Hindi Sahitya Ki Pramukh Dalit Aatmkathaye : हिंदी साहित्य की प्रमुख दलित आत्मकथाएँ
भारतीय साहित्य में दलित साहित्य एक विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। उसमें कोई शक नहीं है। दलित साहित्य ने व्यापक वर्ग पैदा किया है। अपनी भाषा, विचार और संवेदना को लेकर भारतीय और हाशिए से सचेतन रूप से बाहर कर दिए गए बहिष्कृत-अछूत बनाये गए लेखक अपने साहित्य को केंद्र में लेकर आ गए। महानगरों से लेकर गाँव-देहात तक दलित साहित्य चेतना पहुंच गई।
दलित साहित्य जीवन की ही अभिव्यक्ति है। हिंदी दलित साहित्य की वजह से हिंदी समृद्ध और समर्थ बानी है। भारत के बाहर कई देशों में हिंदी पढ़ाई जाती है। विदेशी साहित्यविदों से अब दलित साहित्य अपरिचित नही है। बल्कि बहुसंख्य भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों को जानने के लिए दलित साहित्य को ही प्राथमिकता दे रहे है।
आत्म-कथा हिंदी साहित्य में एक गद्य की विधा है। आत्मकथा में व्यक्ति अपने की कथा स्मृतियों के लिखता है। आत्मकथा में निष्पक्षता है। दलित साहित्य से तात्पर्य दलित जीवन और उसकी समस्याओं पर लेखन को केंद्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है जिसका सूत्रपात्र दलित पैंथर से माना जाता है। दलितों को हिन्दू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्हें अपने ही धर्म में अछूत या अस्पृश्य माना गया। दलित साहित्य की शुरुआत मराठी से मानी जाती है जहां दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बड़ी संख्या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीड़ाओं, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबंधों, जीवनियों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्यम से पहुंचाया।
आत्मकथाएँ विश्व के सभी भाषाओं में लिखी जाती है लेकिन उसको साहित्यिक विधा के रूप स्थापित करने का श्रेय मराठी में रची गयी दलित आत्मकथाओं को दे सकते है। मराठी दलित आत्मकथाओं से प्रेरणा पाकर भारत के अन्य भाषाओं में भी दलित आत्मकथाओं लिखी जाने लगी। इसमें हिंदी दलित आत्मकथाओं लेखन ने भी अपनी जड़ें मजबूत की।
हिंदी साहित्य में दलित आत्मकथाओं का प्रारंभ:
हिंदी में भगवान दास रचित पहली सामाजिक आत्मकथा –“मैं भंगी हूँ” प्रकाशित हुई थी। उस समय दलित आत्मकथा ने उतनी प्रतिष्ठा प्राप्त भी नही की थी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘मैं भंगी हूँ’ व्यक्तिगत आत्मकथा न होकर पूरी जाती की सामाजिक आत्मकथा होने की वजह से दलित साहित्य के संदर्भ में यह कृति अत्यंत महत्वपूर्ण होते हुए भी सृजनात्मक दलित आत्मकथा के दायरे में नही आती। सृजनात्मक दलित आत्मकथा लेखन में जिन दलित आत्म-कथाकारों ने पहल की उसमें मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि, कौशल्या बैसंत्री, श्योराज सिंह बेचेन, कुसुम वियोग, सुराजपाल चौहान, रूपनारायण मिश्र आदि प्रमुख है।
मोहनदास नैमिशराय द्वारा ‘अपने-अपने पिंजरे’ (१९९५), आत्मकथा लिखने के पश्चात ‘मैं भंगी हूँ’ सामाजिक आत्मकथा भी काफी प्रकाश में आयी। लेकिन साहित्य की पहली आत्मकथा का दर्जा ‘अपने-अपने पिंजरे’ को मिलता हैं। फिर ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘झूठन’(१९९६), कौशल्या बैसंत्री ‘दोहरा अभिशाप’(१९९९), श्योराज सिंह बेचेन ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’, डॉ.डी.डी.आर.जाटव ‘मेरा सफर मेरी मंजिल’, नाथूराम सागर ‘मुझे चोर कहां’(१९९६), अमर सिंह चौहान ‘गुलामी में जकड़े हम’, माताप्रसाद की ‘झोंपड़ी से राजभवन’, सुराजपाल सिंह चौहान ‘तिरस्कृत’(२००२) और ‘सतप्त’(२००६), रूपनारायण सोनकर ‘नागफनी’(२००७), तुलसीराम ‘मुर्दहिया’(२०१०), आदि ने अपने जड़े मजबूत की। इतना ही नही मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ का दूसरा भाग भी प्रकाशित हो चुका है। कुल मिलाकर हिंदी आत्मकथा लेखन का आरंभ बहुत कम समय में काफी परिपक्व हो चुका है।
अपने-अपने पिंजरे :
‘अपने-अपने पिंजरे’(१९९५) हिंदी साहित्य की पहली दलित आत्मकथा मानी जाती है। इस आत्मकथा के लेखक मोहनदास नैमिशराय है। उन्होंने कविता, नाटक, उपन्यास भी लिखे है। इस आत्मकथा आरंभ मोहनदास ने अपनी पत्रकारिता की शैली में अपने शहर मेरठ के विस्तृत विवरण से किया है। जिसमें १८५७ के पहले संग्राम, पंडित नेहरू के इम्पाल गाड़ी में कई बार शहर में आने तथा अम्बेडकर का शहर का दौरा करना आदि का जिक्र किया है। इस शहर के उपरांत लेखक ने व्यक्तिगत जीवन का चित्रण करते नजर आते है। बचपन में माँ की मृत्यु और उसके बाद पिता ने दूसरी शादी करने का जिक्र आता है। उसको ताई माँ पालकर बड़ा करती है। उसके गाँव की बस्ती में चमार जाति के अस्सी घर थे, उनका धंधा, मेहनत-मजदूरी करना था। भैंसे और गाय का माँस आम रूप से खाए जाने का चित्रण भी मिलता हैं।
जूठन :
ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ में आर्थिक, दारिद्र्य, सामाजिक उपेक्षा, अवमानजन्य स्थितियां, अभावग्रस्तता, प्रतिकूलता से गुजरते-गुजरते लेखक को जो कट तिक्त अनुभव आया है उसका यथार्थ चित्रण ‘जूठन’ में किया है। भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था, छुआ-छूत, जातिभेद का जीता-जागता चित्रण जूठन में किया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा ‘जूठन’ इसे गम्भीरता से उठाती है। प्रस्तुति और भाषा के स्तर पर यह रचना पाठकों के अंतर्मन को झकझोर देती है। भारतीय जीवन में रची-बसी जाती-व्यवस्था के सवाल को इस रचना में गहरा सरोकारों के साथ उठाया गया है। दलितों की वेदना और उनका संघर्ष पाठक की संवेदना से जुड़कर मानवीय संवेदना को जगाने की कोशिश करते है, इसलिए यह पुस्तक पाठकों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई है।
तिरस्कृत :
‘तिरस्कृत’(२००२) आत्मकथा के लेखक सुराजपाल चौहान है। उसके बाद लेखक ‘संतप्त’ नामक दूसरी आत्मकथा लिखते है। सुराजपाल कवि एवं कहानीकार भी है। इस आत्मकथा के आरंभ से लेकर अंत तक दलितों को गाँव और शहर के सवर्ण लोग किस प्रकार प्रताड़ित करते है, उसका हृदयद्रावक वर्णन मिलता हैं।
नागफनी :
‘नागफनी’ के आत्मकथाकार रूपनारायण सोनकर एक सफल नाटककार तथा उपन्यासकार भी है। हाल ही में उनका ‘डंक’ तथा ‘सूअरदान’ उपन्यास ने तो उन्हें श्रेष्ठ उपन्यासकारों की पंक्ति में बैठा दिया है। इन दोनों उपन्यासों की चर्चा लंबे अरसे तक चलती रहेगी। नागफनी आत्मकथा में सोनकर जी ने अपमान, शोषण और असमानता की पीड़ा को उजागर किया है।
दोहरा अभिशाप :
‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा कौशल्या बैसंत्री द्वारा लिखी गयी है। कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा हिंदी दलित साहित्य की पहली महिला आत्मकथा मानी जाती है। कौशल्या बैसंत्री की यह आत्मकथा अपने जीवन की एक-एक पर्व को जिस तरह उघाड़ कर पाठकों के सामने रखती है वह एक साहस का काम है। इस आत्मकथा की एक विशिष्टता है उसकी भाषा, जो जीवन की गंभीर और कटु अनुभूतियों को तटस्थता के साथ अभिव्यक्त करती है। एक दलित स्त्री को दोहरे अभिशाप से गुजरना पड़ता है- एक उसका स्त्री होना, दूसरा दलित होना। कौशल्या बैसंत्री इन दोनों अभिशापों को एक साथ जीती है, जो उनके अनुभव जगत को एक गहनता करते है।
शिकंजे का दर्द :
‘शिकंजे का दर्द’ आत्मकथा सुशीला द्वारा लिखी गयी है। सुशीला टाकभौरे की इस आत्मकथा ने अपने पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष को जिस तरह शब्दबद्ध किया है वह इसे दलित साहित्य में एक विशिष्ट स्थान दिलाता है।
एक स्त्री होने की पीड़ा और दलित जीवन की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने में एक आत्मकथाकार को सफलता मिली है, इसलिए यह दलित साहित्य की एक श्रेष्ठ रचना है।
मुर्दहिया :
‘मुर्दहिया’ आत्मकथा के लेखक तुलसीराम है। ‘मुर्दहिया’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए जूझते एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्ति है। जहां सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विसंगतियों क़दम-क़दम पर दलित का रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है और उसके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम षड्यंत्र रचती है। लेकिन एक दलित संघर्ष करते हुए इन तमाम विसंगतियों से अपने आत्मविश्वास के बल पर बाहर आता है और जोएनन्यू जैसे विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा का विद्वान बनता है। यही इस रचना को एक गंभीर सरोकारों की रचना बनाता है जिसे पाठक और आलोचक स्वीकार करते है।
उपसंहार :
इस प्रकार पिछले डेढ़ दशक से दलित आत्म-कथाकारों ने कुछ ऐसी आत्म-कथाएँ लिखी है जिससे दलित साहित्य ने एक ताकत के साथ अपना अस्तित्व हिंदी साहित्य बना दिया है। दलित साहित्य केवल साहित्य की ही नहीं देता, बल्कि समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाज मनोविज्ञान, इतिहास, दर्शन इत्यादि ज्ञान के विषयों की जानकारी देता है और यह सब जन सामान्य द्वारा बोली-समझी जानेवाली भाषा में देता है। हिंदी की भूमिका इसमें सबसे बड़ी है।
संदर्भ:-
1. जूठन – ओमप्रकाश वाल्मीकि
2. शिकंजे का दर्द – सुशीला टाकभौरे
3. दोहरा अभिशाप – कौशल्या बैसंत्री
4. अपने-अपने पिंजरे – मोहनदास नैमिशराय
5. विकिपीडिया
6. मुर्दहिया – तुलसीराम
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