व्यंग्य : किसी होटल में ले जाएं - बी. एल. आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
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नई दुनिया, इन्दौर में प्रकाशित व्यंग्य

किसी होटल में ले जाएं

बी. एल. आच्छा

    तंत्र को भी तंतरना पड़ जाता है। राजतंत्र हो या लोकतंत्र, तंतराती निगाहें जरूरी हैं। राजतंत्र में महलों में ही कोप- भवन हुआ करते थे, जैसे लोकतंत्र के प्रदर्शन - तंत्र के लिए जंतर-मंतर। दूर की कौड़ियाँ युद्ध के घमासानों में खूब चलती थीं। पर लोकतंत्र में पास की कौड़ियाँ कब क्रॉस वोटिंग के खेल खेल जाती हैं, संदेह का भभका नींद उड़ा जाता है। 'हमारे संपर्क में हैं '- यह जुमला तो चौमुहानी होकर नींद की गोली के बावजूद नींद उड़ा देता है।

         बात महाभारत की थी। पांडवों ने अपने मामा शल्य को आमंत्रित किया था। पर कौरवों ने रास्ते के डाक बंगले में ही झपट लिया। खूब खातिर की। मामा शल्य अतीव आशीर्वादी मुद्रा में आ गये। मामा की सेवा-सुश्रूषा ऊँचे उठे हाथ से कुछ देने की मुद्रा में बदल गयी। उस समय पेट और नैतिकता का रिश्ता गहरा रहा होगा  इस‌ नैतिकता में कूटनीति अपने पकौड़े तलती रही। बातों-बातों में मामा शल्य, कौरवों के सारथी हो गये! मुझे नहीं मालूम क्रॉस वोटिंग थी या कुछ और। दल बदल का जमाना था ही नहीं। वरना कर्ण कोभी छलांग लगाते पशोपेश नहीं होती।

         जमाना युद्धों का था। अभिमन्यु को घेरते सात महारथी और जमीन में धंसे रथवाले कर्ण से कवच-कुंडल का दान। उस जमाने में नैतिकता का फेविकॉल कुछ ज्यादा ही चिपकाऊ रहा होगा। जानलेवा होने पर भी पाला- बदल से कोसों दूरी। मरण का त्यौहार बन जाता था। इस मामले में लोकतंत्र शाकाहारी है। फेविकोल जरा कमजोर, विश्वास जरा संदिग्ध, मगर तंत्र में शाकाहारी।

        चुनाव आए नहीं कि मन की आँखें गुप्तचरी करने लगती हैं। मामा शल्य ने पाला जरूर बदल लिया, मगर क्रॉस-वोटिंग से परहेज किया। अपने अपने पाले और संवादों की तीखी तीरंदाजी जरूर हुई। पर संदिग्ध तो कोई नहीं थ। मगर लोकतंत्र की यही खूबी है कि रजिस्टर्ड- एडी की तरह नत्थी हो जाते हैं, पर क्रॉस वोटिंग का कीड़ा काटता रहता है।

       अब कोप- भवन का रूट बदल गया है। कारगर यही लगता है कि अपनेवालों को किसी होटल में ले जाएँ । राजनीति के डिस्को में गाते तो साथ हैं, कदम भी साथ ही उठते हैं। पर लोकतंत्र के गोपनीय कक्ष में क्यों संदेह बना रहता है। वजीर हो या प्यादा, इन लोकतांत्रिक पटखनिया खेलों में कहीं राजनीतिक हथलेवा न रचा ले। शिखर को अपनी ही तलहटी पर विश्वास नहीं रह जाता। तलहटी भी शिखर बनने की जुगाड़ बुनती है। लोकतंत्र के होटलिया डिस्को में बोल ही बदल जाते हैं -" किसी डिस्को में जाएँ। किसी होटल में खाएँ । कोई देख न ले, इस सुई से उबर जाएँ। कहीं घूमे बगैर संदिग्ध को पक्के से चिपकाएँ।चलो वोट से इश्क लड़ाएं।"

       राजनीति की गलबहियाँ भीतर में कितनी चुभचुभनिया होती है। विश्वास की चमकीली - मुस्कुराती परत के नीचे संदेहों की स्याह परतें होती हैं। अब मुस्कुराहट के साँवले बांकपन को नापने के विश्वास- मीटर तो होते नहीं। पर अक्सर देखा है, दो संदेहग्रस्त खूब गले मिलते हैं। अपने घर के विश्वस्त को तो ऐसे वैसे ही निपटा देते हैं। पर विरोधी पक्ष के साथ पूरा महाभोज होता है। भोज की राजनीति में पता ही नहीं चलता कि क्रॉस वोटिंग वाली फूड- पाइजनिंग कैसे हो गयी। कब कबड्‌डी- कबड्‌डी बोलता हुआ खिलाड़ी विरोधी पाले में अपने को पकड़े जाने की ढ़ीलमढ़ील कूटनीति रचा जाता है। जरूरी नहीं कि लोकतंत्र मानेसर के वातानुकूलित रिसोर्ट में हॉटस्पॉट बनाए। सारी दिखावटी आत्मीयता की गर्मी में मैच फिक्सिंग पर कोई क्रिकेटिया छाप थोड़े लगी है। बिन छाप के ही क्रॉस वोट से पताका फहरा जाए। घरवाला संदिग्ध विश्वास होटल में आंखों का सीसीटीवी बन जाता है। सत्ता के नीचे का कछुआ गुगली चाल से वाइब्रेंट हो जाता है। फिर क्या सत्ता और क्या असत्ता, दोनों ही अपनों- अपनों की बाड़ेबंदी में एक ही राग में गाने को मजबूर कर देते हैं- "किसी होटल में ले जाएं"।

बी. एल. आच्छा

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