा दे जो
वो जज़्बात कहां से मैं लाऊं
कायर का खून उबाले जो
वो गीत कहां से मैं लाऊं
सोच ना तू अब दुनिया में
क्या पास है तेरे खोने को
उठ जाग मुसाफिर भोर भई
अब वक्त कहां है सोने को
ना कहने सुनने में समय गवां
इक नई क्रान्ति का बिगुल बजा
इक नया समाज बनाने को
दो हाथ उठा, दो कदम बढ़ा
अशोक श्रीवास्तव "कुमुद"
राजरुपपुर, इलाहाबाद
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