भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भारतेंदुयुगीन लेखकों का योगदान : पूनम सिंह

Dr. Mulla Adam Ali
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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भारतेंदुयुगीन लेखकों का योगदान

पूनम सिंह

भारत के इतिहास में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन एक युगांतरकारी घटना है। भारत देश लगभग दो सौ साल तक गुलाम रहा है। भारत देश पर अधिकार जमाने कभी डच,कभी पुर्तगाली,, फ्रांसीसी, मुगल तो कभी अंग्रेज आये और शासन किया।भारत देश की अखंडता,एकता को बिखेर दिया ।भारत मे विभिन्न प्रान्त और विभिन्न वर्ग के लोग अंग्रेजों से त्रस्त होकर अपनी-अपनी समस्याओं से लड़ रहे थे।जहां एक ओर भारत के महान सेनानी लोग देश को आजाद कराने के लिए आंदोलन कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर हिंदी साहित्य के विभिन्न लेखकों ने भी राष्ट्रीयता पर अपनी लेखनी के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाने का कार्य किया।

          किसी देश या राष्ट्र की राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना का मूलाधार वहाँ की राष्ट्रीय भावना होती है। जिस देश के लोगों में राष्ट्रीय भावना नहीं होती वह देश गर्त में चला जाता है। राष्ट्रीयता वह नागमणि है जिसके आलोक में हम गहन से गहन अंधकार में भी अपने उत्तरदायित्व का सही ढंग से बोध कर पाते हैं और विषम परिस्थितियों में भी हमारी चेतना हमारा साथ नहीं छोड़ती।

भारतीय राष्ट्रीयता के दो रूप हमारे साहित्य में प्रयुक्त किये गए हैं। परतंत्र भारत की राष्ट्रीयता और स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीयता। किसी देश के साहित्य का प्राण राष्ट्रीयता की भावना ही होती है। भारतीय जनमानस के अंदर राष्ट्र की भावना जगाने में भारतेंदु युग के लेखकों ने अभूतपूर्व योगदान दिया है। भारतेंदु युग के लेखकों ने देश की दासता एवं कारुणिक दशा से प्रभावित होकर जनमानस में साहित्य के माध्यम से अपना योगदान किया। वे सभी एकजुट भारत माँ को दासता की बेड़ियों से आजाद कराने के लिए आकुल हो उठे और कलम के माध्यम से आंदोलन की शुरुआत की। देश के अतीत व स्वर्णिम गान तथा सांस्कृतिक परम्परा से रूबरू कराने का उत्तरदायित्व तो इन लेखकों ने किया ही साथ मे ही देशवासियों के हृदय में देशनिष्ठा एव अस्मिता की अलख भी जगाई।

         लेखकों ने देशवासियों की दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट कर ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए जनजागरण को प्रेरित कर उनमें क्रांति का बिगुल फूंकने का कार्य किया। भारतेंदु युग के लेखकों ने अंग्रेजों के छल, कपट के नीति का विरोध कर स्वाभिमान से जीने के लिए प्रेरित किया। भारतेंदु तथा उनके सहयोगी लेखकों ने नवयुग मे विचार स्वातंत्र्य को जन्म दिया अतः इस अनुकूल वातावरण में लेखकों ने देश की प्रगति के कारणों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया तथा साहित्य द्वारा समाज,धर्म एवं शासन सम्बन्धी सुधार का व्रत लिया।देश समाज तथा संस्कृति को नवीन दृष्टि से देखा। भारतेन्दु जी इसके प्रतीक थे और जैसा कि डॉ.वार्ष्णेय ने लिखा है कि-"उन्होंने देशभक्ति, लोकहित,समाज सुधारक, मातृभाषोद्धार स्वतंत्रता आदि की वाणी सुनाई।"1

     भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में भारतेंदु युग का विशेष महत्व है। इस युग के लगभग सभी लेखकों ने देशभक्ति पूर्ण रचनाओं का सृजन किया ।लेखकों ने परतंत्रता की गहरी नींद में सोए हुए भारतीयों को जगाने का काम किया तथा राष्ट्रीयता की लहर पूरे देश मे फैलाई। भारतेंदु युग के लेखकों सामाजिक कुरीतियों, बालविवाह, विधवा विवाह ,जाति-पाँति ,ऊँच-नीच,अंधविश्वास, निर्धनता, स्वदेश भावना,असहयोग स्वतंत्रता आंदोलन आदि को अपने काव्य का विषय बनाकर सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की। इस युग के लेखकों की कृतियाँ देश प्रेम की भावना से परिपूर्ण हैं।

          भारतीय पुनर्जागरण साहित्याकाश के इंदु भारतेंदु थे। भारतीय गगन में सौम्यकीर्ति ज्योत्स्ना से साहित्य,संस्कृति एवं राष्ट्रीयता की भावना का पथ अवलोकित करने के लिए ही भारतेंदु का उदय हुआ था।मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में ही भारतेंदु ने स्वतंत्रता के बीज को अंकुरित किया। देश के दीन-हीन दुर्दशा का हृदय विदारक चित्र खींचकर देशवासियों को जगाया।स्वदेशी भावना और स्वदेशी भाषा को अपनाने पर बल दिया।भारतवासियों को संगठित होकर संघर्ष और बलिदान के लिए प्रेरित किया। उज्ज्वल अतीत का गुणगान गाते हुए पुण्य पूर्वजों का गौरव के साथ वंदन किया। जनमानस के अंदर साहस का संचार करते हुए विजय की कामना से प्रमाण गान गाये।

      भारतेंदु ने स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग करने के व्यवहार की मांग की । इसका प्रमाण वह प्रतिज्ञा पत्र है जो कविवचन सुधा में 23 मार्च 1874 को छपा था।--"हम लोग सर्वान्तर्यामी सब स्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं की हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिनेंगे और जो कपड़ा कि जो पहले से मोल ले चुके हैं आज की मिती तक हमारे पास है उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम मे लावेंगे पर नवीन मोल लेकर किसी भांति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगें। हम आशा रखते हैं कि इसको बहुत ही क्या प्रायः सब लोग स्वीकार करेंगे और अपना नाम इस श्रेणी में होने के लिए श्रीयुत बाबू हरिश्चंद्र को अपनी मनीषी प्रकाशित करेंगे और सब देश हितैषी इस उपाय के वृद्धि में अवश्य उद्योग करेंगे।"2

       भारतेंदु न केवल साम्राज्यवादी शोषण का खुला चित्रण ही नहीं करते बल्कि अपनी शैली में साम्राज्यवादी दमन का खिल्ली भी उड़ाते हैं। भारतीयों को सचेत करते हैं ।उन्हें आपस मे प्रेम बढाने तथा अपने देश मे सब प्रकार से उन्नति करने को कहते हैं। अपने देश मे अपनी भाषा की उन्नति करने तथा परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा पर भरोसा नहीं करने को कहते हैं। डॉ. शिवकुमार मिश्र लिखते हैं कि -"ब्रिटिश राज की लूट उसके अमानवीय अर्थ तंत्र उसके कुशासन और उसके परिणामों, अकाल,महामारी आदि का जितना यथार्थ हृदय द्रावक और रोमांचक वर्णन अपने समय के संदर्भों में भारतेंदु ने किया है उतना अन्यत्र नहीं दिखाई पड़ता।"3

      भारतेंदु जी के स्वदेशी विचारधारा के प्रति टिप्पणी करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-" यह कहना अत्युक्ति न होगी कि हिंदी प्रदेश में स्वदेशी आंदोलन के जन्मदाता और देश के लिए बलिदान का पाठ पढ़ाने वाले भारतेंदु ही थे।"4

      भारतेंदु के सहयोगी लेखक प्रेमघन ने अपने लेख में साम्राज्यवादी शोषण को जनमानस के बीच उद्घाटित करते हुए लिखा है कि-"विलायत व्यापारियों ने जैसी कुछ दीन- दशा इस देश की की और किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। जो प्राचीन नगर व्यापार में विख्यात थे अब वहाँ खंडहरों का दृश्य विदेशी व्यापारियों की निर्दयता को सूचित कर रही है।"5

           भारतेंदु के सहयोगी प्रतापनारायण मिश्र अपने साहित्य में उग्र तेवर अख्तियार करते हुए'हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान' का नारा देते हैं।उनका यह उग्र तेवर बताता है कि उन्हें सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषाओं और उसकी सीमाओं का ज्ञान नहीं है या तो तो वे एक संकीर्ण राष्ट्रीयता का पोषण उत्साह में कर देते हैं। मिश्र जी की राष्ट्रीय भावना राजनैतिक जीवन से संबंधित थी।इल्बर्ट विल आंदोलन के संबंध में उन्होंने एंग्लो इंडियन के मुख से कहलवाया था कि इस बिल ने अनर्थ किया है और छाती को जलाने वाली सौत के समान है।

      बालकृष्ण भट्ट भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के हस्ताक्षरों में एक प्रमुख हैं।उनके काव्य राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत हैं । बालकृष्ण भट्ट ने अपने कालजयी पत्रिका 'हिंदी प्रदीप' में 1866ई. में लिखा कि-"विलायत वालों ने जो हमे दासत्व की अवस्था मे छोड़ दिया है हमारा शिल्प वाणिज्य सब हमसे छीन विलायत के अपने भाईयों का हर तरह से पेट भर रहे हैं। पसीने की मेहनत का फल मुल्क की पैदावारी का सुख आप उठा रहे हैं सो सब हमारे कुलक्षणों से मसल है जिसकी लाठी उसकी भैंस ।"6 भट्ट ब्रिटिश शासन की नीतियों की कटु आलोचना करते रहे और भारतीयों को आंदोलन के लिए प्रेरित किया।

         भारतेंदु युग के साहित्य मनीषियों ने देशभक्ति की भावना को जागृत करने के लिए भारत के जिस अतीत काल का गान किया था , वह हिन्दू काल का स्वर्णयुग था। हिन्दू साहित्य प्रणेता हिन्दू थे वे जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना का बोध कराते थे। देशवासियों को अज्ञान, मूर्खता, कूपमण्डूकता से मुक्त करने, उनमें आत्मविश्वास भरने तथा उन्हें साहस प्रदान करने के लिए अतीत-गौरव स्मरण आवश्यक था। भारतेंदु, प्रेमघन आदि लेखकों ने अतीत गौरव के विनाश का कारण भारतवासियों के चारित्रिक पतन में ढूंढा था। उनके अनुसार-" देशवासियों की फुट,आपसी महाभारत, आलस ,कलह आदि का लाभ उठाकर यवनों ने मंदिर फोड़े थे, मूर्तियां तोड़ी थी और अब अंग्रेजी राज्य में देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ गया था।"7

     भारतेंदु युग के लेखकों की विचारधाराएँ नव जागृति की प्रतीक थीं, जिसमे देशप्रेम, राष्ट्रीयता, सामाजिक- धार्मिक उत्थान तथा नैतिक आदर्शों का प्रभावशाली कल्पना निहित है। इस युग के लेखकों ने जनमानस के हृदय में राष्ट्रप्रेम की भावना जगाई।समसामयिक राष्ट्रवादी विचारधारा को लेखकों के उद्गार से प्रोत्साहन मिला।देश प्रेम तथा विश्वबन्धुत्व के बीज लेखकों में मधु सिंचित संदेश से पुष्पित तथा पल्लवित हुए।राष्ट्रीय चेतना, भारतीय आंदोलन तथा जनजागरण का श्रेय निश्चय ही भारतेंदु युग के लेखकों को जाता है।

सन्दर्भ ग्रंथ;

1 आधुनिक हिंदी काव्य- डॉ. वार्ष्णेय पृ. 277

2 कवि वचन सुधा पत्रिका 23 मार्च 1874

3 - शिवकुमार मिश्र -भारतेंदु अंतर्विरोधों के बीच भारतेंदु और भारतीय नवजागरण सं. शम्भुनाथ, अशोक जोशी पृ. 70

4भारतेंदु हरिश्चंद्र- रामविलास शर्मा पृ. 35

5 प्रेमघन सर्वस्व प्रथम भाग-पृ. 278

6 राष्ट्रीय पत्रकार और अनन्य साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट पृ. 80

7 प्रेमघन सर्वस्व प्रथम भाग पृ. 51

पूनम सिंह

असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, हिन्दू कन्या महाविद्यालय,
सीतापुर (उत्तर प्रदेश)

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