अशोक श्रीवास्तव कुमुद की काव्य कृति सोंधी महक से ताटंक छंद पर आधारित रचना
🏫 घरेलू स्कूल 🏫
बीती उमर परीक्षा देते,
मुनुआ पास न होवै का।
नहीं नौकरी उमर निकलती,
मुनुआ छिप कर रोवै का।
बड़े बाप का बेटा मुनुआ,
कठिन काम हरवाहे का।
खेती सेती बस का नाही,
देरी होत बियाहे का।
काम काज कुछ करै न मुनुआ,
बाप ददा सब डाहे का।
कौन बाप लड़की फिर ब्याहे,
मुनुआ संग निबाहे का।
बाप पूत सुखिया मुनुआ को,
गँउवा भर समझावै बा।
चाह हाथ पीला होय जाय,
कवनौ काम दिलावै का।
कवनौ काम बतावै सुखिया,
पैसा देत लगावै का।
पढ़ा लिखा अँग्रेजी जानत,
मुनुआ के नहि भावै का।
खेत दुकानी ठेकेदारी,
मुनुआ रखत नहीं नाता।
गिटपिट अँग्रेजी जब बोलै,
गँउवा लगत वही ज्ञाता।
स्कूलों में जगह निकलती,
मुनुआ पास नहीं होता।
नही मास्टरी मुनुआ मिलती,
फिर भी आस नहीं खोता।
स्कूलों में फीस बहुत बा,
रस्ता बहुत कमावै का।
स्कूल खोल दे सुखिया सोचै,
मुनुआ लगत पढ़ावै का।
दुअरा बैठक अरु ओसारा,
सुखिया तुरत किया खाली।
विद्यालय का बोर्ड लग गया,
बजा रहा गँउवा ताली।
मैनेजर सुखिया जी बन कर,
घर में स्कूल चलावै का।
मुनुआ चुनुआ मास्टर बनकर,
कहीं नहीं अब जावै का।
स्कूल खुला सुखिया के घर,
माध्यम अब अँग्रेजी बा।
अच्छी होत पढ़ाई सुनकर,
सब लड़कन में तेजी बा।
घर घर जाय रहैं मास्टर जी,
गिटपिट गिटपिट बोले बा।
अँग्रेजी में अव्वल अइहें,
भेद हिया सब खोले बा।
नाम लिखाओ लड़कन का अब,
फीस बहुत ना ज्यादा बा।
विद्यार्थी अँग्रेजी बोलिहें,
गँउवा भर अब वादा बा।
अँखियन में इक चमक उभरती,
घर घर में उजियारा बा।
गँउवा लड़कन साहब बनिहें,
घर घर में जयकारा बा।
बुधिया सोचत घर में बैठा,
बात नहीं कुछ भावै का।
नहीं प्रशिक्षण नहीं पढ़ाई,
नहीं इन्हें कुछ आवै का।
बिना नकल के पास भए ना,
दुइ दुइ साल लगावै का।
लड़कन के अब भट्टा बैठी,
मुनुआ अगर पढावै का।
घर घर में स्कूल चलत बा,
दशा खराब पढ़ाई का।
शिक्षा की दुर्दशा हो रही,
धंधा बना कमाई का।
राजरूपपुर, प्रयागराज
(इस रचना के किसी भी अंश से किसी अध्यापक के सम्मान को ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है, परंतु जिस तरह बिना प्रशिक्षण/योग्यता के कुछ झोला छाप मास्टर कहीं कहीं, स्कूलों में ठीक से नही पढ़ाकर बच्चों का भविष्य अंधकारमय कर रहे हैं, यह देश के भविष्य के लिए, एक विचारणीय प्रश्न है।)
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