व्यंग्य
बिन सेवा के वो सात साल...
मुकेश राठौर
चार महीने पहले एकाएक पंचायत चुनाव निरस्त हुए तो स्थानीय स्वशासन के स्वयंवरों की हालत ऐसी हो गई मानो ब्याह का बाजार-हाट, न्योते-पाती निपटने और हल्दी लगने के बाद लाडी बाई भाग गई हो। "दिल की बात अटक गई दिल में मुंह से हाय कही न जाए" टाइप। लेकिन निर्वाचन वाले के घर देर है, अंधेर नहीं। इससे पहले की उम्मीदवारों द्वारा जमा खाने-पीने की चीजें उपयोग की अंतिम तारीख को पार कर जाए, नई तारीखों की गरज-चमक के साथ घोषणा हुई। जब मानसून चुनाव को नहीं देखता तो चुनाव मानसून की फिक्र क्यों करें!
पंचायत चुनाव प्रथम श्रेणी क्रिकेट की तरह होते हैं जहां से निकलकर ही खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में आने की दावेदारी पेश करते हैं। बहरहाल,चुनाव का सुनकर गोरधन, गजरु, टूटा, अमरोती, घिसी के अंग में भी नेता आ गए। सबने खेत-खलिहान की राह छोड़ जनपद की राह पकड़ी। पढ़े-लिखे न हैं तो क्या हुआ! वे भी बड़े नेताओं को सेवा करते देखते हैं तो उनका भी मन हो जाता है। सच पूछो तो सालों से वही-वही सेवादार सरपंचों को देख लोग बोर हो गए थे।खासकर वे जिन्हें जोर की सेवा लगी थी। बेचारे पंचों को तो ज्यादा सेवा का मौका नहीं मिलता! खुद ही थोड़ी बहुत हो जाए तो रामभली। वैसे भी आप गर सचमुच सेवा का संकल्प ले चुके हैं तो फिर पंच से काम नहीं चलने वाला।
गोरधन के माथे में पिछले चुनाव से सेवा घुसी हुई थी।बिन सेवा के 'वो सात साल' गोया सात जन्मों से बीते। पिछली बार ही सेवा तो कर डालता लेकिन महिला सीट से घरवाली के फारम की योजना भर बनाई और वह मायके जाकर अड़ गई। गई तो सालभर बाद आई। अबकी बार पुरुष सीट होने से गोरधन हाथ छूट है। लेकिन घरवाली फिर समझा रही है कि अपन डोरी-दरांती वाले अपन को न ऐसी सेवा करनी, मगर गोरधन इस गेली को कैसे समझाए! बोला, अबकी बार परधानी मिली तो तेरे रमझोल, कंदोरा, झुमकी...। उसपर लोग सरपंचन कहकर मुंह सुखायेंगें सो अलग। इससे ज्यादा समझाने में पिछली बार जैसा कुछ हो जाने का डर था।
गोरधन न माना। खेत में बोवनी छोड। एक बकरी बेची। दो-चार को साथ लिया और फारम भर आया। फारम भरने वालों का तो उत्ता ही खर्च आया,भरवाने वाले दूसरी बकरी भी खा गए। नामांकन संविक्षा हुई तो फारम निरस्त हो गया। वो भी बिजली बिल न भरने जैसी मामूली बात पर। अब गावों में नियमानुसार बिजली बिल भरता ही कौन है, जो गोरधन भरता? रिटर्निंग साहब से गुहार लगाई कि आप कहते हैं तो बिल भर देता हूं। लेकिन फारम दोबारा भरवा लीजिए। साहब बेचारे क्या करते! वो तो उल्लू लिखें को ऊट बनाने की स्थिति में न थे, तो फिर इतना बड़ा जोखम कैसे उठाते?
लब्बोलुआब यह कि गोरधन को दोबारा फ़ारम भरने का मौका न मिला।... अब तक बोवनी भी हो चुकी थी|लोगों के खेतों में फसल उग आई थी। इधर गोरधन का खेत करण कुंवारा बैठा था। रोजी-रोटी का संकट साफ दिखाई दे रहा था।तभी मानसून ने जोरदार वापसी की। निर्वाचन वालों ने दोबारा मौका न दिया लेकिन नियति ने दिया। पति-पत्नी खुशी-खुशी खेत में बोवनी करने चले। गोरधन ने पत्नी से कहा, अबकी बार फसल अच्छी हुई तो तेरे...।
"रमझोल, कंदोरा, झुमकी" न भी दिलाओ तो चलेगा। बस सेवा के बारे में मत सोचना। पत्नी ने हंसकर कहा।
मुकेश राठौर
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