माँ पर सर्वश्रेष्ठ कविता
🤱 घर का 'ऑरा' 🤱
निश्छल गागर प्रेम की, ममता का रस छलकाती है
ईश्वर जहाँ थक जाता , वहाँ माँ दायित्व निभाती है।
सब रिश्तों में माँ का रिश्ता, नौ महीने अधिक पुराना है माँ से ज़िदा तभी बच्चों को, कब, किसने पहचाना है।
पढ़ लेती चिंता की हर रेख, खामोशी भी सुन लेती है फूल बिछा संतान-राह में, ख़ार स्वयं चुन लेती है।
अजस्र सरिता अनुभवों की उसके भीतर बहती है
पल्लू में चिंताओं को बाँधे, अनवरत चलती रहती है।
पैरों में न जाने कैसे, चक्कर लिखा कर आती है
भोर से लेकर रात ढले तक फिरकी-सी घूमती जाती है।
कठिन घड़ी हरती मन्नत से, हिम्मत कभी न हारे माँ खुशियों की हो गर बरसातें, डर-डर नज़र उतारे माँ।
माँ सोचती बाल रूप में जग बाहों में लेटा है
शिशु खुश कि अंक में मैंने, ब्रह्मांड को समेटा है
सृष्टि नियंता है वही, संबंधों में सूत्र पिरोती है
रिश्तों में प्रेमिल ऊर्जा भरती, घर का 'ऑरा' होती है।
डॉ. मंजु रुस्तगी
हिंदी विभागाध्यक्ष(सेवानिवृत्त)
वलियाम्मल कॉलेज फॉर वीमेन
अन्नानगर ईस्ट, चेन्नई
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