संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्तिकाल के इकलौते ऐसे कवि है, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह धर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।
कबीर 15 वीं सदी के भारतीय रहस्य वादी कवि और संत थे। वे हिंदी साहित्य के भक्ति कालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्य धारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिंदी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया।
‘जाति जुलाहा नाम कबीरा’ जैसे उल्लेख से स्पष्ट है कि जाति-पाँति के कटु आलोचक कबीर ने अपने को जुलाहा जाति का होना स्वीकार किया। कबीर पंत में कबीरदास के माता-पिता के विषय में किसी प्रकार का मत उपलब्ध नहीं होता। नीरू जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा ने कबीर का पालन-पोषण किया। कबीर की पत्नी का नाम लोई, पुत्र कमाल और पुत्री कमाली।
भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीरदास ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली महाकवि है, जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घ काल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में नवजीवन का नायकत्व किया।
भाषा: कबीर को पढ़ने-लिखने का अवसर नही मिला था परंतु विद्वानों के सान्निध्य में वे खूब रहे
“मसि कागद छुवो नही, कलम गही नही हाथ।“
साधु-संतों के सत्संग से उन्होंने अनेक शास्त्रों तथा धर्म का समुचित ज्ञान अर्जित कर लिया था। कबीर ने कविता अपना काव्य पांडित्य दिखाने के लिए नहीं की। उनका काव्य भक्ति काव्य है और उनके काव्य में रहस्यवाद के भी दर्शन होते है। कबीर की भाषा साधुक्कड़ी है। इनकी भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों की भाषा सम्मिलित है। राजस्तनी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रज भाषा के शब्दों का बहुलता है।
कृतियाँ: कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- शिष्यों ने उनकी वाणियों का संग्रह ‘बीजक’ नाम ग्रंथ में किया जिसके तीन मुख्य भाग है: साखी, सबद (पद), रमैनी.
साखी: संस्कृत ‘साक्षी’ शब्द का विकृत रूप है और धर्मोपदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अधिकांश साखियाँ दोहों में लिखी गयी हैं पर उसमें सोरठे का भी प्रयोग मिलता है। कबीर की शिक्षाओं और सिद्धांतों का निरूपण अधिकतर साखी में हुआ है।
सबद: गेय पद है जिसमें पूरी तरह संगीतात्मक विद्यमान है। इसमें उपदेशात्मक के स्थान पर भावावेश की प्रधानतः है; क्योंकि इसमें कबीर के प्रेम और अंतरंग साधना की अभिव्यक्ति हुई है।
रमैनी: चौपाई छंद में लिखी गयी है इनमें कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया है।
मानव-मानव में भेद तो परम अज्ञान का सूचक है। इसी तात्विक दृष्टि से अभिप्रेरित होकर कबीर ने जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊंच-नीच और ब्राह्मण-शूद्र के भेद का विरोध किया है। वे कहते है कि-
“एकहि जोति सकल घट व्यापक दूजा तत्व न होई।
कहै कबीर सुनौ रे संतौ भटकी मरै जनि कोई।।“
कबीर पूजा-अर्चना, तीर्थ-व्रत तथा रोजा-नमाज़ सभी को बाह्याचार ही मानते है। यहाँ पर वे कहते हैं कि अल्लाह बहरे नहीं हैं, मन से आवाज लगाओ, तुम्हारी आवाज़ उन तक जरूर पहुँचेगी। वे कहते है-
“पाथर पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहाड़।
तातै वो चाकी भली पीस खाए संसार।।“
यहाँ पर वे मूर्ति-पूजा के आडंबर को प्रश्न-चिह्न के घेरे में रखते है और मन की पूजा तथा कर्म की साधना पर बल देते हैं। तप-जप, रोजा- नमाज़, ये सब मन को परिष्कृत करने के साधन हैं। यदि दिल साफ नहीं, तो ‘उजू’ करने से क्या लाभ?
“क्या उज जप मंजन कीएँ क्या मसीति सिरु नाएँ।
दिल महि कपट निवाज गुजारै क्या हज कावै जाएँ।।“
कबीर प्रत्येक मनुष्य को आत्म तथा मन को पवित्र करने के साथ-साथ निरंतर उद्यम करने को कहा है-
“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।“
संत कबीरदास का साहित्य पथदर्शक है। आज के जीवन के लिए प्रासंगिक है। कबीर ने समाज में भेदभाव को दूर किया। कबीर ने अपनी वाणी के माध्यम से जन-जन को समझाया, कुरूतियों को पूरी तरह से फटकारा। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से मानवता का संदेश दिया। समाज में मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए कबीर की वाणी जन-जन तक पहुँचना जरूरी हो गया है। संत कबीर का साहित्य भारतीयता के तत्त्व को संजोती है। लोक मंगल की भावना है। दूर दृष्टि है, जो आनेवाली युग को प्रभावित करता हैं।
डॉ. मुल्ला आदम अली
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