शब्दों की खेती पर एमएसपी खरीद
बी. एल. आच्छा
अर्सा हो गया है रचनाएँ जब छपती थी तो सरस्वती जी लक्ष्मीजी से गलबहियाँ रचाते चली आती थीं। पर अब लिखैतों का हाल माइनसलक्ष्मी तापमान में चल रहा है। फिर भी वे छपने को मजबूर हैं। चाहे लद्दाक के शीतमान की पत्रिका हो या भूमध्यरेखा पर तमतमाते सूर्यमान की पत्रिका हो। लिखैतों को लागत खर्च तो छोड़िए समय-खर्ची भी नहीं मिलती। पहले सोचा था कि न हो तो क्रिकेट कंट्रोल की तरह साहित्यकारों का आईपीएल करवा लिया जाए। कुछ लिखैत-सितारे ही बिकेंगे। हो भी भाव पक्का नहीं। पर फिर मन में आया कि देशी बल्लेवाले गली-कस्बे के साहित्य को हराभरा रखनेवाली काश्त का क्या होगा? फिर टोपमटोप शिखरों को भी क्या शब्द लिखैतों का उच्चतम मंडीमान मिल सकेगा? सो आइडिया को दूसरी कंपनी में मर्ज तक नहीं किया।
फिर लगा कि सम्मान शिखरों का नकदिया इंतजाम हो जाए। मगर उसके भी अपने अपने ठीए, अपने अपने कोण कभी आक्रोश की शब्दमूर्ति और प्रतिरोध की बीज-प्रतिमा। हर किताबी आक्रोश छपते ही जादूगर ध्यानसिंह की गेंद की तरह पुरस्कार का गोल रच देता था। अंडरगोल तो होता नहीं | गोल के रेफरी बॉल को पहचानते हैं। कभी बहुत खरे-निखरे, कभी अपने-पराये। मगर मूल्यांकन अधिकतर हाईगोल से नजरपार।
मन में बात आई क्यों न जंतर-मंतर पर आक्रोश और विरोध की झंडियां फहराई जाएं। आखिर लोकतंत्र की फसल तो मीडिया में ही कटती है। मगर यह केवल अखबारों की काली-पीली सुर्ख़ियाँ भर बन जाएंगी। वहीं एक आक्रोशधर्मी से संवाद हुआ। मैंने पूछा- "क्या प्रकाशन और बिक्री को लेकर आपके मन में अवसाद की अनुभूति नहीं होती?" वे बोले- 'बात तो सही है। लिखैतों के दर्द को कोई तवज्जो नहीं मिल रही।" मैने कहा-" अब तो लेखक को खुद ही लिखना, अपनी जेबी रक्त-लक्ष्मी से छपाना, डाक खर्च से समीक्षा करवाना और छपने के लिए संपादकों के हृदयतल तक पहुंचना पड़ रहा है।"
वे बोले- "पर इसे देखता-सुनता कौन है? उल्टे उत्तर मिलता है कि लिखैतों को कौन सी जमीन चाहिए? कौन से खाद-बीज चाहिए? लैपटॉप पर सीधी टक-टक और ईमेल। गली से शिखर पेज पर कहीं न छप जाए तो फेसबुक पर पोस्ट। बताइए क्या लागत खर्च? नारों में ढ़ले शब्दों से प्रीत लड़ाते इन लोगों से कैसे कहें कि यश और अर्थ को शास्त्रीय कसौटी माना गया है।" मैने कहा- "तो फिर इन लिखैतों के उत्पादन की मण्डी-खरीद होनी चाहिए। आखिर बिन जमीन की इस लहलहाती फसल को भी जिन्दगी का लागत खर्च तो मिले? क्या अनुभूतियों के लहूलुहान से भीगे कातर शब्दों की उपज को ठेंगा ही दिखा दें?"
वे बोले- "बात तो सही है। पर लिखैत भी लाल-उपज, हरी उपज, तन्नाट मिर्ची- उपज, गन्ना-खंडसारी मिठास-उपज, व्यंग्य तेवरी, प्रेम-तेवरी जैसी किसिम किसिम की कविता की तरह झंडाबरदारी करने लगेंगे। ये सड़कों को जाम भी करेंगे तो अपने-अपने झंडों और विधाओं में। ऊँचे-नीचे मोलभाव वाली एम.एस.पी की तरह कोई शरबती गेहूँ तो कोई दून के चावल, कोई असमिया चाय-पत्ती तो कोई मालवी- गराड़ू की झंडियां लहराएगा।"
फिर तो लिखैतों के रास्ता रोको अभियान भी टांय-टांय..। आप लोग संयुक्त मोर्चा क्यों नहीं बना लेते? शब्द मंडियों में सरकारी खरीद क्यों न हो? आखिर अंतर को चीरती व्यथा है। विद्रोह है। प्रतिकार और चुनौतियाँ है। विमर्शों के तेवर हैं?" वे बोले-" हर चीज फिजिकल है, डिजिटल है। पर जो व्यथा का जो इंटरनल है, वह तो अपना और अपने जैसों का ही रह जाता है। कभी फेसबुकिया, कभी वाट्सएपिया, कभी अखबारिया, कभी पुरस्कारिया अलबत्ता शताब्दियों में वह बदलाविया बन पाता है। "उनके विद्रोह और सृजन -व्यथा के बीच की साँसों के ध्वनिमान को सुनकर मैं चुप्पा हो गया।
बी. एल. आच्छा
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