बसेरे से दूर जाना
बसेरे से दूर जाना
कितना कठिन होता है
अपने नीड़ से उड़ना जहाँ
कितनी स्मृतियाँ, कितना नेह
एक साथ मौजूद रहा हो....
उस नेह की तमाम स्मृतियाँ
लेकर हम उड़ते हैं गगन के विस्तार में
नये आशियाने के नये पड़ाव पर
जहाँ रह-रहकर
बसेरे की सभी स्मृतियाँ सजीव जान पड़ती हैं।
अवकाश के दिन की प्रतीक्षा
मन को बच्चों की तरह गुदगुदाता है
बड़े और बच्चे में अब फर्क ही नहीं आता
नीड़ पर पहुँचकर अक्सर बच्चा बन जाना होता है ।
पिता की मौजूदगी में उमड़ पड़ता है नेह
वे अब भी सहेजकर रखते हैं बच्चों की तरह
पिता हैं तो जहां की सब खुशियाँ शामिल हैं
सच....
परिवार के संग जीने का मजा ही अलग होता है।
शालिनी साहू
ऊँचाहार, रायबरेली (उ०प्र०)
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