बी. एल. आच्छा
जंगल- जंगल
नदी -पोखर
उड़ान भर आई है चिड़िया
हाँफते पंख
प्यासी चौंच
सिमट रहे प्राण
आ बैठी है नल की टोंटी पर
जंगल का दर्द लिए चिड़िया।
कहीं टपक जाएँ
बूँदें दो चार।
गर्दन को जल- योग कराती चिड़िया
देखती है घर के बाबा को।
बाबा !जब बिटिया को
विदा किया था पीले हाथों से
कितने ढुलक गए थे आँसू
सुना था मैंने भी
बिटिया ने गाया था
"बाबुल मैं तो तेरे बाग की चिड़िया"
आज बैठी हूँ
दो बूँदों की आस लिए।
कितना मादक था
पनघट पर बहते पानी में
हम फुदकी लेते थे
छत पर के बर्तन को
स्विमिंग पूल बना लेते थे
माथे पर पानी के बर्तन
लेकर आती माँ
कोस भर दूरी से
हम भी नन्ही घूँटों से
प्यास बुझा जाते थे।
पर अब आँखों में
सूखी नदियों के प्यासे ओठ
दरकती जमीनें तालाबों की।
प्याऊ का
जूठा पानी भी
हलक बुझा देता था
पर बिसलेरी सभ्यता में
संस्कृति सूखी है पानी की
बड़ी-बड़ी अट्टालिका में
आती है ग्लास आधे पानी की।
पर अब तो बिलबिला रहे हैं
बस्ती के खाली बर्तन
पूरी झोंपड़ बस्ती
राह तक रही टैंकर का ।
वैसे ही मैं भी बैठी हूँ टोंटी पर
आस लिए दो बूँदों की
निहार रही हूँ पोस्टर
जल ही जीवन के
सेव वाटर के जलसों के
सबमर्सिबल और बोतल संस्कृति के।
बी. एल. आच्छा
मो- 9425083335
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