किसानी जीवन का दस्तावेज: गोदान
पूनम सिंह
किसान भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है। किसानों से ही भारत में किस कृषि संस्कृति का निर्माण हुआ है। और भारत किसान भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। कृषक के बिना भारतीय संस्कृति का विश्लेषण अधूरा है। किसान की पहचान उसकी खेती बारी से होती है। किसी जाति या वर्ण से नहीं एक किसान के लिए खेती ही उसकी आजीविका का साधन है किंतु, किसानों की अवस्था अत्यंत दयनीय है। हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जो किसान अन्न पैदा करता है वही दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हो गया है ।जो किसान दूसरों का पेट भर रहे हैं वहीं भूखे सो रहे हैं। यह कैसी विडंबना है? कहने को तो भारत एक कृषि प्रधान देश है परंतु सच्चाई कुछ और ही है। कृषि प्रधान देश में किसानों की अवस्था अत्यंत दयनीय है। जो दिन रात खेत में हल जोतता है, मेहनत करता है, कष्ट सहता है, उसका संपूर्ण जीवन अभाव, दुःख, पीड़ा, त्रासदी, यातना आदि में बीतता है। कितनी भी गर्मी, ठंढी, बरसात क्यों न हो किसान खेती करते हैं। इतना करने के बावजूद जनता का दृष्टिकोण उनके प्रति अच्छा नहीं है।शहरी व्यक्ति तो उन्हें हेय दृष्टि से देखते है। और वो ये भूल जाते हैं कि इन्हीं के उपजाए अन्न से हम जिंदा हैं। हर कोई अपने फायदे के अनुसार किसानों का उपयोग अपने स्वार्थ एवम सत्ता के लिए करते हैं। अनाज पैदा करने वाले किसान को अपने अन्न का भाव तय करने का अधिकार नहीं है। उस अन्न का भाव सरकार तय करती है जिसे खेती के बारे कुछ नहीं पता। इस कारण किसान और भी कंगाल हो जा रहा है। किसानों की उन्नति के बिना देश की उन्नति नहीं हो सकती है।
सम्राट उपन्यासकार प्रेमचन्द का 'गोदान' उपन्यास कृषकों की महागाथा प्रस्तुत करता है। भले ही यह उपन्यास 1936 में लिखा गया किंतु आज भी यह जीवन्त है। इस उपन्यास के माध्यम से कृषक जीवन के संघर्ष और त्रासदी को समाज के सामने प्रस्तुत किया गया है। प्रेमचंद जी ने गोदान में देश के किसानों के जीवन और संघर्षों में सबसे मार्मिक और संवेदनशीलता को प्रस्तुत करते हैं। कृषक जीवन के संघर्ष की महागाथा प्रस्तुत करते हैं। वह कृषकों की पीड़ा, शोषण, कठिनाई, समस्याओं आदि से भलीभांति परिचित थे। और वे यह चाहते थे कि भारत से जमींदार प्रथा समाप्त हो जो किसानों के शोषण के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है। वे अपने एक लेख पुराना -जमाना, नया -जमाना में लिखते हैं कि-" क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में 90 फ़ीसदी आबादी किसानों की हो,उस देश में कोई किसान सभा, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो। आने वाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है।"1।
गोदान की कथा एक होरी नामक किसान के रूप में पारिकल्पित की जाती है। जो समस्त भारतीय किसानों का प्रतिनिधित्व करता है।एक सामान्य किसान कोपूरे उपन्यास का नायक बनाना भारतीय उपन्यास परंपरा में परिवर्तन करने जैसा है। एक किसान अपने परिवार को चलाने के लिए किन किन समस्याओं को झेलता है वह होरी के माध्यम से प्रेमचंद जी ने जनता के सामने रखा है। गोदान का किसान होरी 5 बीघा जमीन का मालिक है। वह 5 बीघे जमीन को जोतते हुए कभी किसान तो, कभी मजदूर बन जाता है। वह वर्ष भर ऋण, लगान ही चुकाता रहता है। यह कैसी विडंबना है कि जो किसान सारे देश के लिए अन्न उप जाकर पेट भरता है और वह उसका परिवार स्वयं भूखा सोता है। किसान के इस दुर्दशा का चित्रण गोदान में किया गया है-" होरी की फसल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी बैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते लगते घर में अनाज का एक दाना ना रहा। पांच पांच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून ना मिले ,एक जून तो मिलना ही चाहिए। भरपेट न मिले, आधा पेट तो मिले निराहार कोई कै दिन रह सकता है। उधार ले तो किससे? गांव के छोटे बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करें तो किसकी?।"2
यह कथा केवल होरी की ही नहीं बल्कि उसके कमोबेश सभी किसानों की हालत है। आखिर जो बेचारे किसान ठहरे किसान तो किसान है इसमें उनका क्या दोष। गोदान उपन्यास में किसानों की दुर्दशा को बयां करने तथा दिल को दहला देने वाला एक चित्र मिलता है। जो भारतीय समाज पर कुठाराघात करता है--" सारे गांव पर यह विपत्ति थी। ऐसा एक आदमी भी नहीं जिसकी रोनी सूरत न हो, मानो उनके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो। चलते फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे, इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा है न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो। जेठ के दिन हैं, अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है, मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजन और कारिंदों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह भी दूसरों का है। भविष्य अंधकार की भांति उनके सामने है। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता उनकी सारी चेतन आए शिथिल हो गई है। द्वार पर मानो कूड़ा जमा है ,दुर्गंध उड़ रही है, मगर उनकी नाक में न गंध है, न आंखों में ज्योति ।"3।
किसान अन्न तो उपजाता है पर उसका किस्मत में अन्न नहीं होता। जमींदार, पटवारी, महाजन, पुलिस, नेता, सूदखोर, बिरादरी, धर्म के ठेकेदार, पंडित आदि सभी किसी न किसी तरह से किसानों का शोषण करते हैं। किसानों पर इतना लगान, कर्ज बढ़ जाता है कि वह पूरी उम्र कर्ज ही भरत है। ऐसी स्थिति में किसान मजदूर बनने को विवश होता है। गोदान का होरी भी इसी कर्ज के कुपोषण का शिकार होता है। किसानों के शोषण का एक बड़ा कारण अज्ञानता और अशिक्षा, रूढ़िवादिता और संगठन का अभाव है। गोदान उपन्यास को अधिकांशत: आलोचक किसानी जीवन का महाकाव्य है। इसमें किसानी जीवन से जुड़े सभी दस्तावेज उपलब्ध होते हैं। डॉक्टर सुरेश सिन्हा का मानना है कि -"गोदान कृषक जीवन का महाकाव्य है। इसकी मूल समस्या ग्रामीण जीवन की आर्थिक एवं सामाजिक समस्या है। जिसका यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में किया गया है।"4।
गोदान में किसानों के शोषण की कथा कही गई वह सत्य है। उसका किसान सभी दुख दर्द को झेलते हुए जीवन लीला को पार करता है। गोदान का होरी तेजस्वी, संघर्षशील, साहसी, कर्मठ तथा ईमानदार है। उसमें किसान के सभी गुण दोष विद्यमान है। वह परोपकारी एवं सीधा-साधा इज्जत दार किसान है। उसमें भी अन्य किसानों की तरह कुछ न कुछ दोष है ।वह भी पक्का स्वार्थी है। कपास में बिनौले मिला देना, सन को गीला कर देना, बंसोर से बासों का सौदा करते समय चालाकी दिखाकर भाइयों के हक मारने की कोशिश करना, भले ही वह उस में मात खा जाता है। तथा घर में कुछ रुपयों के होते हुए भी झूठ बोलना, मालिक से चिरौरी विनती करने में कुशल होना आदि इन सभी प्रवृत्तियों का किसानों में होने का जिक्र प्रेमचंद जी गोदान में करते हैं-" किसान पक्का स्वार्थी होता है ,इसमें संदेह नहीं। उसकी गांठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास ना हो जाए वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति से स्थाई सहयोग है।"5
किसान प्रकृति के सानिध्य में रहने की वजह से परोपकारी होता है। कुत्सित स्वार्थ के लिए उनके हृदय में कोई जगह नहीं होती। होरी की व्यवहार कुशलता, भाग्यवादिता, परोपकार उसमें कूट कूट कर भरा है। जब सिलिया को उसके मां बाप ने अपने घर से निकाल दिया था तब होरी ने उसे शरण दिया था ।गोदान में किसान होरी का मानना था कि भले ही उनके स्वार्थ की पूर्ति न हो, कोई लाभ मिले या ना मिले, फिर भी हाकिम हुक्काम से बीच-बीच में मिलते-जुलते रहने और दुआ सलाम करने से वह कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाएंगे। क्योंकि वह जानता है कि-" जब हमारी गर्दन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है, अकड़कर निबाह नहीं हो सकता।"6। होरी जैसे किसान रोज -रोज मालिकों की खुशामद ना करने जाए तो क्या करें। क्योंकि किसानों को भी नहीं पसंद है कि जमीन दारी की सारी लगान भी भरो, भरी समाज के सामने कालिंदों और महाजनों की गाली भी सुनो। किसान लोग जमींदार के खेत जोतते हैं, लगान भी देते हैं, खुशामद भी करते हैं, फिर भी किसानों का शोषण होता है। इसलिए गोदान का होरी कहता है कि-" जब दूसरों के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांव को सहलाने में ही कुशल है।"7
छोरी को अपने जीवन में उन सभी समस्याओं से जूझना पड़ा। जो एक सामान्य किसान के जीवन में झेलनी होती है। किसानों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। कभी बीज के लिए ,सिंचाई के लिए, बैल- गाय, बच्चों की शिक्षा के लिए, बेटी के विवाह आदि के लिए। भारतीय किसान इसी समस्या से पीड़ित है। वह कर्ज के लिए गांव के महाजन से कर्ज लेता है। गांव में महाजनी सभ्यता विद्यमान होती है। जो इन्हें कर देता है ₹20 देकर ₹100 वसूलते हैं बेचारा किसान लाचार होता है। इनके चंगुल में फंस कर पूरी जिंदगी उनकी गुलामी करता है। गोदान उपन्यास ने गांव के महाजन मातादीन, झिंगुरी सिंह दुलारी, सहुआइन आदि सभी लाचार किसानों को कर्ज देते थे और उन से ऋण वसूली करते थे। यह किसानों का शोषण करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते थे। जैसे ही खेत से अन्न तैयार हो जाता था तो सभी खलिहान में ही अपना-अपना हिस्सा ले लेता था। बाकी जो बचता है वह किसान को मिलता है-" अनाज तो सब का सब खलिहान में तूल गया। जमींदार ने अपना लिया महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पांच सेर अनाज बच रहा। जमींदार तो एक ही है, मगर महाजन तीन - तीन हैं, सहुआइन अलग और मगर मगरू अलग और दाता दीन पंडित अलग किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपए बाकी पड़ गए। हमारा जन्म इसलिए हुआ है कि अपना रक्त बहाएं और बड़ों का घर भरे। मूल का दुगुना सूद भर चुका, पर मूल ज्यों का त्यों सिर पर सवार है।"8।
किसान बेचारा भूखे पेट रह कर गर्मी ,सर्दी, बरसात और रात दिन की परवाह किए बगैर वह और उसका परिवार खेत में मेहनत करता है तथा पेट भर खाने को भी नहीं नसीब होता।किसानों को जमीन से वंचित कर उसे मजदूर बनाने में जमींदार, अफसर, नेता, पटवारी, महाजन, पुरोहित आदि का हाथ होता है। किसान को पता होता है इसमें जमींदार का विशेष महत्व होता है। प्रेमचंद जी किसानों की दुर्व्यवस्था, मानसिक प्रताड़ना, शारीरिक, आर्थिक, उत्पीड़न आदि उनकी दयनीय अवस्था पर लिखते हैं कि -"भारतीय किसान की इस समय जैसी दयनीय दशा है, उसे कोई शब्दों में अंकित नहीं कर सकता। उनकी दुर्दशा को वह स्वयं ही जानते हैं या उनका भगवान जानता है। जमींदार को समय पर मालगुजारी चाहिए, सरकार को समय पर लगाना चाहिए, किसान को खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न चाहिए, पहनने के लिए एक चिथड़ा चाहिए ,चाहिए सब कुछ, पर एक और तुषार तथा अतिवृष्टि फसल चौपट कर रही है- दूसरी और रोग, प्लेग, हैजा, शीतला उनके नौजवानों को हरी-भरी तथा लहराती जवानी में उसी तरह उठाएं लिए चले जा रहे हैं जिस तरह लहलहाता खेत अभी 6 दिन पूर्व पत्थर पाले से जल गया।"9।
महाजन लोग किसानों की विवशता से लाभ उठाकर उनका निरंतर शोषण करते हैं। भारतीय किसान जमींदार महाजन कारिंदों की शोषण श्रृंखला से बंधा है। महाजनों द्वारा शोषण के हजारों प्रसंग गोदान में मिलता है। सभी महाजन ऐसा करते हैं कि किसान कर्ज लेने को मजबूर हो जाता है। होरी को पूरे जीवन में मात्र एक इच्छा थी कि वह गाय ले। उसने कभी करोड़पति बनने का सपना, मिल मालिक बनने का सपना या विदेश घूमने का सपना नहीं देखा था बल्कि वह अपने औकात के हिसाब से बच्चों को दूध पीने के लिए गाय का सपना देखा था। वह भी पूरा न हो सका सारी जीवन होरी ऋण ही चुकाता रहा। मानो कर्ज में ही उसका जन्म हुआ हो और उसी में जीवन लीला की समाप्ति। वह कितना भी चाहता था कि किसी से कर्ज न लूं पर कोई ना कोई ऐसी विभक्ति आ जाती है कि उसे कर्ज लेना ही पड़ता है। प्रेमचंद ने गोदान में सत्य ही तो कहा है कि-" कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।"10।
किसान को अपनी इज्जत, मरजाद प्यारी होती है। इसका वह त्याग नहीं कर पाता। भले ही किसानी से कुछ ना मिलता हो, परंतु इससे इज्जत तो बनी रहती है ।होरी को अपने बिरादरी की चिंता भी है। वह बिरादरी से बाहर नहीं रह सकता। इस बिरादरी ने उसे निर अपराध होते हुए भी अपराधी बनाया। झुनिया को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकारने पर उसे सामाजिक दंड भी लगा। जिसे वह खुशी-खुशी स्वीकार करता है। होरी के ऊपर ₹100 नगद और 30 मन अनाज का दंड लगाया गया-" बिरादरी का यह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों अपनी कब्र खोद रहा हो। जमींदार, साहूकार, सरकार किसका इतना रोब था? कल बाल बच्चे क्या खाएंगे, इसकी चिंता प्राणों को सोख लेती थी, पर बिरादरी का भय पिचाश की भांति सिर पर सवार आँकुस दिए जा रहा था। बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना नहीं कर सकता था। शादी, विवाह, मुंडन, छेदन, जन्म मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है।।"11
भारतीय परंपरा में विवाह को अनिवार्य अंग माना गया है। होरी अपनी बेटी सोना की शादी एक संपन्न किसान से कर देता है। और छोटी बेटी रूपा की शादी आर्थिक अभाव के कारण एक अधेड़ व्यक्ति अपने से 4 से 6 साल छोटे व्यक्ति से करता है। किसान के जीवन की यह दुर्दशा है कि वह अपने बच्चों का कन्यादान भी ढंग से नहीं कर पा रहे हैं। भारतीय समाज में रूढ़िगत व्यवस्था है कि व्यक्ति के अंतिम समय में उसका गोदान किया जाए। मरते समय भी पंडित, पुरोहित व्यक्ति को चूसते हैं ।जो व्यक्ति पूरे जीवन में एक गाय के लिए तरसता रहा उससे गोदान की अपेक्षा की जाती है। मजदूरी से मिले पैसे को धनिया होरी के हाथ में रखकर सामने खड़े पंडित दातादीन से बोली-" महाराज घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।"12 । यह कैसा समाज है कि व्यक्ति को चैन से मरने भी नहीं देता। प्रेमचन्द जी गोदान में दिखाते हैं किअंत तक शोषक -शोषक रहते हैंऔर शोषित-शोषित रहते हैं। अंत तक उनमें कोई बदलाव नहीं आया।
गोदानमें हम देखते हैं कि हर कोई किसानों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाते हैं। पटवारी, जमींदार, के कारिंदे, दरोगा, कांस्टेबल, कानूनगो, तहसीलदार, कलेक्टर, कमिश्नर आदि लोग किसानों के पीछे पड़े रहते थे ।यहां तक कि जमींदार जब किसी अफसर को दावत पर बुलाते थे तो उसका भार भी किसानों पर होता है। किसानों की सबसे बड़ी समस्या ऋण की समस्या है। जो उन्हें अंदर से घुन की तरह दिनों दिन खाए जा रही है। यह ऋण की समस्या महामारी की तरह किसानों में फैल गई है। यह ऋण की बीमारी पूरी तरह से चूस रही है।डॉ. रामविलास शर्मा का मानना है कि-" गोदान की मुख्य समस्या ऋण है।"13। भारतीय किसान इस जमींदारी कुव्यवस्था में जकड़ा निरन्तर कोल्हू के बैल की भांति पिसता रहता है। भारतीय किसान समाज के केंद्र बिंदु हैं। यदि किसान हैं तो यह समाज है।अन्नदाता से ही यह हरी भरी धरती है। किसान से ही समाज की आर्थिक स्थिति निर्धारित है ।परंतु आज का किसान तरह तरह की समस्याओं से जूझ रहा है ।वह हल चलाता है पर उसके जीवन का हल नहीं निकल रहा है। डॉक्टर रामवक्ष ने लिखा है कि-" किसान समाज का आधार होता है। समाज का उत्पादक वर्ग किसान है उसी की उन्नति से देश की उन्नति संभव है। उसकी बदहाली देश की बदहाली है।"14।
निष्कर्ष का गोदान का होरी एक सच्चा, कर्मशील, ईमानदार किसान था। वह पूरी जिंदगी किसान बने रहने की झूठी शान रखने के लिए संघर्ष व जी हुजूरी करता रहा ।गोदान उपन्यास ने प्रेमचंद जी ने होरी के माध्यम से किसानी जीवन की सच्चाई को समाज के सामने रखते हैं। सन 1936 के किसानों की जो हालात थे वही हालात आज के किसानों के हैं ।बेचारे किसान चिलचिलाती धूप में मेहनत करते हैं। पूरी रात जागकर सिंचाई भराई करते हैं। क्या वह इंसान नहीं है? उन्हें भी सुख से जीने का अधिकार है। वह अन्न तो पैदा करते हैं होरी की तरह पर वह उन्हें कहां नसीब। उन्हें तो इतना भी अधिकार नहीं कि वह अपने अनाज का भाव तय कर सके। किसान पैदा ही होता है कष्ट भोगने के लिए और अंत में कष्ट भोंगते हुए मर भी जाता है ।किसान की जिंदगी कितनी सस्ती होती है। यह उपन्यास सच्चे किसानों की दुख भरी महागाथा कहती है। प्रेमचंद जी ने इस उपन्यास में जो किसानों के शोषण का चित्र प्रस्तुत किया हुआ वह आज भी प्रासंगिक है। आज भी ग्रामीण किसान समस्याओं को झेलते हुए आत्महत्या कर लेते हैं, परंतु होरी धैर्यवान किसान था वह आत्महत्या नहीं कर सका। तरह तरह से लोगों के जुर्म सह गया। इस उपन्यास में किसानों की त्रासदी की महागाथा युगो युगो तक अनवरत बनी रहेगी।
सन्दर्भ सूची
1 जमाना पत्रिका 1919 फरवरी विविध प्रसंग भाग -1 पृ 268
2 प्रेमचन्द- गोदान पृ 132
3 वही पृ.312
4 सं.डॉ नागरत्ना एन. राव -प्रेमचन्द एक पुनर्मूल्यांकन पृ 265
5 गोदान पृ 10
6 वही पृ 16
7 वही पृ 5
8 वही पृ 21
9 प्रेमचन्द विविध प्रसंग भाग 2.हंस प्रकाशन 1962 पृ 489-490
10 गोदान पृ 92
11 वही पृ 114
12 वही पृ 319
13 रामविलास शर्मा - प्रेमचन्द और उनका युग, पृ 96
14 डॉ रामवक्ष - प्रेमचन्द और भारतीय किसान पृ 176
पूनम सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, हिन्दू कन्या महाविद्यालय,
सीतापुर (उत्तर प्रदेश)
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